ख़ामोशियां भी बहुत कुछ बोलती हैं

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मनुष्य का जीवन केवल शब्दों और ध्वनियों पर आधारित नहीं है। असली भावनाएँ उन अनुभवों से निर्मित होती हैं, जिन्हें हम अपनी चुप्पी में छिपा लेते हैं। तभी तो कहा गया है
*“एहसासों को अल्फ़ाज़ देना आसान नहीं,*
*ख़ामोशियां दिलों में चुभती बहुत हैं।”*

शब्दों की अपनी सीमा है, पर ख़ामोशी असीम है। लफ़्ज़ों में कभी विवशता और दिखावा छिपा होता है, जबकि मौन निष्कलुष और सच्चा होता है।

*रिश्तों में ख़ामोशी*

रिश्ते जीवन का आधार हैं। यह भी सच है कि रिश्तों में उतर आई चुप्पी कई बार टूटन का कारण बन जाती है। लेकिन सच्चे रिश्तों की खूबसूरती यही है कि वे बिना कहे भी सब समझ लेते हैं। माँ की नज़र बिना बोले आशीर्वाद देती है, प्रेमियों की चुप्पी हजार शब्दों से गहरी होती है।“कभी-कभी सबसे गहरी बातें वही होती हैं,जो कभी कही ही नहीं जातीं।”

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*समाज और ख़ामोशी*
समाज के स्तर पर ख़ामोशी के अलग-अलग मायने हैं। जैसे-
सहमति का मौन-जब शब्द अनावश्यक हो जाते हैं।
विरोध का मौन- अन्याय के सामने चुप्पी भी प्रतिरोध बन सकती है। गांधीजी का ‘मौन व्रत’ इसका उदाहरण है।
लाचारी का मौन- समाज के उपेक्षित वर्गों की खामोशी उनके दर्द की गवाही देती है।
“मौन भी एक उत्तर है, और कई बार यह सबसे प्रभावी उत्तर होता है।”
*आत्ममंथन और ख़ामोशी*
सबसे गहरी खामोशी तब जन्म लेती है जब इंसान स्वयं से संवाद करता है। ध्यान और साधना इसी मौन पर आधारित हैं। जब बाहर का शोर थम जाता है, तभी भीतर की सच्चाई सुनाई देती है।
“ख़ामोशी हमारी रूह की आवाज़ है,
जिसे सुनने के लिए भीतर उतरना पड़ता है।”
मेरा एक शेर इसी संदर्भ में—
*“शोर जिसका बहुत दूर तक सुनाई दे,*
*अपनी ख़ामोशियों को वो ज़ुबां बख्शो।”*
संवाद केवल शब्दों तक सीमित नहीं है। कई बार शब्द कमजोर पड़ जाते हैं और मौन ज़्यादा असरदार हो जाता है।
शब्द झूठे हो सकते हैं, लेकिन ख़ामोशी हमेशा सच्ची होती है।
शब्द सीमित हैं, पर ख़ामोशी असीम है।
शब्द दिल दुखा सकते हैं, मगर ख़ामोशी दिल जोड़ भी देती है।
*आधुनिक जीवन में ख़ामोशी की आवश्यकता*

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आज का मनुष्य सूचनाओं और संवादों के शोर में उलझा हुआ है। मोबाइल और सोशल मीडिया ने हमें चुप रहना लगभग भुला दिया है। जबकि मानसिक शांति और आत्मिक संतुलन के लिए मौन बेहद आवश्यक है। कुछ पल की ख़ामोशी विचारों को स्पष्ट करती है और हमें बेहतर निर्णय लेने की शक्ति देती है।
शब्दों की दुनिया रंगीन है, लेकिन अधूरी। ख़ामोशी उसमें वह गहराई भरती है, जो शब्द नहीं कर पाते। रिश्तों का अपनापन, समाज का प्रतिरोध और आत्मा का मंथन,हर जगह मौन अपनी अनोखी शक्ति से मौजूद है। सच यही है कि- *“ख़ामोशियां बेज़ुबां नहीं।

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(डाॅ. फ़ौज़िया नसीम शाद-विनायक फीचर्स)

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