भारतीय संस्कृति को यदि रामयण संस्कृति कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है, क्योंकि भारतीय समाज में जब भी कहीं मर्यादा और अनुशासन की बात होती है तो वहाँ राम का नाम ही सबसे पहले आता है। ऐसा नहीं कि भारत के सबसे बड़े ग्रन्थ महाभारत की उपेक्षा या अवहेलना की जाती है, परन्तु महाभारत से अधिक व्यापकता रामायण की है और वह भी विश्व स्तर पर। बाल्मीकि रामायण आज के संदर्भ में संस्कृत भाषा में लिखी होने के कारण जहाँ विशिष्ट वर्ग तक सीमित है वहीं तुलसीकृत रामचरित मानस भाषा की सरलता और गेयता के कारण जन-जन के हृदय में बसी है। इस पर भी यदि हम हिमाचल के संदर्भ में देखें तो यहाँ रामकथा के अनेक रूप देखने में आते हैं। जिसे विद्वान लोक-रामायण कहते हैं। आज हम इसी लोक रामायण की बात करने चले हैं।
हिमाचल कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी के पूर्व सचिव एवं हिमाचल प्रदेश के गौरवशाली लेखक श्री सुदर्शन वशिष्ठ के अनुसार हिमाचल के लोगों ने शिव और राम को अपने जैसा, अपनी तरह ही देखा। ‘‘जिस तरह लोकगीतों में शिव, पहाड़ी दर पहाड़ी दौड़ते-भागते हैं और पार्वती उन्हें घाटी गह्वरों में खोजती फिरती है, उसी तरह राम भी जन साधारण को अपनी ही तरह के लगे।’’
हिमाचल की लोक रामायण कई जगह मूल कथा से अलग हटती दिखाई देती है। कुछ ही समय पूर्व सर्दी की लम्बी रातों में लोग इसे कथा के रूप में सुनाया करते थे। कोई इसे गद्य रूप में सुनाता तो कोई गेयता को माध्यम बनाता पर रामकथा सुनाई अवश्य जाती थी। कितनी ही बार सुनी होने के बाद भी लोग कथा सुनते थे। हिमाचल कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी ने वर्ष 1974 में बहुत-सी सामग्री एकत्र करके लोक रामायण नाम की पुस्तक का प्रकाशन किया। हिमाचल कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी की शोध पत्रिका सोमसी के अंक अप्रैल-सितम्बर 2003 की भूमिका में डॉ. विद्यचन्द ठाकुर ने लिखा है, ‘‘लोक रामायण की संकलित सामग्री के अतिरिक्त भी अभी कई गुणा सामग्री ग्रामीण आँचलों में बिखरी पड़ी है।’’ डॉ. विद्याचन्द ठाकुर को क्षोभ है कि ‘‘आधुनिकता के प्रवाह में इन प्रसंगों को सुनने वाली पीढ़ी धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। लोक श्रुति परम्परा में इन कथाओं का अधिक समय तक जीवित रहना सम्भव नहीं दिखता। इसलिए इनका संग्रहण होना आवश्यक है।’’ फिर भी रामकथा तो जनमानस में चन्दन में सुगंध की तरह रची-बसी है। मूल कथा से हटकर भी लोक मनोविज्ञान, अवधारणाएँ व्यवहार, रीति-रिवाज आदि का कथा में सहज समावेश हो जाता है। डॉ. गौतम व्यथित के अनुसार रामकथा की मौखिक परम्परा को ‘रमैणी’ कहा जाता है और उसकी दोहा-चौपाइयों छंदों को गौआ भाख तथा रढ़ संज्ञा दी गई है।’ कथा के काण्ड कलि़यां कहे गये हैं। व्यापक रूप से इस गायन को ऐंहचली कहा जाने लगा, जिसका अर्थ अंचली निकाला जा सकता है।
मैं बात जिला शिमला के महासू क्षेत्र से शुरू करती हूँ, यहाँ रामायण को रमैण और महाभारत को पण्डैण कहा जाता है। कुछ ही दहाइयों पूर्व इनके लोक गायक भी थे, परन्तु आज यह गायन चलन से बाहर हो गया है। आज का शिमला जिला पूर्व में अपर महासू और लोअर महासू के नाम से दो भागों में जाना जाता था। शिमला जनपद की एक तहसील है ‘रामपुर बुशहर’ यह क्षेत्र शिमला जिला के अस्तित्व में आने से पहले अपर महासू कहा जाता था। यहाँ बोली जाने वाली बाली को बुशहरी अथवा महासवी कहा जाता है। शिमला जदपद के अस्तित्व में आने पर यह क्षेत्र शिमला की तहसील हो गया और भाषा बुशहरी कही जाने लगी। मैं इसी महासवी में गाई जाने वाली रमैण ;रामायणद्ध आप लोगों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रही हूँ। प्रथम प्रसंग सीता विवाह का है-जब राम विश्वामित्र के पास वन में थे तो एक दिन विश्वामित्र ने उनसे अग्नि का प्रबंध करने को कहा।
श्री राम ने लक्ष्मण से आग लाने को कहा और उसे बताया कि जनकपुरी जाकर वहाँ से आग ले आओ। लक्ष्मण जब वहाँ पहुँच कर आग की खोज करते हैं तो ऋषिगण उन्हें बताते हैं कि आग तो जनक की पुत्री सीता ही देगी।
सीता के द्वार पहुँचकर लक्ष्मण के आग माँगने पर सीता अपने हाथों में अंगारे लेकर आती है तो उसे लेने के लिए लक्ष्मण अपना रुमाल आगे कर देते हैं। सीता कहती है कि रुमाल जल जाएगा तो लक्ष्मण उत्तर देते हैं कि जिस प्रकार तुम्हारे हाथ नहीं जल रहे उसी प्रकार मेरा रुमाल भी नहीं जलेगा। तब सीता लक्ष्मण से उसका परिचय पूछती है। इस प्रसंग में उनकी कुछ नोक-झोंक भी होती है और बाद में सीता उसे आग दे देती है।
यहाँ लोक कवि कहता है-
गीत गाथा नं. 1
‘‘आगे-आगे ओ मुनि विश्वामित्र चाले, पाछे लौछमणो रामो।
लौछमणो बोलो ऐ भाइया, रामा केथी हो आग्नि आणु।। । 1।
जानकापुरी ओ जानका ऋषि तेथी हो आग्नि आणो।
ऋषिए ऋषटे आगने आणे, जैतिए दोड़ो रोमाला।। । 2।
ताऊँ बोलुओ ऋषिओ मूर्खा, रोमालो न मूर्खा गंवाए।
ताईं बोलुओ ऋषिए ऋषटे अगने बचना दी मेरे।। ।3।
ऋषि रे ऋषटे अगने आणे, आणेरे हाथड़ू आगे।
ताईं बोलुओ ऋशिया जोगिया कुण जी धुरा को आओ? ।4।
जोधया पुरी रो राजा जो होंदा बीजुए बोण दे आओ।
ताईं बोलुआ साधुआ जोगिआ काईं होंदो तेरो नावां? ।5।
जोधयापुरी रौ राजा जे होंदा, ऋषटे लौखण मेरडो नावां।
कौसते राजा रे बेटे हौंदे ऋषटे का हौंदो तेरड़ो नावां। ।6।
जानका ऋषि री बेटड़ी हौंदे ऋषिया, सीता ला मेरडो नावां।
ठारो तां नींवजुए ठाकरे ऋषिया नींवजुए बाऊशो राजा। ।7।
ताईं बोलुओ जौतिया लौखणा मेरे सुअम्बरे आए।
जानकापुरी ओ सिते सुअम्बरा चौईं धुरा के निंयुंदा दिता। ।8।
सीता बोलाए बापुआ जी मेरा बीजू बौणे नींउंदा देणा।
बीजूए बौण मुनि विश्वामित्र, तेउ साथी बालका दूई।
बीजूए बौण मुनि विश्वामित्र, तेउ साथी लछमणा-रामो। ।9।
ताईं बोलुआ लौछमणो भइया, केथो होंदो अग्नि आणे?
जानकापुरिओ जानका ऋषि तेथो होंदो अग्नि आणे।। ।10।
चालो-चालो ओ लौछमणा रामा, सीता रे सुअम्बरे जाणा। ।11।
पौला के मुरत ए विश्वा लोए मित्रे बागे पौड़े ताम्बू तागोटे।
दूजाड़े मुरता ए बाउशा रे राजा पौड़े गोए ताम्बू तगोटे,
तीजे मुरता ठारो आजे ठाकरे पौड़े गोए ताम्बू तगोटे।। ।12।
चालो-चालो ऐ साकीओ सेलियो बागे हामें घूमदे जान्दे।
बागे बेशा मुनि विश्वामित्रा तेस साथे सादटू दूई,
सादटू ना बोलो ओ साकियो सेलियो रामा गोए लौछमणा आए।। 13।
ताईं बोलू ओ मुनि विश्वामित्रा ऋषि आओ आँगणे बेशा।
लोगू बोलाए जानका ऋषि कुणी गोए सादटे बेशे?
