पिचहत्तर में रिटायरमेंट :कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना

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राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 75 साल की उम्र में रिटायर्मेंट की बात जबसे की है तबसे राजनीतिक हलकों में खलबली मची हुई है। हालांकि यह बात उन्होंने स्वयं के संदर्भ में कही थी पर अब प्रश्न यह है कि सितंबर में क्या होगा। सितंबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 75 साल पूरे करेंगे और क्या तब वे रिटायरमेंट ले लेगें।

इस विषय पर कहीं टकराव की स्थिति तो नहीं बन जाएगी ? इस मामले में दरबार -ए -आम और दरबार ए खास यानी आम जनता और बड़े नेता अलग अलग बंटे हुए नज़र आते हैं। मोदीजी की अपनी ही पार्टी के बड़े नेता मोदीजी से खुश नहीं हैं खासकर जो बड़े नेता संघ के कृपा पात्र हैं उनकी नज़र भी सबसे खास कुर्सी पर है जो कि लाजिमी भी है। राजनीति और अंडरवर्ल्ड इस मामले में एक जैसे होते हैं इसमें दोस्त और दुश्मन का पता करना बहुत मुश्किल होता है। अब राजनीति समाज सेवा नहीं है।आज हर नेता अपनी जुगाड़ में रहता है और मीडिया में सबके बयानों से हम भी अंदाजा लगा सकते हैं कि किसके मन में क्या चल रहा।

दूसरी बात यह है कि राजनीति में सबकी ख्वाहिश होती है कि कैसे भी करके प्रधानमंत्री बनें। मोदीजी के मामले में ऐसा क्या है कि दस साल से उनको कोई हटा नहीं पाया तो सबसे बड़ा कारण है जन समर्थन ,आम जनता में उनकी छवि अपने जैसी है, पहली बार लोगों को अपना आदमी उनमें दिखता है। वे आम लोगों की भाषा बोलते हैं,उनसे घर के वरिष्ठ सदस्य की तरह ही मिलते हैं। साथ ही वे पूरा चुनाव खुद पर केंद्रित करने की क्षमता भी रखते हैं, इसीलिए “मोदी की गारंटी” जैसे साहसी बयान देकर खुद के दम पर चुनाव का रुख पलट लेते हैं। इसके अलावा मोदीजी का माइक्रो मैनेजमेंट भी इतना जबर्दस्त है कि वे हर सीट का हिसाब किताब समझते हैं और वोटर के मन की बात भी बहुत जल्दी भांप लेते हैं और उसी के अनुसार योजना बनाते हैं। फिर इसके लिए उन्हें कोई भी निर्णय क्यों न लेना पड़े,इसका सबसे बड़ा उदाहरण है शिवसेना को गठबंधन से बाहर करना, फिर उसके दो टुकड़े करना और महाराष्ट्र में लाडली बहना जैसी योजना लाकर सारा जन मानस बीजेपी के पक्ष में कर देना। वरना इस बार बड़े बड़े पत्रकार और चुनाव विश्लेषक महाराष्ट्र में बीजेपी की जीत को मुश्किल बता रहे थे फिर चाहे महाराष्ट्र के विशेषज्ञ पत्रकार निखिल वागले हों या अशोक वानखेड़े हों। और तो और बीजेपी समर्थित विश्लेषक भी इतनी बड़ी जीत का दावा नहीं कर रहे थे ,वो महायुति को तो जिता रहे थे लेकिन अकेली बीजेपी स्पष्ट बहुमत ले आएगी इसकी घोषणा किसी चैनल ने नहीं की थी।

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अब राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि यह मोदीजी का ही कमाल था क्योंकि वे बहुत बारीकी से जनमानस को समझते हैं और हर क्षेत्र की प्राथमिकताओं के आधार पर अपनी बात लोगों के बीच में रखते हैं जिसका सीधा असर वोटर्स पर होता है ।
बीजेपी के बड़े नेता मोदी की इस ताकत को बखूबी जानते हैं इसीलिए जब उन्होंने पुराने नेताओं को एक एक करके बाहर किया तो लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ा,फिर चाहे आडवाणी जी हों या और अन्य वरिष्ठ नेता। सबको मोदीजी ने किनारे करके भी दो चुनाव बहुत अच्छे से जीतकर दिखा दिए और बीजेपी को वो रिकॉर्ड तीसरी जीत दिलाई जो बीजेपी कभी सोच भी नहीं पाती थी। आम जनता में इतनी गहरी पैठ आजाद भारत के किसी प्रधानमंत्री की नहीं रही।

