आजाद हिंद फौज की महिला रेजिमेंट ‘रानी झांसी रेजिमेंट’ की सेकेंड लेफ्टिनेंट आशा चौधरी द्वितीय विश्व युद्ध के इतिहास के सबसे मार्मिक अध्यायों में से एक की जीवंत सेतु थीं । आज़ाद हिंद फ़ौज की लड़ाकू महिला इकाई रानी झाँसी रेजिमेंट की एक योद्धा थीे। उनका जीवन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कहानी का एक पन्ना मात्र नहीं था, बल्कि उस साहस, बलिदान और अदम्य साहस का एक ज्वलंत प्रमाण था। बावजूद इसके यह विडंबना रही कि निधन के बाद वे जिस राजकीय सम्मान की हकदार रहीं, उससे सरकार ने उन्हें वंचित कर दिया। जबकि एक माह पूर्व ही बिहार के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने राजभवन में उन्हें सम्माानित किया था।
जापान के कोबे में दो फरवरी 1928 को जन्म लेने वाली आशा चौधरी ने घूम-घूम कर आजादी का नारा दिया था। लेफ्टिनेंट सहाय की यात्रा चुनौती और प्रेरणा से भरी रही। उनके पिता आनंद मोहन सहाय आज़ाद हिंद सरकार के मंत्रिमंडल में मंत्री थे और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के राजनीतिक सलाहकार थे। आशा की मुलाकात नेताजी से उनकी माँ सती सेन सहाय के साथ तब हुई जब वह मात्र 15 साल की थीं। उन्हें औपचारिक रूप से 1945 की शुरुआत में झांसी की रानी रेजिमेंट में शामिल किया गया था। उन्होंने बैंकॉक में प्रशिक्षण लिया और जापानी आत्मसमर्पण के बाद उन्हें जेल में डाल दिया गया। अप्रैल 1946 में वह अपने पिता से फिर से मिलीं।
कैप्टन लक्ष्मी सहगल के नेतृत्व में रानी झाँसी रेजीमेंट का हिस्सा बनकर, उन्होंने और उनके जैसी कई युवतियों ने लिंग, जाति और धर्म की बेड़ियों को तोड़ दिया और औपनिवेशिक उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई में भारतीय नारी शक्ति के प्रतीक के रूप में खड़ी रहीं। हर कदम पर, उन्होंने और उनके साथियों ने हुकूमत-ए-ब्रितानिया की ताकत को चुनौती दी, प्रतिरोध की एक ऐसी आग जलाई जिसने अनगिनत लोगों को साम्राज्यवाद के खात्मे के संघर्ष में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। उनका साहस एक स्पष्ट आह्वान था, जिसने साबित कर दिया कि किसी भी राष्ट्र की आज़ादी की लड़ाई का मर्म कोई सीमा नहीं जानता।
भारत की आज़ादी का मार्ग बलिदानों से प्रशस्त हुआ था और उसमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज का महत्वपूर्ण योगदान था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की क्रांतिकारी दृष्टि ने आजाद हिंद फौज को जन्म दिया, एक ऐसा आंदोलन जिसने एक राष्ट्र और उसके सशस्त्र बलों की नियति को नया रूप दिया।
1945 के आज़ाद हिंद फौज के मुकदमों और 1946 के विद्रोहों ने ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी, जिससे साम्राज्य का पतन और दुनिया भर में उसकी औपनिवेशिक पकड़ का पतन तेज़ हो गया, क्योंकि ब्रिटिश भारतीय सशस्त्र बलों का इस्तेमाल उपनिवेशवाद को लागू करने के लिए किया गया। लेफ्टिनेंट सहाय और उनके साथी योद्धा इस क्रांतिकारी बदलाव के केंद्र में थे, उनकी बहादुरी ने एक ऐसी विरासत को जन्म दिया जिसकी गूंज भारत की सीमाओं से परे तक फैली।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम वीरता, एकजुटता और त्याग की एक गाथा थी, जिसे उन देशभक्तों ने बुना था जिन्होंने एक स्वतंत्र राष्ट्र का स्वप्न देखा था। इन महिलाओं और पुरुषों का साहस, जिन्होंने अकल्पनीय चुनौतियों का अटूट संकल्प के साथ सामना किया, हमारी स्मृति से कभी नहीं मिटेगा। 15 अगस्त, 1947 को भारत की स्वतंत्रता के लगभग आठ दशक बाद, उनके बलिदान हमें याद दिलाते हैं कि स्वतंत्रता एक कठिन परिश्रम से प्राप्त उपहार है, जो उन लोगों के खून और बहादुरी से अर्जित किया गया था जिन्होंने साम्राज्यवाद के आगे झुकने से इनकार कर दिया था।