सादटे न बोलणे ओ भाइयो लोगुओ, राम गोए लौछुमण आए। ।14।
ओ कुणिए ताणुए ओ ऋषि रे धौनुषा कौस दैवा सीता रो दाणो
ओ कुणिये राजोओ घौरा डेवे, कुणी ताणो धौनुष बाणो। ।15।
होरिए राजेयो घोरे डेवो, रामे तोड़ो धौनुष बाणो।
एकी टुकड़ा ए पुरी डेवा इन्द्रे, दूजा डेवा शिव जी री पूरी,
चीजा टुकड़ा सीता पौड़ो कुण्डा दी, सितो के दिते बौरानी पाए। ।16।
होर राजे सौबे डेवो घौरो के रामो मिलो सीता रो दाणो।
धन जै धन जै ओ जोसरथ पुत्रा जनकपुरी मित्रो लाए।। ।17।
;आगे-आगे ऋषि विश्वामित्र चल रहे हैं, उनके पीछे राम और लक्ष्मण हैं। जंगल में ऋषि विश्वामित्र उनसे आग लाने को कहते हैं तो लक्ष्मण राम से पूछते हैं कि आग कहाँ से लानी है। (1) राम ने कहा, जनक की पुत्री सीता से आग माँग लाओ। ऋषि पुत्री जब आग लेकर आई तो यति ने तह किया हुआ रुमाल निकालकर खोला। (2), ‘‘अरे! मूर्ख ऋषि मैं तुमसे कहती हूँ अपना रुमाल क्यों व्यर्थ गंवा रहे हो’’। लक्ष्मण ने उत्तर दिया, ‘‘अरे ऋषि पुत्री! मैं भी तुम्हें सच कह रहा हूँ कि अग्नि मेरे वश में है। (3), तब ऋषिपुत्री अपने हाथ में कुछ अंगारे उठा लाई। अब वे परस्पर परिचय करने लगते हैं। सीता पूछ रही है, ‘‘हे ऋषिपुत्र! तुम किस दिशा से आए हो?’’ (4) इस पर लक्ष्मण बताते हैं, ‘‘मैं अयोध्यापुरी के राजा का पुत्र हूँ और बीजू वन से आया हूँ।’’ सीता पूछ रही है, तुम्हारा नाम क्या है। (5) ‘‘मैं अयोध्या के राजा दशरथ का पुत्र हूँ, लक्ष्मण मेरा नाम है। अब ऐसे लक्ष्मण के पूछने पर सीता भी अपना परिचय देती है-
‘‘तुम किस राजा की पुत्री हो और नाम क्या है तुम्हारा। (6),
‘‘मेरे पिता की अट्ठारह ठकुराइयाँ हैं और उन्नीसवीं के वे स्वयं शासक हैं। (7) ‘‘मैं तुमसे कह रही हूँ, लक्ष्मण! मेरे स्वयंवर में अवश्यश्आना। चारों दिशाओं के राजाओं को सूचना दी जा चुकी है। (8), तब सीता पिता से कहती है,
‘‘हे पिता! बीजू बन को भी निमन्त्रण भेजना है। बीजू बन में ऋषि विश्वामित्र के साथ दो राजकुमार हैं, जिनका नाम राम और लक्ष्मण है। (9)। राम पूछते हैं, ‘‘हे लक्ष्मण भाई, तुम आग कहाँ से लाए हो?’’ तो लक्ष्मण ने उत्तर दिया, ‘‘जनकपुरी से ही लाया हूँ। (10)। अब विश्वामित्र कहते हैं, हे राम-लक्ष्मण! चलो उठो। हमको सीता के स्वयम्बर का निमन्त्रण आया है। (11) जनकपुरी के बाग में जब वे पहुँचे तो सबसे पहले मुहूर्त में विश्वामित्र का तम्बू लगाया गया, दूसरे मुहूर्त में अन्य राजाओं और तीसरे मुहूर्त में ठकुराइयों के तम्बू गाड़े गये। (12)।
अब सीता सखियों से कहती हैं कि चलो सखियो सहेलियो हम बाग में घूमने चलते हैं। सखियों ने कहा कि सुना है विश्वामित्र के साथ दो युवा साधू भी हैं तो सीता कहती हैं, ‘‘ना ना, उन्हें साधू मत कहो, वे तो राम और लक्ष्मण हैं। (13)
ऋषि विश्वामित्र राजा जनक के प्रांगण में बैठते हैं, जहाँ स्वयम्बर होना है तो लोगों ने पूछा कि ये साधू यहाँ कैसे बैठ गए? इस पर उत्तर मिला कि इन्हें साधू मत कहो, ये तो राम और लक्ष्मण हैं राजा दशरथ के पुत्र। (14)
अब पूछा जा रहा है कि धनुष किस ने तोड़ा और सीता का दान किस को मिलेगा, कौन राजा निराश होकर घर को लौटेंगे? (16) उत्तर मिलता है कि धनुष तो राम ने तोड़ ही दिया, शेष सभी राजा अपने घरों को लौट जाएँ। धन्य हैं ये दशरथ के पुत्र, जिन्होंने जनकपुरी और अयोध्या के मध्य मित्रता की नींव रखी। (17)
यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि वे दोनों एक दूसरे को ऋषि पुत्र और ऋषि पुत्री कहते हैं। यहाँ सीता अपने पिता की उन्नीस ठकुराइयाँ (उप रियासतें) बताती है। जिनमें अठारह जनक के आश्रित हैं और उन्नीसवीं पर स्वयं जनक का आधिपत्य है। सीता लक्ष्मण को स्वयंवर में आने का निमंत्रण देती है। लक्ष्मण आग लेकर लौट जाते हैं तो सीता अपने पिता से दोनों भाइयों को निमन्त्रण भेजने की बात कहती है। राम के जनकपुरी में तम्बुओं में ठहरने का विवरण शिमला जनपद की रामगाथा में मिलता है। राम ने धनुष तोड़ा तो उसके तीन टुकड़े हुए। एक इन्द्रपुरी में गिरा, दूसरा शिवपुरी और तीसरा टुकड़ा स्वयंवर के लिए बने हवनकुण्ड में जा पड़ा। इस प्रकार सीता-राम की बरनी (बरेच्छा-वचन बद्धता) पड़ गई।
आगे के प्रसंग में हमें जानने को मिलता है कि सीतहरण के पश्चात वन में भटकते राम-लक्ष्मण को देखकर सुग्रीव कि मन में संदेह उपजता है। बुशहरी रामायण के अनुसार राम, ‘ढांक’ अथात् तीखी चट्टान पर एक वानर को रोते देखकर उससे रोने का कारण पूछते हैं वानर कहता है कि जिस कारण आप भटक रहे हैं वही कारण मेरे साथ है। आप मेरी मदद करें तो मैं आप की मदद करूँगा।
‘‘रुआ! ढोंके बान्दरू रुआ।1।
रामे मारणो लाओ, दीरो-दीरो हो भाई। 2।
लछमण ठेकांदे लागे, हरि ता पूछांदे लागे। 3।
तेरो क्या हुओ फाया?4।
मेरो सोहियो फाया, सीता लंके नी हारा।5।
गुणिए बान्दरी नी हारा।6।
1 (रो रहा है ढांक ;तीखी चट्टानद्ध पर बन्दर रो रहा है)
2 (राम मारने लगे बन्दर को, ठहरो-ठहरो हे भाई)
3 (लक्ष्मण रोकने लगे, हरि पूछने लगे)
4 (अरे तुम्हें क्या संकट आया)
5 (मेरा संकट वही, जो सीता को लंकापति द्वारा ले जाने से तुम पर आ गया है।)
6 (मेरी बंदरिया लंगूर ले गया)।
