महाराष्ट्र को तमिलनाडु बनाने की राह पर राज ठाकरे

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(राकेश अचल-विभूति फीचर्स)
भाषाई विवाद से दक्षिण भारत अभी तक मुक्त नहीं हुआ है और एक बार फिर महाराष्ट्र भाषाई विवाद में उलझता दिखाई दे रहा है। महाराष्ट्र सरकार ने राज्य के सभी विद्यालयों में कक्षा 1 से 5 तक हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा के रूप में पढ़ाये जाने का फैसला किया तो महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे इसके विरोध में आ गए। अब एकनाथ शिंदे गुट ने उन पर निशाना साधा है। जाहिर है कि महाराष्ट्र में भाजपा के नेतृत्व वाली भाजपा की सरकार है सो उसका हिंदी के खिलाफ जाना नामुमकिन है।
भारत में भाषा को लेकर विवाद नया नहीं है। आजादी के 77 साल बाद भी ये विवाद न सिर्फ ज़िंदा है बल्कि लगातार जारी है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में तीन भाषाओं को पढ़ाने का प्रावधान आने के बाद, दक्षिण में केंद्र सरकार और तमिलनाडु सरकार के बीच हिंदी-तमिल विवाद ने और जोर पकड़ा है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने हिंदी को मातृभाषाओं का ‘हत्यारा’ तक कह डाला। उनका आरोप है कि केंद्र सरकार हिंदी थोपकर भाषाई अस्मिता को कमजोर कर रही है। डीएमके नेता कनिमोझी ने भी इस मुद्दे पर कहा कि उनकी आपत्ति हिंदी को थोपे जाने से है, न कि भाषा को लेकर।
सवाल ये है कि क्या किसी एक देश की एक भाषा होना चाहिए या नहीं ? सवाल ये भी है की क्या अहिन्दी भाषी राज्य एक स्वतंत्र राष्ट्र हैं जो वे अपनी मातृभाषा को ही अपनी राजभाषा बनाये रखना चाहते हैं। सवाल ये भी है कि क्या नई शिक्षा नीति में सचमुच हिंदी, अहिन्दी भाषियों पर थोपी जा रही है ? हर भाषा- भाषी को अपनी मातृभाषा पर गर्व होता है,होना भी चाहिए किन्तु क्या केवल क्षेत्रीय भाषाओं के बूते कोई एक राष्ट्र आगे बढ़ सकता है ? इन सवालों का जबाब खोजने के बजाय दक्षिण के राज्य हिंदी के अंध विरोध में संघर्षरत हैं। हिंदी के विरोध से किसी को क्या नफ़ा-नुक्सान होता है इसके बारे में कोई कुछ नहीं बोलता।
महाराष्ट्र सरकार के फैसले का महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) अध्यक्ष राज ठाकरे ने विरोध किया है। ठाकरे ने एक बयान में कहा है कि मैं स्पष्ट शब्दों में कहता हूं कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना इस अनिवार्यता को बर्दाश्त नहीं करेगी। राज ठाकरे ने इसमें लिखा है ‘हम हिंदू हैं, लेकिन हिंदी नहीं! अगर आप महाराष्ट्र को हिंदी के रंग में रंगने की कोशिश करेंगे, तो महाराष्ट्र में संघर्ष होना तय है।’ ठाकरे ने लिखा है अगर आप यह सब देखेंगे, तो आपको लगेगा कि सरकार जानबूझकर यह संघर्ष पैदा कर रही है। क्या यह सब आने वाले चुनावों में मराठी और गैर-मराठी के बीच संघर्ष पैदा करने और उसका फायदा उठाने की कोशिश है?
