कितना लाएगा रंग, ठाकरे बंधुओं का संग

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(मुकेश “कबीर”-विनायक फीचर्स)
मुंबई में हुई ठाकरे बंधुओं की सभा की चर्चा पूरे देश में है, भावनात्मक तौर पर यह सभा भले ही सफल रही हो लेकिन राजनीतिक नजरिए से यह संगति एक चाय में गिरे हुए बिस्किट को दूसरे बिस्किट से उठाने जैसी ही है। सब जानते हैं यह भरत मिलाप सिर्फ मुंबई नगर पालिका चुनाव के लिए हुआ है । राज और उद्धव का यह मेल कितने दिन टिकता है और इसके परिणाम में किसको क्या हासिल होगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
महाराष्ट्र की राजनीति में एक समय ऐसा था जब सत्ता में न रहते हुए भी ठाकरे ब्रांड की तूती बोलती थी।विधानसभा चुनाव में ठाकरे ब्रांड टूटने के लिए आम लोग उद्धव को जिम्मेदार ठहराते हैं, जिन्होंने बीजेपी से युति तोड़ी लेकिन ठाकरे ब्रांड खत्म होने के लिए उद्धव से ज्यादा बालासाहेब ठाकरे स्वयं जिम्मेदार दिखाई देते हैं । बाला साहेब की दो बड़ी गलतियों का खामियाजा उनकी पार्टी आज भी भुगत रही है। बाला साहेब की सबसे बड़ी गलती यह थी कि उन्होंने बीजेपी के साथ गठबंधन किया। राजनीतिक विश्लेषक बीजेपी को वो अमर बेल मानते हैं जो जिस पेड़ पर चढ़ती है उसी को सबसे पहले खाती है। बाल ठाकरे से लेकर नवीन पटनायक तक इसके अनेक उदाहरण हैं। नवीन पटनायक ने तो उद्धव की तरह बीजेपी का साथ भी नहीं छोड़ा था और न ही उन पर उद्धव की तरह अयोग्यता का टैग था लेकिन बीजेपी का राजनीतिक चरित्र ही ऐसा है कि वह सबसे पहले अपने साथी का शिकार करती रही है। जिन लोगों ने बीजेपी की मंशा पहले ही भांप ली वो बच गए फिर चाहे जयललिता हों,ममता बनर्जी हों या शिबू सोरेन हों। यह लोग पहली बार में ही बीजेपी से अलग हो गए तो बचे रहे लेकिन बाल ठाकरे ने लंबे समय साथ रहकर बीजेपी को पूरा मौका दे दिया शिवसेना को साफ करने का। और बड़े भाई की भूमिका वाली शिवसेना बाला साहेब के सामने ही छोटे भाई की भूमिका में आ गई। बीजेपी बड़े भाई की भूमिका में आ गई फिर शुरू हुआ असली सत्ता संघर्ष। जिसका परिणाम यह हुआ कि उद्धव ने बीजेपी से अलग होना ही बेहतर समझा और जाते जाते एक बार सत्ता सुख भोगना उन्हें लाभप्रद लगा जो बीजेपी के साथ रहकर उन्हें नहीं मिल रहा था और न ही आगे मिलने की उम्मीद थी। इसलिए उद्धव कांग्रेस के साथ मिलकर मुख्यमंत्री बन गए। आज उद्धव फिर से मुंबई के सुप्रीमो बनने की कोशिश कर रहे हैं इसीलिए राज ठाकरे से फिर हाथ मिला लिया। दूसरी ओर राज ठाकरे की राजनीति भी अब उस मोड़ पर पहुंच गयी है,जहां उन्हें किसी सहारे की आवश्यकता है। लेकिन आज की राजनीतिक परिस्थितियों को देखकर तो नहीं लगता कि राज और उद्धव दोनों मिलकर भी बीजेपी को हरा पाएं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस काम के लिए इन दोनों ने साथ आने में बहुत देर कर दी है, वैसे तो इन्हें 2014 के चुनाव में ही साथ आ जाना था लेकिन तब साथ आते आते रह गए। उस समय रिश्तों की खटास बाकी थी और दोनों को अकेले जीतने की उम्मीद भी थी।
शिव सेना को लेकर बाल ठाकरे से दूसरी बड़ी गलती यह हो गई कि उन्होंने राज के बजाय उद्धव को पार्टी सौंप दी जिसका नुकसान पूरी पार्टी को उठाना पड़ा। आज फिर से उद्धव को राज को अपनाना पड़ रहा है लेकिन अब राजनीति इतनी बदल चुकी है कि दोनों भाई मिलकर भी कुछ खास कर नहीं पाएंगे। अब बात राजनीतिक मुद्दों की नहीं रही बल्कि साधन और शक्ति की हो चुकी है जिसके पास ज्यादा संसाधन होंगे चुनाव वही जीतेगा। राज और उद्धव ठाकरे के पास भी संसाधनों की कमी नहीं है लेकिन चुनाव मैनेजमेंट और संसाधनों के मामले में आज की बीजेपी बीस साल पुरानी बीजेपी से कई गुना आगे निकल चुकी है इसलिए अगले दस बीस साल तो बीजेपी से कोई मुकाबला कर पाएगा यह आज तो सिर्फ एक भ्रम ही लगता है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में संसाधन और सत्ता की ताकत सभी ने देखी। वैसे भी निकाय चुनाव तो अक्सर सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में ही जाते हैं । यदि केवल मुंबई की बात करें तो अभी तक सबसे ज्यादा सीटों पर शिवसेना जीतती रही है,अभी भी सबसे ज्यादा 84 सीट शिवसेना के पास ही हैं। लेकिन अब जब सेना शिंदे और उद्धव के दो गुटों में