करवा चौथ पर्व के पति पत्नी के समर्पित विश्वास और श्रद्धा के प्रति कुछ पंक्तियाँ सार रूप में कही गई थी-
“स्वस्थ दीर्घायु रहूँ मैं यह तुम्हारी कामना है,
तन समर्पित मन समर्पित और समर्पित भावना है,
है तुम्हारी प्रीत निर्मल मैं हृदय से जानता हूँ,
गृहस्थ पथ पर संग चल मैं धन्य जीवन मानता हूँ ।”
एक समय था, कि जब पर्व भारतीय समाज की आत्मा में रचे बसे थे। पर्वों के प्रति उल्लास प्रत्येक हृदय में रहता था तथा पर्वों के प्रति श्रद्धा और विश्वास अटूट था। आज सम्भवतः वैसा नहीं है। यह समाज में व्याप्त भौतिकता का प्रभाव है, कि पर्व श्रद्धा से कम दिखावे के लिए अधिक मनाए जाने लगे हैं। पति पत्नी के दाम्पत्य जीवन के दीर्घजीवी होने की कामना के पर्व करवा चौथ को ही लें, यह पर्व महिलाएं अपने पति के स्वस्थ दीर्घजीवी होने के करती हैं, यह पर्व पति के प्रति समर्पित पतिव्रता नारी के त्याग व प्रेम का बोध कराता रहा है। वर्तमान में जब पति और पत्नी के दाम्पत्य जीवन में ही संदेह के बादल मंडराने लगे हैं तथा नौकरीपेशा पति पत्नी का दाम्पत्य जीवन समझौते पर टिका है। रिश्ते में सामंजस्य के अभाव के चलते प्रीत भरे रिश्ते में कटुता और हिंसा के समाचार प्रकाश में आ रहे हैं, जिनका अंजाम हत्या जैसे जघन्य अपराध की सीमा तक जा चुका है। दाम्पत्य जीवन में विश्वास की डोर कच्ची होने के चलते परिवार न्यायालयों में तलाक के मुकदमों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, तब करवा चौथ जैसे पर्व की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लगता ही है।
यही नहीं अब इस पर्व के नाम पर बाजारीकरण भी अधिक हो गया है। सुहागन होने के प्रतीक चिन्हों मेहंदी, बिंदी, कंगन, बिछुवा, पायल से सुसज्जित श्रृंगार घर में बैठकर करने के बजाय ब्यूटी पार्लर में अधिक होने लगे हैं।
कहने का आशय यही है, कि पर्व का आधुनिकीकरण कहीं न कहीं पर्व की आत्मा को आहत कर रहा है। पति के दीर्घजीवी होने की कामना के पर्व करवा चौथ की चर्चा के उपरांत संतान के स्वास्थ्य की कामना करने वाले पर्व अहोई अष्टमी व्रत की चर्चा करें, तो स्पष्ट होगा, कि यह पर्व अति प्रासंगिक है। पहले इस पर्व को केवल पुत्र संतान दीर्घजीवी होने की कामना तक सीमित रखा गया था। कालांतर में पुत्र व पुत्री में भेद न करने की मानवीय अवधारणा से इस पर्व को संतानों के दीर्घजीवी होने की कामना का पर्व मान लिया गया है। इस दिवस माताएं अपनी संतानों के लिए व्रत धारण करती है।
बहरहाल इस सत्य को नाकारा नहीं जा सकता, कि भारतीय समाज में पर्वों की एक लंबी श्रृंखला है। सभी पर्वों को मनाने के पीछे एक सकारात्मक विचार निहित है। सभी पर्वों को मनाए जाने के तौर तरीके भले ही बदल रहे हों, किन्तु मूल में छिपी भावना वही है, जिसका सभी को समुचित सम्मान करना चाहिए। इतना अवश्य है कि पर्व मनाए जाने में अनावश्यक धन के अपव्यय से बचना ही पर्वों के आत्मीय स्वरूप को बरकरार रख सकता है।
(डॉ. सुधाकर आशावादी -विनायक फीचर्स)











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