राज ठाकरे महाराष्ट्र के स्टालिन नहीं हैं हालाँकि उनका अपना रूतबा है ,अपनी ताकत है। वे स्टालिन की तर्ज पर हिंदी का विरोध कर महाराष्ट्र का और मराठी भाषा का भला शायद नहीं कर पाएंगे। क्योंकि महाराष्ट्र देश की आर्थिक राजधानी है और वहां पूरा देश ही नहीं बल्कि दुनिया एकाकार होती है। महाराष्ट्र में रहने वालों को जितनी मराठी की जरूरत है उतनी ही हिंदी की भी। मैं राज ठाकरे का निजी तौर पर प्रशसंक हूँ किन्तु उन्हें मश्विरा देना चाहूंगा कि वे हिंदी का विरोध छोड़ दें। हिंदी न तो मुगलों की भाषा है और न अंग्रेजों की । हिंदी न तमिल के खिलाफ है और न मराठी के खिलाफ। भाषाओं का वजूद उनके इस्तेमाल से बनता-बिगड़ता है। कोई भाषा किसी भाषा का नुकसान तब तक नहीं कर सकती जब तक की उसके बोलने वाले ऐसा न चाहें।
दुनिया में भारत की तरह बहुत से देश बहु भाषा भाषी हैं। दुनिया के अनेक बहुभाषाभाषी देश ऐसे हैं जो बहुभाषाभाषी होते हुए भी एक राष्ट्रीय भाषा के पक्षधर हैं । हमारे पड़ौस चीन में 306 भाषाएँ हैं और हमारे यहां 453 भाषाएँ लेकिन क्या हम भाषाओं की वजह से दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन पाए ? बहरहाल भाषा किसी को हिंदू,मुसलमान,सिख या ईसाई नहीं बनाती। आप हिंदी बोलकर मराठी होने का गौरव नहीं खो देते। तमिल वाले ऐसा सोचते हैं लेकिन दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा होने के बाद तमिल को कुल 120 मिलियन लोग बोलते हैं जबकि अंग्रेजी को 268 बिलियन और चीनी दूसरे और हिंदी इस मामले में तीसरे नंबर पर है । हिंदी बोलने वालों की संख्या 637 मिलियन ही है।
राज ठाकरे को समझना चाहिए कि हिंदी सीखकर कोई मुसलमान या ईसाई नहीं हो सकता वो जो है वो ही रहेगा । मराठी है तो मराठी रहेगा ,इसलिए उन्हें अपना हिंदी विरोध छोड़ देना चाहिए। मुझे पता है कि राज ठाकरे की शिवसेना में एक से बढ़कर एक हिंदी भाषी दिग्गज हैं। उन्होंने मराठी भी सीख ली है ,लेकिन किसी के कहने पर नहीं बल्कि अपनी जरूरत के हिसाब से। इसी तरह हिंदी सीखकर किसी की मराठी अस्मिता समाप्त हो जाएगी ,ये धारणा बनाना ही गलत है। राजनीति के लिए भाषा के अलावा और दूसरे तमाम मुद्दे है। भाषायी आधार पर राजनीति करने से न तमिलनाडु की कोई राजनैतिक पार्टी आजतक राष्ट्रीय पार्टी बन पायी और न महाराष्ट्र की किसी राजनैतिक पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल पाया।
राज ठाकरे का तर्क है कि देश के तमाम राष्ट्रों का गठन भाषायी आधार पार किया गया था,सही है लेकिन भाषायी आधार पर राज्य के गठन का ये अर्थ तो नहीं है कि वे किसी एक भाषा के जरिये सम्पर्क सूत्र में नहीं बन सकते। अतीत में जब मनसे नहीं थी तब भी भाषायी आधार पर गैर मराठियों के साथ आंदोलन भी हुए और गैर मराठियों को महाराष्ट्र से खदेड़ने की कोशिशें भी। लेकिन क्या महाराष्ट्र गैर मराठियों से रिक्त या मुक्त हो गया ? राज को समझना चाहिए कि वे जिस दौर की दुनिया में है वहां न रंग के आधार पर , न जाति के आधार पर और न भाषा के आधार पर किसी से भेद किया जा सकता। भाषायी अस्पृश्यता भी उतनी ही खराब है जितनी कि जातीय अस्पृश्यता। इसलिए हिंदी का विरोध करने से फायदा कम नुकसान ज्यादा होगा।
मुमकिन है कि कल को हिंदी के मुद्दे को लेकर राज ठाकरे की मनसे एकनाथ शिंदे की शिवसेना के साथ हाथ मिला ले या राज अपने चचेरे भाई उद्धव ठाकरे के साथ हो जाएं लेकिन इससे न राज्य की सरकार अस्थिर होगी और न उसे ब्लैकमेल किया जा सकेगा। हिंदी के विरोध के किसी भी आंदोलन से महाराष्ट्र का, महाराष्ट्र की अर्थव्यवस्था का और यहां की संस्कृति का ही नुकसान होगा। दक्षिण वाले हिंदी का विरोध कर अपने सूबे की सियासत में तो टिके हैं लेकिन वे राष्ट्रीय राजनीति का हिस्सा नहीं बन पाए हैं। हम चाहते हैं कि राज ठाकरे जैसे प्रतिभाशाली युवा राष्ट्रीय राजनीति का हिस्सा बनें,किन्तु इसके लिए राज ठाकरे को अपनी भाषायी प्रतिबद्धता का त्याग करना पड़ेगा। क्योंकि हिंदी के साथ खड़े होने का अर्थ मराठी या मराठियों का विरोध या उनके हितों का अतिक्रमण नहीं है।(विभूति फीचर्स)

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