मौन-वह शब्दहीन भाषा, वह अंतहीन काव्य , वह सागर है जिसकी गहराई में असंख्य रहस्य, भावनाएँ, और अनकही कहानियाँ समाई हैं। मौन को “खालीपन” समझना भूल है। यह तो वह दर्पण है जो हमारे अस्तित्व की सच्चाई को निर्मल भाव से प्रतिबिंबित करता है।
मौन: आध्यात्मिकता की भाषा है। भारतीय दर्शन में मौन को ‘मौन व्रत’ कहा गया है। महावीर स्वामी ने सत्य की खोज के लिए बारह वर्ष तक मौन धारण किया। बौद्ध ध्यान की परंपरा में ज्ञान का सिद्धांत मौन पर आधारित है—”जब शब्द समाप्त हो जाते हैं, तब ज्ञान प्रारंभ होता है।” मौन हमें अपने भीतर झाँकने का साहस देता है। यह वह कुंजी है जो मन के दरवाज़े खोलकर आत्मा से साक्षात्कार कराता है।
कला में मौन का स्वर सर्वाधिक मुखरित होता है।
कला कभी शब्दों की मोहताज नहीं होती। एक मूर्तिकार का छेनी-हथौड़ा जब पत्थर को आकार देता है, तो वह मौन की ही भाषा बोलता है। भरतनाट्यम या कथकली नृत्य में नर्तक की आँखें और मुद्राएँ शताब्दियों पुरानी कथाएँ कह जाती हैं। फ़िल्मी पर्दे पर गब्बर सिंह का खलनायकी मौन या मदर टेरेसा की करुणा भरी चुप्पी—ये सभी शब्दों से बड़ा प्रभाव छोड़ते हैं।
दुष्यंत कुमार ने लिखा था—”कुछ ऐसे भी लम्हे होते हैं, जो शब्दों से पार होते हैं।”
प्रकृति: शब्द हीन मौन की अनंत कविता है।
प्रकृति का समूचा अस्तित्व मौन का गीत गाता है। सूर्योदय की लालिमा, पहाड़ों की गंभीरता, समुद्र की लहरों का संगीत—ये सभी बिना शब्दों के संवाद करते हैं। गौतम बुद्ध ने बोधि वृक्ष के नीचे मौन में ही ज्ञान प्राप्त किया। प्रकृति हमें सिखाती है कि मौन सिर्फ़ ‘न बोलना’ नहीं, बल्कि ‘सुनना’ है—हवा की सिसकी, पत्तों की सरसराहट, और अपनी साँसों की आवाज़। नन्हें शिशु शब्द नहीं जानते पर उनकी स्मित मुस्कान या रूदन मां को वात्सल्य से भर देती है।
मानव संबंधों में मौन का प्रभाव बहुत गहरा है।
प्रेम की सबसे गहरी अभिव्यक्ति अक्सर मौन में ही होती है। माँ का वह आलिंगन जिसमें हज़ार डाँट छिपी हो, दोस्त का कंधा जो बिना कहे दुःख सह लेता है, या प्रियतम की आँखों में छिपा वह वादा जो शब्दों से परे हो—ये मौन के ही तो रंग हैं।
मौन गुस्से की सर्वाधिक प्रभावी अभिव्यक्ति होता है।
रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था—”प्रेम की भाषा में शब्द अनाड़ी होते हैं, मौन ही उसका व्याकरण है।”
मौन की सार्वभौमिकता निर्विवाद है ।
मौन किसी धर्म, जाति, या संस्कृति की सीमा में नहीं बँधता। यह वह भाषा है जो बच्चे से बूढ़े तक, मनुष्य से प्रकृति तक, सभी समझते हैं। आधुनिक दुनिया के शोरगुल में हमने मौन को ‘अकेलापन’ समझ लिया है, पर यह तो वह धागा है जो हमें अपने-पराए सभी से जोड़ता है। शायद इसीलिए कबीर ने कहा-“मौन रही जो बोलै नहीं, सोई संत सुजान।”
मौन सिर्फ़ एक अवस्था नहीं, जीवन का दर्शन है। यह शब्दहीन काव्य है-जिसकी पंक्तियाँ हृदय की गहराइयों में लिखी जाती हैं, और जिसका पाठ आत्मा करती है।
*((विवेक रंजन श्रीवास्तव-विभूति फीचर्स)



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