यह गीत बहुत लम्बा है। इसमें सीता को राम से आयु में बहुत छोटा बताया गया है। इस गीत में राजा दशरथ के परिचय से लेकर सीता वनवास तक की घटनाओं का सुन्दर वर्णन किया गया है। विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि कथा के अनुसार दशरथ अपने पुत्र राम के लिए कन्या की खोज में जनकपुरी जाते हैं परन्तु जनक अति दुःखी होकर बताते हैं कि वह निःसंतान हैं तब दशरथ उन्हें गंगा स्नान और अष्टधाम यात्रा का परामर्श देते हैं। वहाँ उनकी भेंट कोयले कुंवारे नाम के एक ऋषि से होती है जो उन्हें धान के खेत में हल चलाने की सलाह देते हैं। इस प्रकार सीता राम से बहुत छोटी हुई। क्योंकि सीता तो जनक को इसके बाद हल चलाते हुए ही मिली थी। अस्तु
हनुमान क्योंकि सुग्रीव के मंत्री हैं इसलिए सुग्रीव हर काम के लिए हनुमान को ही राम के पास भेजता है और वे अनायास ही राम के प्रिय बन जाते हैं। महासवी रामकथा के अनुसार सीता की खोज में गए हनुमान जी को रावण द्वारा नियत की गई साठ पनिहारियाँ मिलती हैं जो बावड़ी से निरंतर जल भर-भरकर ले जा रही हैं। हनुमान के पूछने पर वे कहती हैं कि राम की पत्नी सीता के अंदर इतनी प्रचण्ड अग्नि है कि हम उसे निरंतर नहलाती रहती हैं यदि हम ऐसा न करें तो उसकी आग पल भर में लंका को जला देगी। फिर पनिहारियाँ हनुमान से उसका परिचय पूछती हैं,
‘‘किधरा बान्दरुआ आओ गो, किधरा बान्दरुआ आओ।1।’’
‘‘रामे मुन्दड़िआ ल्याओ, गै रामे मुन्दड़िआ ल्याओ।2।’’
‘‘एकी छोलको औरू, एकी छौलको पौरू।3।
पाछी सीता माते मुँहा आगे घोल़टू मुन्धैरू।4।
भावार्थ 1(.अरे वानर तुम कहाँ से आए हो? 2.प्रत्युत्तर में हनुमान कहते हैं, ‘मैं राम की मुद्रिका लेकर आया हूँ। 3.तुम एक बार पानी को इस ओर छलकाना, एक बार उस ओर। 4.बचा पानी पूरा घड़ा सीता माता के मुख के सामने उलट देना।द्धद्ध ;यहाँ उल्लेखनीय है कि स्त्री के लिए ‘गै’ शब्द और पुरुष के लिए ‘गो’ शब्द का प्रयोग अरी और अरे के अर्थ में किया जाता है।)
हनुमान उन पनिहारिनो को इस बात के लिए पटा लेते हैं कि वे उनकी उस मुद्रिका सीता जी तक ले जाएँ पर कैसे? क्योंकि किसी को संदेह भी हो सकता है। इसपर वह मुद्रिका एक जल पात्र में डाल देते हैं और उनसे कहते हैं कि वह पानी को छलका-छलका कर सीता जी पर इस प्रकार डालें जिससे वह मुद्रिका सीता माता के ठीक सामने गिरे और किसी को संदेह भी न हो।
अब हम जरा हिमाचल के जिला कांगड़ा की ओर चलते हैं तो पायेंगे कि प्रारम्भ की रामकथा हमें एकदम गोस्वामी तुलसीदास के मानस के साथ ही कदमताल करती मिलेगी, फिर भी रामकथा के जनप्रिय होने का मुख्य कारण उसकी गेयता ही जान पड़ता है। यहाँ भी गेयता की रससिद्धि हमें दिखाई देती है, शब्दों का आपसी तालमेल इन लोकगीतों में अभिनव रस की सृष्टि करता हुआ दिखाई देता है। लोक द्वारा लोक के लिए रचित गीतों की विशेषता यह है कि इन्हें पूरा समाज अपनाता है। छंद, लय के व्याकरण में समाहित होने की बजाय यह गीत सीधे दिल में उतरते हैं और बस जाते हैं। ढोलक, छैनी के साथ जब इसे मधुर कंठ से गाया जाता है तो राम रस की जो गंगा बहती है उसका आनन्द बस गूंगे का गुड़ ही तो है, जो वर्णन से बाहर है।
कांगड़ा की जन रामायण के कुछ अंश दृष्टव्य हैं, यथा-
राम जन-जन के हृदय में इस प्रकार बसे हैं कि लोक के हर शब्द में राम का उच्चारण होता है। हिमाचल प्रदेश के प्रबुद्ध लेखक सुदर्शन वशिष्ठ के अनुसार कांगड़ा जनपद में राम विवाह की छवि को किस प्रकार देखा जा रहा हैः-
‘‘देखो-देखो श्रीराम जी दा रूप
जनकपुरी मोह लई है।
महल झरोखे बैठी सीता,
राम कने लछमण आये रामा।
खोल कंचन बाँह पर धरयो,
बायें हत्थे धनुष उठायो रामा
जनकपुरी मोह लई है।’’
भावार्थ : श्रीराम जी का रूप तो देखो। उन्होंने सारी जनकपुरी को मोहित कर लिया है। महल के झरोखे में बैठी सीता राम एवं लक्ष्मण को निहार रही है। उन्होंने बाएं हाथ में धनुष उठाया है और जनकपुरी मोह ली है।
एक अन्य गीत के अनुसार
‘‘राज हुन्दे होय बणबासा, रामा हो मेरेया जोगणुआ।
तेरे बिना आसां किंयां रेणा, रामा हो मेरेया जोगणुआ।
तेरे बिना जुधेया (अयोध्या) निमाणी, रामा हो मेरेया जोगणुआ।
छम-छम रोये माता तेरी, रामा हो मेरेया जोगणुआ।।’’
(मेरे राम बाल योगी (जोगणुआ-बालक योगी) हो गये हैं। यह क्या हुआ कि उन्हें तो राज मिलने की घोषणा थी, बनवास कैसे हो गया? हे राम! अब तुम्हारे बिना हम कैसे रहेंगे? छमछम रोती तुम्हारी माता कह रही है कि तुम्हारे बिना तो अयोध्या नगरी ही सूनी हो जाएगी। हे मेरे बालयोगी, हम तुम्हारे बिना कैसे रहेंगे??
जब हिमाचली गायक तान छेड़ दे और डूब कर गाये तो आप की आँखों से अश्रुधारा न निकले यह हो ही नहीं सकता। रामकथा यूँ तो विश्वव्यापी है परन्तु हिमाचल के दुर्गम क्षेत्रों में आप इसका अलग ही रूप देखेंगे। मैंने इस लेख में सम्पूर्ण हिमाचल में रामकथा के आँचलिक संदर्भों को लेने का मात्र प्रयास भर किया है। पूर्व में कहा गया है कि उपरोक्त पंक्तियाँ हिमाचल के कांगड़ा जनपद से ली गई हैं।
पत्थर गिट्टा जोड़ी बो रामे कुटिया बणाई
चनणे दी लकड़ी लगाई बो रामा ऐ।1।
कुटिए दें कंढैं कंढैं रामे बाग लुआए
फुल्लां दे लगाए बगीचे बो रामा ऐ।2।
राम त लच्छमण चौपड़ बाजी खेलदे
सीता राणी कढदी कसीदा मेरे रामा ए।3।
चौपड़ी बाजी खेलदेंआं जो लगिया प्यासा
कुण बो पियाए ठंडा नीर मेरे रामा ऐ। 4।
(1) कंकर-पत्थर इकट्ठे कर के राम ने कुटिया बनाई, उसमें चन्दन की लकड़ी लगाई है।
(2) कुटिया के किनारे-किनारे राम ने बाग लगाया और बहुत सुन्दर फुलवारी भी सजी है। (3) कुटिया में राम और लक्ष्मण चौपड़ खेल रहे हैं और सीता वहाँ कसीदा काढ़ रही है। (4) चौपड़ खेलते राम को प्यास लगती है तो अब उन्हें पानी कौन पिलाये?