बंट चुकी है तो इसका मतलब है कि दोनों के पास चालीस चालीस सीटें रहेंगी और शिंदे भाजपा की युति मुंबई जीत लेगी। राज और उद्धव साथ भले ही आए हैं लेकिन इनकी दूसरी दिक्कत यह है कि साथ आकर भी सिर्फ मराठी वोटर पर ही केंद्रित हैं जबकि मुंबई में गैर मराठी वोटर बहुसंख्यक हैं,यदि सारे मराठी वोट ठाकरे बंधु हासिल कर भी लें तो भी बहुमत हासिल नहीं होगा। इसके अलावा अभी भी ठाकरे बंधुओं का साथ मिलकर चुनाव लड़ना निश्चित नहीं है। राज ठाकरे ने अपने पार्टी कैडर को स्पष्ट कह दिया है कि अभी युति के बारे में मत सोचो। इसका मतलब यही निकाला जा रहा है कि दोनों ठाकरे मिलकर चुनाव लड़ेंगे यह अभी भी राज ही है। यदि यह दोनों भाई अलग अलग चुनाव लड़ेंगे तो पचास और दस कुल साठ सीटें ही जीत सकेंगे और यदि मिलकर लड़ें तो भी कोई चमत्कार नहीं कर पाएंगे क्योंकि चुनाव जीतने के लिए सिर्फ मुद्दों से काम नहीं चलता बल्कि स्ट्रेटेजी आज सबसे महत्वपूर्ण है। और इस मामले में आज तो बीजेपी सबसे आगे है,इसमें कोई संदेह भी नहीं है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में यह साबित भी हो चुका है। वैसे भी चुनावों के मामले में बीजेपी कभी कोई कोर कसर नहीं छोड़ती इसलिए न तो उद्धव के प्रति सहानुभूति ने काम किया और न ही मराठी स्वाभिमान ने , भाजपा की लहर में सब बह गए । अभी तक विपक्ष यह प्रचारित कर रहा था कि महाराष्ट्र में मुफ्त की योजनाएं असर नहीं करती क्योंकि यहां स्वाभिमानी लोग हैं बिकने वाले नहीं लेकिन बीजेपी की माइक्रो इंजीनियरिंग ने सारा खेल पलट दिया और विधानसभा में ऐतिहासिक जीत हासिल की जो कभी किसी ने सोची नहीं थी,यहां तक कि बीजेपी को खुद भी उम्मीद नहीं थी। अब फिर आते हैं मुंबई में,मुंबई का वोटर ऊपरी तौर पर शेष महाराष्ट्र से थोड़ा अलग अवश्य है लेकिन बीजेपी और ठाकरे बंधुओं में फर्क यह है कि बीजेपी ने नए ट्रेंड को बहुत पहले भांप लिया जबकि ठाकरे बंधु अभी भी उस नीति पर चल रहे हैं जिसे बाला साहेब कई बार भुना चुके हैं। जमीनी हकीकत यह है कि मुंबई का चुनाव पूरे आठ साल बाद हो रहा है,वैसे यह तीन साल पहले हो जाना था। इन अतिरिक्त तीन सालों में बीजेपी चुप तो बैठी नहीं है,बस फर्क यह है कि ठाकरे बंधु हंगामा करके दिखा रहे हैं और बीजेपी अंदर ही अंदर काम कर रही है और इन आठ सालों में सबसे बड़ा परिवर्तन यह आया है कि बड़ी संख्या में बाहर के लोग मुंबई में आकर बसे और बीजेपी उन्हीं को साधकर चल रही है जबकि ठाकरे बंधु खासकर राज ने गैर मराठी लोगों में अपनी इमेज खराब कर ली है,इसका नुकसान निकाय चुनाव में निश्चित ही होगा। यही गैर मराठी लोग जिन्हें राज बाहरी कहते हैं,राज से खार खाए बैठे हैं। ये राज को सबक सिखाने के लिए भरसक कोशिश करेगें। और एक बात यह भी है कि जिन मराठियों के दम पर राज ठाकरे राजनीति करना चाहते हैं वो मराठी वोटर अब जातियों में बंट चुका है,इसका नुकसान भी ठाकरे ब्रांड को होगा। आज जातिगत समीकरण ठाकरे बंधुओं की तुलना में शिंदे के पक्ष में ज्यादा हैं,इसी को ध्यान में रखकर ही बीजेपी ने शिंदे को तोड़ा था,इसका फायदा विधानसभा में भी मिला तो नगर निकायों में भी मिलेगा। शिंदे मुंबई के ही हैं ,मुंबई और ठाणे में कोई खास फर्क नहीं है इसलिए शिंदे बीजेपी के लिए बहुत कारगर साबित होंगे। कुल मिलाकर ठाकरे बंधुओं के एक होने से भी बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ेगा। आज वक्त भी बदला है और वक्त के साथ राजनीति भी बदली है और दूसरी बात यह है कि बाला साहेब का भी महाराष्ट्र में सीमित प्रभाव ही रहा है फिर उनके बेटों का प्रभाव उनसे ज्यादा कैसे होगा ? बाला साहेब से ज्यादा सीटें यह कैसे ला पाएंगे यह भी विचारणीय प्रश्न है,क्योंकि आज की शिवसेना बाल ठाकरे की पुरानी एकजुट शिवसेना नहीं बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में बटी अनेक खण्ड-खण्ड सेना हैं। बस ठाकरे परिवार के प्रशंसकों को खुशी इतनी ही है कि दोनों भाई एक होने की दिशा में सोच रहे हैं,जिसका भविष्य में कुछ फायदा हो सकता है । फिलहाल तो ठाकरे बंधुओं के एक होने का कोई लाभ दूर दूर तक कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। *(विनायक फीचर्स)*

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