(डॉ. सुधाकर आशावादी-विभूति फीचर्स)
*’चल रहे हैं दौर विष के देवता के आवरण में, रात की काली लटा है भोर के पहले चरण में, देश का दुर्भाग्य चिंतन क्या भला चिंतक करेंगे, साथ देते हैं जटायु आज के सीता हरण में।’* देश की वास्तविक स्थिति यही है। पक्ष विपक्ष में उलझी राजनीति में किसी को देश की परवाह ही नहीं, केवल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति तक ही उनके विचार सीमित रहते हैं। यदि ऐसा न होता तो पश्चिमी बंगाल और बिहार सहित देश के अनेक राज्यों में विदेशी घुसपैठियों के समर्थन में मनोज झा जैसे राज नेताओं द्वारा चुप्पी न साधी जाती। तुष्टिकरण की राजनीति के चलते मतदाताओं की नागरिकता के परीक्षण का विरोध न किया जाता। भारत में धर्मान्तरण की गतिविधियों में लिप्त छांगुर गैंग की गतिविधियों के विरुद्ध विपक्षी गठबंधन से जुड़े नेता चुप्पी साधकर ऐसे अराजक तत्वों का मौन समर्थन न करते। राजनीतिक दल छोटी छोटी घटनाओं को अपने लाभ के लिए बड़ा बनाने पर न तुले रहते। मध्य प्रदेश में कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह द्वारा कांवड़ यात्रा की तुलना सड़कों पर नमाज़ पढ़ने वाले लोगों से न की जाती। अपना जातीय अपमान सहकर भी कुछ दिग्गज नेता विशुद्ध अलगाववादी मानसिकता से जुड़े राजनीतिक दलों के प्रवक्ता बने रहकर निर्लज्जता से अलगावी चिंतन का झंडा न उठाते।
प्रश्न अनेक हैं, किन्तु संकीर्ण राजनीति उन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने की जगह देश में परिवारवाद व जातिवादी मानसिकता से देश को उबरने ही नहीं दे रही है। प्रश्न यह भी है कि आरोप प्रत्यारोप की राजनीति में किस नेता के वचनों को विश्वसनीय मानें, किस के नहीं, कहा नहीं जा सकता। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी कभी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की हार की गारंटी लिखकर देने की बात करते हैं, कभी असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा को भ्रष्टाचार के कारण जेल में डालने की बात करते हैं, लेकिन अपने वचनों पर कभी टिके नहीं रहते। स्वाभाविक प्रश्न उत्पन्न होता है, कि वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करने के उपरांत भी राहुल गांधी अपने वचनों के प्रति गंभीर क्यों नहीं हैं ? क्या राहुल गांधी देश की न्याय व्यवस्था के बारे में कुछ ज्ञान नहीं रखते, कि यदि वह स्वयं अनेक आरोपों से घिरे रहने के उपरांत भी जमानत पर जेल से बाहर रह सकते हैं, तो दूसरे नेताओं को किस आधार पर जेल में डालने का दंभ भर रहे हैं। सिर्फ राहुल गांधी ही नहीं, देश में पक्ष विपक्ष के बड़बोले नेताओं को सार्वजनिक टिप्पणियां करने से पहले अवश्य सोचना चाहिए, कि जो वचन वे बोल रहे हैं, उनमें कुछ सच्चाई भी है या सिर्फ झूठे भविष्य वक्ता बनकर अपने अनुयायियों को भ्रमित करने हेतु भ्रामक वक्तव्य दे रहे हैं। यदि सौ में से नब्बे प्रतिशत वचन भ्रामक हों, तो ऐसे नेताओं की विश्वसनीयता संदेह के घेरे से बाहर नहीं निकल सकती। *(विभूति फीचर्स)*



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