एक अन्य लोकगीत में प्रातः कुसमय नींद खुलने पर नायिका देखती है कि सीता राम तो उसके आँगन में खड़े हैं और वह सोई रही।
अंगणे मेरे सीता राम खड़े
मैं तां रहीयां पापण सोई ए
इयां बुझदी उठी पैहरा पांदी चरणा पींदी धोई-धोई ऐ
हिमाचल की रामकथा के राम तुलसी के विश्वव्यापी परमेश्वर नहीं हैं, साधारण और जन-जन के प्रिय राजपुत्र हैं। राम और लक्ष्मण सहोदर (सगे) भाई हैं, सीता रानी को ब्याह कर लाया गया है। राम-लक्ष्मण बनवास को चले और सीता उनके संग चली है। यह कथन है हिमाचली राम कथा के लोक गायक का-
हिमालय के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में रामकथा का प्रचलन कब-कैसे हुआ यह तो विचारणीय और शोध का विषय हो सकता है परन्तु इस वास्तविकता से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि हिमाचल के उन क्षेत्रों में भी रामगाथा (ऐसी कथा जिसे गाकर सुनाया जाए) क्षेत्रीय बोलियों में गाई जाती है जहाँ आज की तथाकथित सभ्यता के चरण पहुँचे अधिक समय नहीं हुआ, परन्तु यह भी अकाट्य सत्य है कि हमारे पुराणों और ग्रन्थों की रचना भी इन्हीं पर्वतीय उपत्यकाओं में हुई थी। इस पर भी लोक रामायण में पहाड़ी जनमानस ने राम को अपने बीच, अपनी ही तरह का प्राणी देखा-समझा और उसी प्रकार के जीवन की कल्पना की जिस प्रकार का जीवन उनका स्वयं का रहा। हिमाचली देव संस्कृति में आज भी देवता अपने गूर के माध्यम से लोगों से बोलते-बतियाते हैं। उनकी समस्याओं को हल करते हैं, उनका न्याय करते हैं। चम्बा के लोकगीतों में शिव पर्वत-पर्वत दौड़ते-भागते हैं और शैलपुत्री पार्वती उन्हें घाटी-गह्वरों में खोजती फिरती है। इसी प्रकार उनके राम-सीता भी सामान्य पति-पत्नी की भाँति आपस में लड़ते-झगड़ते हैं, रूठते-मनाते हैं। इन ग्राम्य गाथाओं में लोकमानस ने अपने आस-पास के भलीभाँति जाने-पहचाने आचार-व्यवहार तथा वातावरण का इतना सुन्दर और मनोहारी समावेश किया है कि भगवान राम अपने बीच के, अपने ही सगे लगते हैं। जिनका यहाँ के मिट्टी-पानी से गहरा रिश्ता है, अयोध्या से नहीं। इतनी सारी विभिन्नताओं के होने पर भी रामकथा के मूलरूप में लोकतत्वों का संयोजन इतने रोचक एवं अनूठे ढंग से किया गया है कि वह कहीं से भी खण्डित नहीं होती। इन लोक गाथाओं में मूल रामकथा की मौलिक धरा दूध और पानी अथवा चंदन और सुगन्ध की भान्ति घुल-मिल गई है और एक सुन्दर, अनुपम और अद्भुत् समन्वय स्थापित हुआ है।
भारत का यह पर्वतीय भू-भाग भौगोलिक दृष्टि से नदियों और घाटियों में विभाजित है। सभ्यता के चरण जमने से पूर्व घाटी के एक क्षेत्र का दूसरे क्षेत्रों से सम्पर्क न के बराबर था, इसी कारण यहाँ रामकथा के लोकप्रसंग भिन्न-भिन्न जनपदों में भिन्न-भिन्न रूपों मे प्रचलित हैं। हिमाचल प्रदेश की कला-संस्कृति एवं भाषा अकादमी ने इन लोकप्रसंगों का संग्रह करके एक पुस्तक ‘पहाड़ी लोक रामायण’ के नाम से ई. सन् 1974 में प्रकाशित की थी, परन्तु इसमें प्रदेश के भिन्न-भिन्न जनपदों में प्रचलित बोलियों में गाई जाने वाली रामगाथाएँ उन्हीं बोलियों में दी गई हैं। इसके पश्चात् वर्ष 2003 में अकादमी ने फिर प्रयास करके एक और प्रशंसनीय कार्य इन प्रसंगों को हिन्दी में अपनी त्रैमासिक पत्रिका ‘सोमसी’ का रामकथा विशेषांक निकाल कर किया। हिमाचल के विद्वान लेखक श्री विद्याचंद ठाकुर के संपादन में सोमसी के इस विशेषांक में हिमाचल के विभिन्न ग्राम्य अंचलों में बिखरे इन लोक प्रसंगों को किसी हद तक अवश्य ही समेटा गया है।
लाहुल-स्पिति हालाँकि हिमाचल का दूरस्थ भू-खण्ड है फिर भी यहाँ बड़े-बूढ़ों के मुख से रामकथा का रसास्वादन किया ही जाता है। यहाँ प्रसंगवश एक बात कहना आवश्यक है कि हिमाचल के प्रत्येक भाग में कथा-कहानियों को गाथा के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। कभी सभ्य संसार की सुख-सुविधओं से दूर सर्दी की लम्बी रातों में घरों में आग के समीप बैठ कर इन गाथओं को गाया और सुना जाता था, (किन्तु अब यह प्रथा धीरे-धीरे समाप्ति की ओर बढ़ रही है।) लाहुल के लोकगायकों ने भी इसी परम्परा का निर्वाह करते हुए रामकथा के प्रसंगों पर ‘घुरे’ (लोकगीतों) की रचना की थी। यहाँ एक बात उल्लेखनीय है कि इन ठण्डे अंचलों में शेष रामकथा तो रामायण के मूल रूप में ही गाई जाती है परन्तु सीताहरण के प्रसंगों के संदर्भ में हर स्थान पर कुछ न कुछ भिन्नता पाई जाती है। यहाँ हम संदर्भ के लिए लाहुली घुरे को लेते हैं।
यहाँ भी राम के बनवास तक लगभग हर क्षेत्र की भाँति कथा सामान्य चलती है, परन्तु इसके बाद के कथा-प्रसंग की भिन्नता देखिए लोकगायक का कथन है, कि राम ने आकस्मिक आपत्ति को दृष्टि में रखते हुए आदमपुरी अर्थात् अंतरिक्ष में महल बनाया और वहाँ नौलखा बाग भी बनाया जहाँ एक अमृतकुण्ड भी था। वह आकस्मिक आपत्तियाँ कैसी थीं, यह भी आपको देखने को मिल जाएगा।
‘‘ए! रामा ए लछुमाणा सोदुरे भाये।
ए! राणी ए सीता ए बरुंए मांगाये।1।
ए! रामा ए लछुमाणा बणूबासा भूये।
ए! राणी ए सीता ना सांगे त्यारी।2।
ए! आदम्मापूरी ए नौ लाखा बागे।
ए! आदम्मापूरी ए बेढ़ा बणाये।3।
ए! बेढ़े ना आगे नौ लाखा बागा।
ए! बेढ़े ना आगे ए अमूरीता कुण्डा।4।
ए! रामा ए सीता पासा खेलांदे।
ए! रामे पासे नीमूला (उल्टे) बैठी-
सीता री पासे सूमूला (सीधे) बैठी।5।
ए! सोने शींगा हरानी बागा उजाड़े।
ए! समूला बूटा नीमूला कीती-
नीमूला बूटा सूमूला कीती।6।
ए! फेटो-फेटो रामा तेण्ढुणे बाणा।
सोना शींगा हरानी बागा ऊजाड़े।7।
ए! फेटो-फेटो रामा तेण्ढुणे बाणा।
सोना शींगा हरानी बागा ऊजाड़े।8।
ए! दूधे री कटोरू भरी ने छाड़ी।
ए पीपुड़े री पतूरा हारा बी छाड़ी
ए घिउऐ री संजोटी भाकी ना छाड़ी।9।
ए! सोना शींगा हरानी पाछमा मुलूके।
ए! सोना शींगा हरानी दाखाणा मुलूके।10।
ए! सोना शींगा हरानी पुरुबल्ला मुलूके।
ए! सोना शींगा हरानी ऊतूरा मुलूके।11।
अर्थात राम और लक्ष्मण सहोदर हैं (सोदुरे भाई), सीता को ब्याह कर लाया गया है। (1), राम और लक्ष्मण को बनवास हुआ तो सीता भी साथ चल दी। (2), राम ने आदमपुरी (अंतरिक्ष) में महल बनाया और उसमें नौलख बाग भी लगाया (3), महल के सामने नौलक्खा बाग भी था और सामने अमृतकुण्ड भी था।(4), राम और सीता चौसर खेलने बैठे। राम के पासे उल्टे पड़ने लगे और सीता के सही।(5),
राम हारते जा रहे थे जिससे सीता का मन खेल से उचट गया और तभी सीता की दृष्टि बाग पर पड़ी जहाँ सोने के सींगों वाला हिरण उनका बाग उजाड़ रहा था।(6)। हे राम तुम्हारे तीर और धनुष बेकार हैं। सुनहरी सींग वाले हिरण ने मेरा बाग उजाड़ दिया।(7/8)। यहाँ हिरण को सुनहरे सींग वाला कहा गया है़ सोने का नहीं। ,
राम ने दूध की कटोरी भर कर रख दी और पीपल का एक हरा पत्ता रख दिया। इसके साथ ही एक घी का दीपक जला दिया।(8), सोने के सींग वाला हिरण पहले पश्चिमको भागा, वह दक्षिण को भागा, फिर वह पूरब को भागा और फिर उत्तर को। (10/11)
कथा के अनुसार सीता ने राम का ध्यान हिरण की और खींचा तो राम ने हिरन को भगाने के लिए तीर चलाए। तीर लक्ष्य चूक गए तो सीता ने अप्रसन्नता का प्रदर्शन करते हुए राम को ताना दिया। ‘कि न तो तुम्हारे पासे ठीक से पड़े और न अब तीर निशाने पर लग रहा है। तुम्हारा ध्यान कहाँ रहता है?’