वे 1944 में 17 वर्ष की उम्र में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में गठित आजाद हिंद फौज की सहयोगी रेजिमेंट रानी झांसी रेजिमेंट में शामिल हुई थीं। उनके पिता आनंद मोहन सहाय नेताजी के निकट सहयोगी और आजाद हिंद फौज के सेक्रेटरी जनरल थे। उनकी माता सती सहाय पश्चिम बंगाल के चोटी के कांग्रेसी नेता व बैरिस्टर चित्तरंजन दास की भांजी थीं। सती सहाय देशभक्त महिला व स्वतंत्रता सेनानी थी। गया कांग्रेस अधिवेशन में नेताजी सुभाष चंद्र बोस अध्यक्ष चित्तरंजन दास के निजी सचिव बन कर आए थे। वहां श्रीमती चौधरी के पिता आनंद मोहन सहाय को चित्तरंजन दास के कैंप की सुरक्षा का दायित्व मिला था। नेताजी से सहायजी की पहली भेंट वहीं हुई थी। वह बताती थी कि उनकी मां के नेताजी सुभाषचंद्र बोस से पारिवारिक संबंध थे। नेताजी के जर्मनी से सिंगापुर आने पर एक दिन मां व इनके चाचाजी, इनके व इनकी बहन के साथ नेताजी से भेंट करने गई। वहां इन्होंने नेताजी से दोनों बेटियों को रानी झांसी रेजिमेंट में शामिल करने का आग्रह किया तो 1944 में आशा जी को उसमें शामिल कर लिया गया था। इससे पूर्व बैंकाक में इन्हें नौ माह की युद्ध संबंधी कड़ी ट्रेनिंग दिलाई गई थी। उसमें इन्हें राइफल चलाना, एंटी एअर क्राफ्ट गन चलाना, युद्ध के तरीके, गुरिल्ला युद्ध की बारीकियां आदि का प्रशिक्षण दिलाए गए थे। देश को आजादी दिलाने के लिए ब्रिटिश फौज से युद्ध के दौरान वे सिंगापुर, मलाया (अब मलेशिया) और बर्मा के युद्ध मैदान में सक्रिय रहीं थीं। इस दौरान उन्हें कई सप्ताह तक रेजिमेंट की नायक कर्नल लक्ष्मी सहगल के नेतृत्व में बर्मा के घने जंगलों में रहना पड़ा था।
वहां खाने-पीने की समस्या तो रहती ही थी ,साथ ही बम से जख्मी होने पर भी महिला सैनिक लड़ती रहती थीं। वो बताती थीं कि , हमारी सेना को मणिपुर की ओर आगे बढ़ते देख हतप्रभ ब्रिटिश सेना ने लड़ाकू विमान से अंधाधुंध बम बरसाने शुरू कर दिए। हमारे छिपने के ठिकाने, पेड़-पौधे जला डाले गए, कई सिपाही हताहत हो गए, कई जख्मी हो गए। कई महिला सिपाही भी गंभीर रूप से जख्मी हो गई थीं। उन सबों को अस्पताल पहुंचाया गया। इसके बावजूद देश को शीघ्र आजाद करने की ललक के कारण हमें पीछे हटना गंवारा नहीं था। पर इसी बीच जापान पर एटम बम गिरा दिया गया तो वह भी हमें सहयोग करने की स्थिति में नहीं रह गया। ऐसे में नेताजी ने आगे फिर युद्ध शुरू करने की मंशा से सैनिकों से तत्काल युद्ध विराम करने की घोषणा कर सभी सैनिकों को बर्मा के मेमयो बुला लिया।
आशाजी उस समय की एक आंखों देखी घटना के बारे में बताती थी कि आजाद हिंद फौज के खर्च के लिए फंड की जरूरत पड़ती थी। 1944 में नेताजी बैंकाक में थे। वहां यूपी व पश्चिम बिहार के कई देशभक्त यदुवंशी रहते थे। वे वहां दूध का व्यवसाय करते थे। एक पशुपालक ने अपने बेटे को आजाद हिंद फौज व पुत्री को रानी झांसी रेजिमेंट में भर्ती करा दिया। अपनी गौशाला, पशु आदि बेच कर मोटी राशि जुटाई और जमा सोने-चांदी व पूरी राशि नेताजी के चरणों पर रख कर कहा कि उनके पास जो कुछ था उसे देश को समर्पित कर दिया। अब वे दोनों बचे हैं। उन्हें भी देश की सेवा में लगा लिया जाए। तब नेताजी ने उन्हें गले से लगाते हुए अपना बॉडीगार्ड बना लिया और उनकी पत्नी सावित्री देवी को रानी झांसी रेजिमेंट में सेविका के रूप में बहाल कर लिया था। आशा जी कहती हैं-हम लोग उन्हें मां कह कर पुकारते थे।