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वैसे संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 75 की उम्र में पद छोड़ने की बात खुद के बारे में कही है लेकिन यह बात सार्वजनिक रुप से बोली गई है इसलिए राजनीतिक गलियारों में अटकलें तेज हैं कि क्या मोदी जी कुर्सी छोड़ेंगे या उनको हटाया जाएगा ? जहां तक मोदीजी का स्वभाव और संघ की नीति है तो कोशिश यही रहेगी कि मोदीजी खुद ही झोला उठाकर चले जाएं और नया आदर्श स्थापित कर दें लेकिन यदि मोदीजी खुद कुर्सी न छोड़ें तो क्या उनको हटाया जा सकेगा ?
सच तो यह है कि मोदीजी को हटाना असंभव नहीं तो इतना आसान भी नहीं होगा। वे व्यापक जनाधार वाले नेता हैं और माना जाता है कि प्रधानमंत्री मोदी और योगी आदित्य नाथ के अलावा कोई अन्य नेता ऐसा नहीं है जिसकी व्यापक जन स्वीकार्यता हो,लेकिन यहां भी कई किंतु-परंतु हैं। योगी आदित्यनाथ संघ की पहली पसंद नहीं है इसलिए यहां टकराव और विवाद हो सकते हैं। मोदी के अलावा सारे नेता अपने अपने क्षेत्रों में तो भले ही लोकप्रिय हों लेकिन पूरे देश में मान्यता सिर्फ मोदी को मिली है। योगी आदित्यनाथ भी हिंदी भाषी राज्यों में काफी प्रभावी हैं और देश की राजनीति जिस तरह कट्टर से अति कट्टर की ओर जा रही है योगी की स्वीकार्यता भी उतनी ही तेजी से बढ़ रही है।
संघ की बात करें तो नितिन गडकरी और देवेंद्र फडणवीस संघ की पहली पसंद हैं। उनकी संघ से नजदीकियां जग जाहिर हैं। लेकिन राजनीतिक क्षेत्रों में चर्चा है कि मोदीजी यदि हटेंगे तो सिर्फ इसी शर्त पर कि उनके बाद अमित शाह प्रधानमंत्री बनें। बस यही एक पेंच ऐसा है जो विवाद को जन्म दे सकता है। इसलिए कई राजनीतिक विश्लेषक तो यहां तक कह रहे हैं कि ऐसी स्थिति में मध्यावधि चुनाव भी हो सकते हैं। लेकिन चुनाव तक बात जाए इसकी संभावना तो कहीं से कहीं तक नहीं है। वैसे भी चुनाव में हमेशा भाजपा और संघ दोनों ही एक दूसरे पर निर्भर रहे हैं। वर्तमान परिस्थिति में न तो मोदी और न शाह और न संघ परिवार ही चुनाव चाहेंगे। कटु सत्य यह भी है कि मोदी – शाह की जोड़ी के बिना न भाजपा चुनाव जीत सकेगी और न ही मोदी और शाह के बिना संघ भाजपा को चुनाव जिता पाएगा।
यह तो सभी जानते हैं कि भाजपा की सारी ताकत संघ में निहित है। घरों में बैठे हुए वोटर्स को बूथ तक कैसे लाना है यह ताकत सिर्फ संघ में है और इस वोट को भाजपा के पक्ष में कैसे करना है यह ताकत सिर्फ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में है। भाजपा केवल इसलिए अपना प्रधानमंत्री बना पायी कि मोदी और संघ दोनों ने मिलकर काम किया। वरना तो अटल जी जैसे लोकप्रिय नेता को भी चुनावी पराजय झेलना पड़ी थी। फिलहाल तो 75 वर्ष में मोदी जी के सन्यास की बात कहीं दूर दूर तक दिखाई नहीं देती ,हां ये भले ही हो सकता है कि मोहन भागवत स्वयं संघ प्रमुख का पद छोड़ दें। शेष तो समय की झोली में क्या है यह समय स्वयं ही बताएगा ।

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(मुकेश “कबीर”-विनायक फीचर्स)

 

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