अब राम उस हिरण के पीछे दौड़े लेकिन थोड़ी ही दूर जाकर लौट आए। भीतर जाकर उन्होंने एक कटोरे में दूध भरा, घी का एक दीपक जलाया और पीपल का एक हरा पत्ता लिया। अब इन सब को एक ही स्थान पर रख कर लक्ष्मण से कहा कि ‘‘यदि कटोरे का दूध खून में बदल जाए, पीपल का पत्ता पूरी तरह सूख जाए और दिया बुझ जाए तो तुम मेरी खोज में निकलना अन्यथा सीता की रक्षा करना।’’ इतना कह कर राम फिर हिरण के पीछे चल दिए।
कूदता-फांदता वह मायावी हिरण कभी पूरब तो कभी पश्चिम दिशा की ओर भागता है, फिर उत्तर और दूसरे ही पल दक्षिण दिशा में भागकर राम को दौड़ाता रहा।
अंत में राम ने धनुष पर चार तीर एक साथ चढ़ाए और उन्हें चारों दिशाओं में छोड़ दिया इस प्रकार वह मायावी हिरण वृन्दावन में मारा गया। लेकिन जब राम सींग निकालने के लिए उसकी खाल चीरने लगे तो वह एक तरफ से चीरते और खाल दूसरी तरफ से जुड़ जाती। इसी प्रयास में उनकी अंगुली की त्वचा थोड़ी कट जाने से अंगुली पर एक बूंद खून की उभर आई। राम सोच रहे थे कि इसकी खाल कैसे उतरे, तभी एक काग वहाँ आया और उसने राम से कहा कि वह उन्हें खाल उतारने की युक्ति तो बताएगा परन्तु बदले में उसे इस हिरण का माँस चाहिए। राम ने उसकी शर्त मान ली और उसे काग पंडित कह कर बुलाया। तब काग ने कहा कि ‘वे जहाँ से चीरें वहाँ लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े फंसा दें।’ जैसा काग ने कहा, वैसा ही करने से हिरण की खाल दोबारा आपस में नहीं जुड़ी और राम ने उसके सींग और खाल उतार लिए। मांस वचन के अनुसार कौव्वे के लिए छोड़ दिया।
जिस समय राम की अंगुली पर रक्त की बूंद उभरी उसी समय सीता ने दूध के कटोरे में सुई की नोक के बराबर रक्त देखा और इसी अनुपात में पीपल के पत्ते पर सूखने के निशान भी देखे। यहाँ गाथाकार मूल रामायण के अनुसार चलते हुए सीता और लक्ष्मण में विवाद कराता है। लक्ष्मण ‘राम’ की खोज में जाने से पूर्व घर में जलती आग के चौकोर कुण्ड के चारों ओर अपने बाण से सात रेखाएँ खींचते हैं और सात तीर वहाँ खड़े करते हैं जिससे महल के चारों ओर सात समुन्दर और कंटकीले अलंघ्य जंगल खड़े हो जाते हैं।
लक्ष्मण के हटते ही रावण ने उन बाधाओं को देखा तो सोच में पड़ गया। रावण अपने लक्ष्य में व्यवधान देखकर सीता को उन रेखाओं को मिटाने और तीरों को निकालने को कहता है जिसे वह मान लेती है। उसके ऐसा करने से सारे जंगल और समुद्र विलुप्त हो जाते हैं। अब सीता रावण से कहती है कि उसके पति और देवर घर पर नहीं हैं अन्यथा उसे हाथी-घोड़े दान में दे देते। इस पर रावण ने उससे वहाँ पर खिला हुआ फूल मांगा जिसे वह तोड़ लाई तो रावण ने उसे अपनी जटाओं में लगा देने का अनुरोध किया। सीता के हाथ बढ़ाते ही उसने अपना कद बढ़ा लिया और सीता को अपने घुटने पर पाँव रखकर फूल लगाने को कहा और उकड़ूं बैठ गया। सीता ने जैसे ही उसके घुटने पर पाँव रखा कि उसने झट उसे उठा कर कांधे पर डाल लिया और चलता बना। सीता चिल्लाती रही। मार्ग में रावण की भेंट गरुड़ से होती है। (यहाँ गाथाकार ने जटायु को गरुड़ कहा है।) वह रावण से भिड़ता है और उसका मांस नोच-नोचकर खाने लगता है। रावण जब उसे हरा नहीं पाता तो अपनी जंघा चीर कर रक्त पत्थरों के ढेर पर गिराता है। गरुड़ ने आवेश में उन्हें रावण के मांस के लोथड़े समझकर निगल लिया। पत्थर पेट में जाते ही वह उड़ने योग्य नहीं रहा और पेट के बल भूमि पर आ गिरा।
गाथाकार कहता है कि राम इस अनिष्ट को जानते थे इसलिए सीता का ध्यान बटाने के लिए ही उन्होंने पासे खेले और जान-बूझ कर हारते रहे। परन्तु सीता ने फिर भी उस हिरण को देख ही लिया और राम को उसका शिकार करने के लिए विवश किया। अंतरिक्ष में घर बनाने के पीछे भी राम का यही उद्देश्य था। उन्होंने सोचा था
‘‘नागा लोका बणेला नागा-नागी लागू।
सूरजा लोके बणेला सुरजा चांदुरा लागू।
मनुषा जूनी बणेला काला लोके लागू।
आदम्मा पूरी बेढ़ा बाणाया।।’’
कि नाग-नर, सुर, गंधर्व आदि किसी भी लोक में महल बनाने से वह उनके कुप्रभाव की चपेट में अवश्य ही आएंगे। इसीलिए उन्होंने अंतरिक्ष में महल बनाया परन्तु होनी तो होकर ही रही।
एक अन्य प्रसंग के अनुसार राम के सागर पार करने के बारे में विचार करने पर हनुमान ने कहा कि ‘‘मैं अपनी पूंछ सागर पर फैला देता हूँ आप सेना सहित पार हो जाइए।’’ अपने तपोबल से हनुमान ने सागर पर अपनी पूँछ का सेतु बना दिया। राम ने वानर स्वभाव की परीक्षा लेने के लिए एक सेब चुपके से हनुमान की ओर बहा दिया। सेब के निकट पहुँचने पर वह तुरन्त पानी में कूद गया और सेब को उठा लाया। इस पर राम ने उसे अपनी भूल का आभास कराते हुए कहा कि ‘‘यदि इस समय सेना पार जा रही होती तो क्या होता?’’ हनुमान ने क्षमा मांगते हुए पुनः सेतु बनाया और गम्भीरता से सेना को पार कराया। अर्थात यहाँ सेतु हनुमान की पूँछ का बना था।
हिमाचल के सीमावर्ती जिला किन्नौर में राम को लोक देवता के रूप में नहीं देखा जाता बल्कि अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र के रूप में जाना जाता है। इस जनपद में कहीं-कहीं भरत को राम का ज्येष्ठ भ्राता कहा गया है। शत्रुघ्न के स्थान पर शरट नाम का प्रयोग मिलता है। राजा दशरथ का ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्य न देने का कारण उसका अयोग्य होना बताया गया है। यहाँ मंथरा के लिए ‘फाफा कुटौन’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। इन के गीतों में रानी कैकेयी ने मंथरा की बात मानकर हालांकि अपनी बुद्धि को भ्रमित अवश्य किया है परन्तु उसने मंथरा को फटकार भी कम नहीं लगाई। इस प्रकार रानी के चरित्र को बहुत मलिन करके नहीं दिखाया गया।
‘‘सोतिंग ताईंसा ले सोतिंग ताईंसा (संतान के लिए हाँ संतान के लिए)
महाराज़ा दोशोरोथा ले महाराज़ा दोशेरोथ, (महाराजा दशरथ ने हाँ महाराजा दशरथ ने)
साता रिखीयु ओमपी याले साता रिखीयु ओमी, (सप्त रिषियों के समक्ष हाँ सप्त रिषियों के समक्ष)
शुम बोशिंग तोशिसा ले शुम बोशिंग तोशिस (तीन वर्ष बैठकर हाँ तीन वर्ष बैठकर)
अश्वमे याग लानो याले अश्वमे याग लानो (अश्वमेध यज्ञ किया हाँ अश्वमेध यज्ञ किया)
शुमी रानी गुरबिना ले, शुमी रानी गुरबिन।। (सभी रानियाँ गर्भवती हुईं हाँ सभी रानियाँ गर्भवती हुईं)
