कबीरदास जी का साहित्य भारतीय समाज और धर्म की गहन आलोचना प्रस्तुत करता है, जिसमें व्यंग्य की विशेष भूमिका है। उनकी रचनाओं में व्यंग्य का प्रयोग सामाजिक कुरीतियों, पाखंडों और अंधविश्वासों के खिलाफ तीखा प्रहार करने के लिए किया गया है।
*व्यंग्य की परिभाषा और कबीर का दृष्टिकोण*
व्यंग्य वह साहित्यिक शैली है, जिसमें कथन के माध्यम से किसी विषय की आलोचना की जाती है, ताकि समाज में सुधार की दिशा में जागरूकता उत्पन्न हो। कबीरदास जी ने इस शैली का उपयोग धर्म और समाज की विकृतियों को उजागर करने के लिए किया।
*कबीर के व्यंग्य का स्वरूप*
धार्मिक आडंबरों पर प्रहार- कबीर ने मूर्तिपूजा और कर्मकांडों की आलोचना करते हुए कहा- “पाथर पूजै हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहाड़।” इसका अर्थ है कि यदि पत्थर की पूजा से भगवान मिलते हैं, तो मैं पहाड़ की पूजा क्यों न करूँ।
मुल्ला-मौलवियों की आलोचना- कबीर ने मुल्ला-मौलवियों की धार्मिकता पर व्यंग्य करते हुए लिखा- “मसजिद चढ़ क्यों बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।” यहाँ वे यह प्रश्न उठाते हैं कि मस्जिद में चिल्ला कर खुदा को क्यों बुलाना ?
सामाजिक भेदभाव पर कटाक्ष-कबीर ने जातिवाद और सामाजिक भेदभाव की आलोचना करते हुए कहा- “एक बूँद तै सृष्टि रची है, कौन बभन कौन सूदा।” इसका तात्पर्य है कि एक ही ब्रह्म से सृष्टि की रचना हुई है, तो ब्राह्मण और शूद्र में भेद क्यों?
*कबीर के व्यंग्य का उद्देश्य*
कबीरदास जी का व्यंग्य केवल आलोचना तक सीमित नहीं था, उनका उद्देश्य समाज में सुधार और जागरूकता उत्पन्न करना था। वे चाहते थे कि लोग धर्म और समाज की वास्तविकता को समझें और अंधविश्वासों से मुक्त हों।
कबीरदास जी का साहित्य व्यंग्य की शक्ति के सशक्त प्रयोग का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है, जिसमें उन्होंने समाज और धर्म की विकृतियों को उजागर करने के लिए तीखा प्रहार किया। उनका व्यंग्य न केवल आलोचना का माध्यम था, बल्कि समाज सुधार की दिशा में एक प्रेरणा भी था।
(विवेक रंजन श्रीवास्तव-विनायक फीचर्स)



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