इस क्षेत्र के लोकगीतों में राजा दशरथ की पुत्र प्राप्ति का कारण कहीं दैवी शक्तियों को तो कहीं सप्तऋषियों की उपस्थिति में दशरथ द्वारा तीन पुत्रोष्ठि यज्ञ (जिन्हे यहाँ अश्वमेध यज्ञ भी कहा गया है) का कराया जाना भी मुख्य कारण बताया गया है। किन्नौर की अपनी दो बोलियाँ हैं जिनमें से एक का नाम चमरस्कंद है और दूसरी का हमस्कंद। हमस्कंद में रामगाथा के साथ मालानृत्य का आयोजन किया जाता है परन्तु यह ध्यान रखा जाता है कि कोई भी नर्तक कथा पूरी हुए बिना नृत्य माला से बाहर न जाए। इस नियम का पालन कड़ाई से किया जाता है क्योंकि इस कथा को देवपूजन का ही एक अंग माना गया है।
‘‘मनर्सि रघबोन युघस, रोनचिसी युघस (महिलाएं एवं पुरुष सुनते रहें)
रोनचिसी नीराच, बोगानु गीथ् (सुनते रहें भगवान का गीत)
किशो बोगानु गीथ्, फोइ बात् मानी (हमारे भगवान का गीत, व्यर्थ की बात नहीं है)।।
इस कार्यक्रम का आयोजन धूप-दीप जलाकर किया जाता है। इसे कुछ निश्चित लोग ही गैनी नामक वाद्ययन्त्र के साथ सर्दियों में विशेषकर माघ महीने में गाते हैं। इसके पीछे मान्यता है कि सर्दियों में सारे देवता पन्द्रह दिनों के लिए शिवजी के साथ पासे खेलने कैलाश पर चले जाते हैं जिससे भूत-प्रेतों को खुली छुट्टी मिल जाती है और वे मनचाहा उपद्रव कर सकते हैं। इस प्रकार के कुप्रभावों से बचने के लिए ही इस कथा का आयोजन किया जाता है।
ऊना जनपद में रामेश्वरम् की स्थापना के समय राम द्वारा रावण को पुरोहित बनाया जाना और मेघनाद वध के समय उसकी भुजा का सुलोचना के सामने गिरना कथा रूप में प्रचलित है। यहाँ पर एक और जनश्रुति प्रचलित है जिसके अनुसार रावण ऋषियों से कर वसूलता था। ऋषियों के कर देने में असमर्थ होने पर रावण ने इनसे कर रूप में इनका रक्त घड़ा भर लेकर एक अल्मारी में रख दिया। इस घड़े पर लिखा था ‘जो इसके अन्दर रखी वस्तु को हाथ लगाएगा वह भस्म हो जाएगा।’
एक दिन रानी मंदोदरी के मन में पति के प्रति आसक्ति उत्पन्न हुई वह रावण के पास गई तो रावण तपस्या में रत था। उसने पत्नी की बात को सुना-अनसुना कर दिया। इस पर मंदोदरी के मन में ग्लानि हुई और उसने आत्महत्या के उद्देश्य से घड़े में रखे पदार्थ को पी लिया, परन्तु रानी इसे पीकर गर्भवती हो गई। जब रावण तपस्या करने के बाद वापस आ रहा था तो मंदोदरी ने उसे देख द्वार बंद कर लिया। रावण के दरवाजे पर दस्तक देने पर उसने कहा कि ‘‘तू मेरा पति नहीं हो सकता क्योंकि तेरी आवाज़ उसके जैसी नहीं है। वह जब दहाड़ता है तो स्त्रियों का गर्भपात हो जाता है।’’ इस बात को सुनकर रावण क्रोधित हो गया और जोर से दहाड़ उठा। मंदोदरी को प्रसव हो गया और उसने कन्या को जन्म दिया जिसे मंदोदरी ने तत्काल छुपा दिया। बाद में उसने कन्या को संदूक में रखकर फिंकवा दिया जिसे मंदोदरी के अनुचर राजा जनक की सीमा में धरती में दबा आए। इससे राजा जनक के राज्य में अनावृष्टि हो गई और उन्हें वहाँ ‘सीता’ में (हल चलाने पर हल द्वारा बनी रेखा) वह कन्या प्राप्त हुई। ज्ञातव्य हो कि हिमाचल के ऊपरी भागों में आज भी हल द्वारा बनी रेखा को ‘सीअ’ कहा जाता है।
इसी प्रकार की एक और लोककथा इस जनपद में प्रचलित है जिसके अनुसार एक बार राम आदि चारों भाई खेलने सरयू के किनारे गए। जब संध्या हुई तो तीन भाई घर लौटे पर राम नहीं लौटे। रानी कैकेयी राम को खोजने सरयू तट गई तो राम वहाँ उदास बैठे दिखाई दिए।
कारण पूछने पर राम ने कैकेयी से उनकी इच्छा पूरी करने का वचन मांगा। कैकेयी के हाँ कहने पर राम ने उसे कहा कि पिता जी जब भी मुझे युवराज बनाएंगे तो आप मेरे लिए वनवास मांग लेना। इस प्रकार यहाँ कैकेयी के चरित्र को कलंक रेखा से बिल्कुल बाहर निकाल लिया गया है।
एक कथा यह भी प्रचलित है कि राम जब सीता को खोजते लता-पत्रों से उसका पता पूछ रहे थे तो उन्होंने जीर्ण अवस्था में पड़ी दूर्वा से उसकी दुर्गति का कारण पूछा। दूर्वा ने कहा, ‘‘रावण सीता को लेकर जा रहा था तो मैंने उसका रास्ता रोकने की चेष्टा की पर रोक न सकी। इससे मेरे अंग-अंग टूट गए हैं।’’ राम ने प्रसन्न हो कर उसे सदा हरी-भरी रहने और पूजा में प्रयोग किए जाने का आशीर्वाद दिया।
बिलासपुर जनपद में भीलनी की कथा को कुछ इस प्रकार से कहा जाता है कि ‘एक बार बालक राम अपने भाइयों के साथ पतंग उड़ा रहे थे। राम की पतंग बहुत ऊँची उड़ी। उसे वापस खींचते हुए उसकी डोर टूट गई। राम मायूस हो गए। राजा दशरथ ने पतंग खोजने के लिए दूत भेजे पर पतंग नहीं मिली। उस समय हनुमान रिशिमुख (ऋष्यमूक) पर्वत पर तपस्या कर रहे थे। उन्हें अनुभव हुआ कि राम को उनकी आवश्यकता है। वह छलांगें लगाते अयोध्या पहुँच गए। सारी बात जानकर वे तत्काल ही वहाँ पहुँच गए जहाँ भीलनी अपनी कुटिया के बाहर बैठी ऊन कात रही थी। उसकी टोकरी में पतंग देखकर हनुमान ने उसे चोर कहा तो वह बोली कि ‘‘पतंग तो उसके पास आकर गिरी है, वह चोर कैसे हुई? अब तो पतंग तभी दूँगी जब पतंग वाला आवे।’’ विवश हनुमान राम के पास लौटे तो राम ने कहा कि उसे कहो, ‘‘वह प्रतीक्षा करे। अपने वनवास के दिनों में वह स्वयं ही उसके पास आ जाएंगे।’’
ज्ञातव्य हो कि हिमाचल के यह भूभाग कभी त्रिगर्त का भाग रहे हैं। त्रिगर्त को जालन्धर से शुरू माना जाता है अतः हिमाचल के अधिकतर भागों की बोलियों पर पंजाबी भाषा का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है, इसी संदर्भ में यहाँ पर रामकथा अथवा रामायण को रमैण ही कहा जाता है। त्रिगर्त के प्रमुख भाग कांगड़ा में गायकों के अनुसार राजा इन्द्र, राजा दशरथ को कहते हैं कि तुम्हें शृंगी ऋषि का श्राप है। उसे किसी भी प्रकार अन्न खिला देने पर तुम्हारे संतान हो सकती है। इन्द्र ने अपनी अप्सराओं की मदद से शृंगी ऋषि को अन्न खिलाया और फिर यज्ञ हुआ। यहाँ श्रवण की पत्नी को सास-ससुर के साथ द्रोह करते भी दिखाया गया है। ‘श्रवण की पत्नी को अन्धे बूढ़ों के साथ अभद्र व्यवहार करते कुल्लू जनपद की रमैण में भी दिखाया गया है और शिमला जनपद की रामगाथा में भी।
त्रिगर्त की लोक कथाओं में यह भी कहा जाता है कि श्रवण के माता-पिता ने दशरथ से कहा कि हमें ऐसी जगह जलाना जहाँ पहले किसी को न जलाया गया हो दशरथ को खोजने पर भी ऐसा स्थान नहीं मिला तो उसने उन्हें अपनी दायीं हथेली पर जलाया। कांगड़ा जनपद की रामगाथा के अनुसार दशरथ ने राम बनवास का आदेश भोजपत्र पर लिखवाकर मुख्य द्वार पर लटकाया था। अन्य प्रसंगों में भी मुख्य द्वार पर आदेश का होना बताया जाता है। कांगड़ा की रामकथा में भी सीता राम की नोक-झोंक दिखाई देती है।
‘‘सीता जो दित्ती रामा सुणौटी, (सुणौती- ताना)
कियां करी बैठी रैहंदी मेरे रामा ए।1।
चुकेया घड़ोलू सीता पाणिए जो चल्ली,
पैरा पाइयां झिलमिल मणियां वो मेरे रामा।2।
भरिया घड़ोलू सीता डंगी पर धरया,
हत्था-मुँहा धोणा लग्गी हो।3।
हत्थ मुँह धोइ सीता जे हटी जे पिछेंडें
बिंदला पेया डुग्गे नौण हो मेरे रामा।4।
जल़ी तां जाण तुहाड़े धनुख धनौटे
अग्ग लगे तिन्हां पंजे बाणां बो राम।5।
तो राम कहते हैं
इतणियाँ गल्लां नी तू बोलेयाँ भोलिए सीते
जींदियाँ जो डण्गे चणांगा बो मेरे रामा।6।’’
1. (सीता को राम ताना देते हैं कि कैसे दिनभर बैठी रहती हो), 2. सीता ने घड़ा उठाया और पानी भरने को चल दी।
3. घड़ा भर कर सीता ने बावड़ी की मुण्डेर पर रखा और हाथ मुँह धोने लगी
4. मुख धोते समय उनके माथे की बिंदिया गहरे पानी में गिर गई।
सीता पानी लेने गई तो उसके माथे की बिन्दी गहरे पानी में गिर गई। उसे खोजने के कारण देर हो गई। लौटने पर बाग उजड़ चुका था। (यहाँ भी हिरण के द्वारा बाग उजाड़ना बताया जाता है।) उधर राम-लक्ष्मण सीता की आलोचना कर रहे थे, इस पर सीता-राम का झगड़ा होता है, (6). राम कहते हैं, (ओ भोली सीता! इतनी बातें मत कर वरना मैं तुझे जिंदा दीवार में चिनवा दूँगा।) सीता बाग में अपने द्वारा किए गए श्रम का वास्ता देती है तो उनमें सुलह हो जाती है। यहाँ भी हिरण की खाल चिपकने का विवरण उसी प्रकार है परन्तु यहाँ काग के स्थान पर गिद्द है।
जनपद सिरमौर में प्रचलित एक प्रसंग के अनुसार राम-लक्ष्मण के कुटिया पर लौटने पर जब उन्हें सीता नहीं मिलती तो राम को लक्ष्मण पर संदेह होने लगता है। लक्ष्मण इस बात को भाँप गया और खाना बनाते समय उसने चूल्हे में एक ही लकड़ी लगाई। जब राम ने देखा तो बोले कि ‘‘एक लकड़ी से आग कैसे जलेगी?’’ तो लक्ष्मण ने उत्तर दिया कि ‘‘मैं भी सोच रहा था कि एक भाई की दौड़ और एक लकड़ी की आग कभी कामयाब नहीं हो सकती।’’ राम को अपनी भूल का आभास हुआ। यही प्रसंग इसी रूप में कुल्लू में भी प्रचलित है। हिमाचल में सतलुज के आस-पास का क्षेत्र सिराज क्षेत्र कहलाता है। सिराज क्षेत्र की राम कथा के अनुसार भी हनुमान जी को सीता की खोज करते हुए साठ पनिहारियाँ पानी ले जाती मिलीं। पूछने पर उन्होंने बताया कि वह राजा राम की सीता को नहला रही हैं। उनके शरीर से निकलने वाली आग इतनी तीव्र है कि यदि उन्हें इस प्रकार न नहलाया जाए तो लंका, पल भर में जल जाएगी। यहाँ कथा में इतना अंतर है कि हनुमान जी पनिहारिन को बहन बना लेते हैं और मौके का लाभ उठाने के लिए मुद्रिका एक कलश में डाल कर उस पनिहारी को कहते हैं कि तुम सीता जी पर पानी इस प्रकार गिराना कि अंत में बचा पानी उनके मुख के सामने ही गिरे। इस प्रकार मुद्रिका सीता तक पहुँच जाती है।
मण्डयाली में हनुमान जी स्वयं को रामचन्द्र जी का मामा कहते हैं तो सिरमौर में दशरथ स्वयं को श्रवण की माँ का भाई। मण्डयाली राम गाथा में हनुमान जी ने रुई तेल और आग को लंका में उछालकर आग लगाने की चेष्टा की तो किन्हीं अन्य स्थानों पर उन्होंने राक्षसों को तमाशा दिखाने का लालच देकर उनसे स्वयं ही अपनी पूँछ में पुआल बंधवा कर आग लगवाई। यहाँ भी दूर्वा की कथा प्रचलित है। ‘बरलाज’ शिमला और सोलन जनपद की प्रसिद्ध गाथा है, इसमें राजा बलि की कथा के बाद रमैण गाई जाती है। कथा प्रसंग के आधार पर रमैण को रथैल और छोकड़ा नामक खण्डों में बाँट गया है। इसमें रामकथा के प्रारम्भ से पंचवटी तक की कथा को रथैल और सीता हरण तक के प्रसंग को छोकड़ा कहा जाता है। कथा का रूप मूल रामायण का ही है। चम्बा में राजा रघु के रावण के साथ संघर्ष की कथा है।
ये लोक कथायें हमें कहीं न कहीं प्राचीन काल के क्षेत्र विशेष की परम्पराओं का भी परिचय देती हैं। निरमण्ड यूँ तो कुल्लू का भाग है परन्तु जिला शिमला के रामपुर बुशहर और निर्मण्ड के मध्य बहने वाली सतलुज इन्हें एक दूसरे से अलग कर देती है। अतः दोनों क्षेत्रों की वेषभूषा और बोली-भाषा भी एक ही है। ऐसा आभास होता है कि प्राचीन समय में इन स्थानों पर शोककाल में लोग बाहर नहीं निकलते थे, जिसका समय एक वर्ष रहता था। यह प्रथा आज भी देखने में आती है। इस प्रथा का उदाहरण यह कथा प्रस्स्तुत करती जान पड़ती है। कुल्लू के निरमण्ड क्षेत्र में प्रचलित राम कथा के अनुसार दशरथ की मृत्यु के शोककाल में राम कुटिया से बाहर नहीं आ रहे थे तब एक गीदड़ी ने यह शोक इस प्रकार खुलवाया। अभी शोककाल में छः मास बाकी थे कि एक गीदड़ी वन में हँस-खेल रही थी। तब एक शेर ने उसे धमकाया। ‘‘अरे मूर्खा! तुझे क्या पता नहीं इस समय शोक काल है, तू कैसे हँस रही है?’’ तो गीदड़ी बोली ‘‘तुम मुझे अपनी पीठ पर बैठा कर राम की कुटिया के पास ले चलो तो मैं अभी शोक खुलवा दूँगी।’’ शेर ने उसका कहना मान लिया। कुटिया के पास जाकर गीदड़ी ने भीतर की ओर झाँकते हुए कहा,
‘‘सागीरथ, भागीरथ, खोखीरथ, मुखीरथ, दौशीरौथे जाए,
जबी तौमे हुए तेबी किले न तौमे तेउए खाए?’’ (दशरथ के चार पुत्र, सागीरथ, भागीरथ, खोखीरथ और मुखीरथ हुए, अरे दशरथ पुत्रो, पैदा होते ही तुम्हें तुम्हारे माँ-बाप ने क्यों नहीं खा लिया?) यह सुनकर राम क्रोधित हो धनुष उठाकर गीदड़ी के पीछे भागे तो गीदड़ी बोली,
‘‘मुँ ता कौरा मारा राजेओ रामा, मेरे नैंही झोंक न झेड़ौ,
बैहरी हासा तौले धौरजा-पौरजा, रामे खेलो गिदड़ियो हेड़ौ।’’ (हे राम! मुझे तुम भले मार लो पर बाहर प्रजा तुम पर हँसेगी कि राजा राम ने गीदड़ी का शिकार किया।) तब लक्ष्मण के क्रोधित होने पर राम कहते हैं ‘‘जाने दो लक्ष्मण! यह किसी पूर्व जन्म में मेरी पत्नी थी। मैंने इसे तलाक दिया था जिस कारण यह अब बदला लेने गीदड़ी बनकर आई है।’’ (यह कथा महासू की लोक संस्कृति को उजागर करती है)
इस क्षेत्र में भी हनुमान को पनिहारियों से वार्तालाप करते दिखाया गया है परन्तु यहाँ हनुमान पनिहारी को बहन कहकर बुलाते हैं। साठ फाड़ैरियाँ जब चली गईं तो अंतिम फाड़ैरी (निहारन) को हनुमान जी ने रोक लिया और उससे कहा कि वह उनके सात जन्म की धरम-बहन हुई और यदि वह उनका कहना मानती है तो वह उसे सोने की गागर देंगे। बोलो, मुझे बताओ यह पानी कहाँ के लिए ढो रही हो?
हनुमान-‘‘शीरे देऊँखै गागरा बोली गै,
साता हुई धौरमा मेरे बैहण गै।
एऊ पाणी कीदा लै तोमैं ढोआ गै?।1।
‘‘बैणे बोला हौड़ुमाना जोधा लै
लौंका केरिए कै कामा लागो?।2।
लौंका मेरिए हुमा लागौ जागा गौ
क्या लौंका सोहड़े बधाउड़े गै
कै लौंका बौरत ब्याह लागे गै?3।’’
पनिहारिन-‘‘एऊ पाणी हामै लौंका लै ढोईं गौ
सीया न्हाउंणी ए आज गौ।4।’’
हनुमान कहते हैं, 1. तुम मेरे सात जनम की धर्म की बहने हुईं, बताओ मेरी बहन यह पानी तुम लोग क्यों ढो रही हो। 2. क्या लंका में कोई हवन-यज्ञ हो रहा है अथवा 3. वहाँ बधाई हुई है या किसी का ब्याह है? तब यह उन्हें सीता को नहलाने की बात बताती हैं। 4. हम लंका के लिए पानी ढो रही हैं, सीता को नहलाना है। अब हनुमान जी उसे अपना भेद बताकर वह पानी सीता के मुख के सामने उलटने को कहते हैं। जब मुद्रिका सीता के हाथ लगी तब सीता ने उस पनिहारी से पूछा कि बाहर के घाट पर कौन आया है? तब हनुमान पनिहारिनों के सिरों पर उछलते हुए वहाँ पहुँच गए। पूछने पर वह सीता को बताते हैं कि उन्होंने शरटू (बांस प्रजाति की झाड़ी) की लकड़ी से पुल बनाया और उसी से पार उतरा हूँ।
एक दन्त कथा के अनुसार रावण को दशूराजा कहा जाता है, इस कथा में राजा रावण अपनी पत्नी मंदोदरी से कहता है ‘‘मेरी भुजा फड़क रही है। कोई भी योद्धा नहीं बचा जो मेरे साथ लड़ सके।’’ रावण के बार-बार अपनी बात दोहराने पर मंदोदरी ने कहा दुनिया में बड़े-बड़े योद्धा हैं। रावण चुनौती स्वीकारता हुआ योद्धा का नाम पूछने लगा तो मंदोदरी ने कहा और तो मैं कुछ नहीं जानती,
‘‘नोदिया किनारे बोला कंवला रो फूला,
तेउ चोड़ी आणे तू घोरे राजा दशुआ।’’ (नदी किनारे कमल का फूल है उसे तोड़कर मुझे ला दो) रावण सुबह-सवेरे सैर के बहाने नदी की ओर निकला और सोचने लगा कि रानी ने चुनौती दी है। अगर मैं फूल नहीं ला सका तो हँसी होगी। किन्तु नदी पर जाकर उसने देखा फूल तो किनारे पर ही था। उसे यह रानी का मज़ाक लगा। परन्तु बिना बताए राजा कहाँ गया है यह बात तो रानी समझ गई थी। वह फूल तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाता और फूल आगे खिसक जाता। राजा दशू पानी में उतर गया। परन्तु फूल तो आगे ही आगे खिसकता जाता था। जब उसे अपनी हार का आभास होने लगा तो उसने सोचा मैं अब डूब ही जाऊँगा। तब उसने भंवरे का रूप धरण कर लिया और फूल के ऊपर बैठ गया। सूर्यास्त के साथ ही फूल इकट्ठा होकर पातालपुरी पहुँच गया। सूर्योदय के साथ फूल फिर बाहर आया और रावण मनुष्य रूप में आया तो उसने स्वयं को एक नई जगह में पाया।
वहाँ उसको एक देवी का मन्दिर दिखाई दिया जहाँ वही कमल के फूल और आदमी की बलि लगती है। लोग रावण को पकड़कर बलि देने के लिए ले गए। परन्तु वहाँ आकाशवाणी हुई कि ‘इस मनुष्य की बलि मत चढ़ाओ इसे अभी बहुत से काम करने हैं।’
पुजारियों ने उसे छोड़ दिया और देवी को पूछने लगे, ‘इसने ऐसे कौन से काम करने हैं जो और कोई नहीं कर सकता?’ फिर आकाशवाणी हुई कि ‘‘दशू राजा या तो तू स्वर्ग को सीढ़ी लगा देना या रामचंद्र की सीता को ब्याह लाना।’’ रावण ने उत्तर दिया,
‘‘सर्गे सवाणटु मेरे भि न देइया, जै होंदे राड़सी कामा।
रामा री सीया मूं बरी आणु देविए
जै होंदे शख्सा रे कामा।’’ (स्वर्ग में सीढ़ी तो मैं नहीं लगा सकता क्योंकि यह राज मिस्त्रियों के काम हैं पर राम की सीता को मैं ब्याह लाऊँगा यह मर्दों का काम है।) इस पर उसे छोड़ दिया गया।
वहाँ से आगे बढ़ने पर उसे एक व्यक्ति मिला जो महीनों से जंगल काट रहा था। उसने सारे जंगल काट डाले पर उसके उठाने लायक बोझ अभी पूरा नहीं हुआ था। रावण ने उसे पूछा, ‘‘जोधा मामा! तेरे से अधिक कोई बलवान है क्या?’’ लकड़हारे ने उत्तर दिया, ‘‘मैं अपनी बारी निभा चुका हूँ अब दशू की बारी आई है।’’ रावण सोचने लगा कि दशू तो लोग मुझे ही कहते हैं। मुझसे तो यह काम होता नहीं। उसने फिर पूछा, ‘‘मुझे बताओ दशू एक है या दो?’’ उत्तर मिला ‘‘लंका का दशू तो एक ही है। उसे या तो स्वर्ग में सीढ़ी लगानी है या सीता ब्याहनी है।’’ रावण चुपचाप आगे बढ़ गया। आगे जाने पर उसे जो योद्धा मिला उसके कंधे पर कोल्हू और पनचक्की चल रहे थे, नाक में भेड़-बकरियाँ, कानों में भैंस-गाय भरी हुई थी और पीठ पर वृन्दावन था जिसमें बीस मन कांगणी (बहुत बारीक अनाज) का बीज लगता था और वहाँ पशुओं की चारागाह भी थी। राजा ने उससे भी वही प्रश्न किए और उसे वही उत्तर भी मिले। यहाँ भी उसने सीता को ब्याह लाने की बात दोहराई तो उस योद्धा ने उसे आशीवार्द दिया। रावण प्रसन्न मन वापस आकर मन्दिर पहुँचा। उसने देवी की फुलवाड़ी से फूलों की टोकरी भरी और वापस लौट आया। आकर पत्नी से अहंकार पूर्वक कहने लगा, ‘‘पुरुषों को ताने नहीं मारने चाहिए, क्योंकि वह बहुत कुछ कर सकता है। कुत्ते को टुकड़ा नहीं देना चाहिए, वह फिर दरवाजे पर पड़ा रहता है। तूने एक कंवल का ताना मारा मैं टोकरी भर फूल ले आया हूँ।’’ मंदोदरी कुछ न बोली पर दिल में सोचती रही कि इसे अपनी औकात समझ में आ चुकी है, जिसका इसे मलाल है।
इस कहानी के अनुसार मारीच को मंदोदरी ने देश निकाला दे रखा था। उसे केवल वही वापस बुला सकती थी। पर रावण बिना मंदोदरी को बताए उसे वापस बुलाना चाह रहा था। क्योंकि सीताहरण के लिए उसकी मदद आवश्यक थी और मंदोदरी उसे ऐसा करने नहीं देती। उसने बीमार होने का नाटक किया। इलाज करते-करते थक जाने पर रानी ने पति से पूछा कि आखिर क्या किया जाए जिससे वह ठीक हो सकता है। तब रावण को मौका मिला और उसने कहा कि ‘इस रोग की औषधि मारीच के पास है।’ अब पति के लिए उसे झुकना ही पड़ा और मारीच वापस लंका आ गया और सीता हरण की योजना बनाई गई। यहाँ मैं हिमाचल के सेवा निवृत्त सचिव भाषा विभाग श्री सुदर्शन वशिष्ठ को पुनः उद्धत करना चाहूँगी, उनके अनुसार बिलासपुरी लोक कथाओं में सीता को वन न ले जा कर महलों में छोड़ा हुआ है जहाँ उसे रावण हर लेता हैः-
‘‘दस्सा! रावण चोरी जो आया हो!
तिनी जोगी रा भेस बणाया हो।
राजे इक दंत साथी लियोरा हो
तिनी दंते रा हरण बणाया हो
सेइयो सीता रे अग्गे जो आया हो।’’
अरे देखो तो! रावण चोरी करने आया है। उसने भेस तो जोगी का ही बना रखा है। अपने साथ में एक साथी भी लाया है, जिसे उसने हिरण बना दिया। वही हिरन सीता के सामने आया है।
एक अन्य लोकगीत के अनुसार
‘‘राम ते लछमण चले बन में,
सीता को छोड़ महलों में।1।
मंगदा जे मंगदा जोगी जे आया,
जोगी ने अलख जगाया।2।
उच्चे महलां ते गोली जे उतरे,
मोतिएं थाल़ लई खड़ी।3।
तेरेआं हथां री गोली भिछया न लेओआं,
सीता देओए तां लेआंआं।4।
महलां ते सीता जे निकली बाह्र,
चानण चौकी ढलाई।5।
चौकिया सीता ने पैर जे धरेया,
बांह मरोड़ी रावण लै गया।6।
1.राम और लक्ष्मण वन को जा रहे हैं , परन्तु सीता को महलों ही में छोड़ दिया है।
2. जोगी के भेस में एक भिक्षुक आया, उसने अलख जगाया। 3. ऊँचे महलों से मोतियों से भरा थाल लिए एक दासी भिक्षा देने के लिए उतरी।
4. योगी कहता है, ‘मैं तेरे हाथ की भिक्षा नहीं लूँगा, सीता स्वयं भिक्षा देगी तभी लूँगा।
5. सीता महल से बाहर निकली तो उसके लिए चन्दन की चौकी बिछाई गई
6. सीता ने ज्यों ही चौकी पर पाँव रखा कि रावण ने उसकी भुजा मरोड़ कर उसे उठा लिया और वहाँ से भाग लिया।
इसी प्रकार निरमण्ड में राजा रघु की कथा भी प्रचलित है, कुल्लू, सिराज, मण्डयाली और सोलन आदि की अपनी ही लोक कथायें हैं परन्तु यह सारी कथाएँ अपने साथ हिमाचल की लोक संस्कृति को समेट और सहेजकर चलती है। यही इन लोक कथाओं की सुन्दरता भी है।
आशा शैली
सम्पादक शैलसूत्र
इन्दिरा नगर-2, लालकुआँ
जिला नैनीताल-262402 (उत्तराखण्ड)
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