नेताजी का निधन कब और किन परिस्थितियों में हुआ उस पर आज भी संशय बना हुआ है। इस संबंध में आशा चौधरी बतातीं थी कि इन्होंने व उनके पापा नेताजी के निकट सहयोगी व आजाद हिंंद फौज के सेक्रेटरी जनरल स्व. आनंद मोहन सहाय ने बहुत पहले ही सरकार तथा जांच आयोगों को भारी मन से बता दिया था कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस ताइवान के फारमोसा में 1945 में हुए विमान दुर्घटना में दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से शहीद हो चुके हैं। उनकी पवित्र अस्थि-राख जापान के टोक्यो स्थित रेंकोजी मंदिर में रखी हुई है। वहां से उसे स्वदेश लाया जाए। लेकिन देश के चोटी के नेताओं को न उनकी बातों पर भरोसा हुआ था और न नेताजी की अस्थि राख स्वदेश लाई गई। समय-समय पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवित होने की खबरें आने के बारे में इनका कहना है कि नेताजी जैसे दृढ़ देशभक्त इतने लंबे समय तक छिप कर रहने वाले नहीं ।
एक बार उनसे महात्मा गांधी ने पूछा था कि मां बंगाली पिता बिहारी हैं तो तुम क्या हो? इस पर उन्होंने जवाब देते हुए कहा था कि मैं हिंदुस्तानी हूं।
आजाद हिन्द फौज के पतन के बाद वह मुश्किलों को झेलते 1946 में स्वदेश आयीं पहुँची। फौज के कागजात आनन-फानन जला दिए गए थे। 1949 में उनका विवाह हुआ और फिर आजाद हिंद फौज के हजारों सहयोगियों के साथ वह भी अपने आजाद भारत में विस्मृत कर दी गयीं। उन्होने अपने संस्मरण जापानी में लिखे जिसका हिन्दी अनुवाद धर्मयुग में 1970 के दशक में धारावाहिक प्रकाशित हुआ था। उसकी अद्भुत कहानी का अंग्रेजी अनुवाद उनकी पोती तन्वी श्रीवास्तव ने ‘द वॉर डायरी ऑफ़ आशा-सान’ नामक पुस्तक में दर्ज किया है। लेफ्टिनेंट आशा की जापान में बचपन से लेकर अपनी मातृभूमि भारत को स्वतंत्र कराने तक की संघर्ष यात्रा का वर्णन किया गया है, जिसके कारण वे सुभाष चंद्र बोस की भारतीय राष्ट्रीय सेना की झांसी की रानी रेजिमेंट में शामिल हो गईं।
जिस दौर में वे आजाद हिंद फौज में शामिल हुई उस समय की महिलाओं के लिए यह बड़ा साहसिक कदम था। देश की सेवा के लिए उन्होंने न केवल घर और परिवार छोड़ा बल्कि जापान से लौटने के बाद देश प्रेम के प्रति महिलाओं को जागरूक करती रहीं।देश की आजादी के बाद उन्हें सरकार की ओर स्वतंत्रता सेनानी पेंशन दी गयी थी। उन्होंने वह पेंशन लेने से मना कर दिया था। वे कहती थीं कि जिन्हें जरूरत है पैसे उन्हें ही दिए जाए।
भारत में जापान के राजदूत, केइची ओनो ने 2025 में बिहार दौरे के क्रम में रानी झाँसी रेजिमेंट की वीरांगना आशा सहाय से मुलाकात की थी। उन्होंने प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा था कि मुझे सुश्री आशा सहाय चौधरी से मिलने का सम्मान मिला, जो 1928 में जापान में पैदा हुई थी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस से प्रेरित होकर झांसी की रानी रेजिमेंट में शामिल हुईं और भारत की स्वतंत्रता के लिए खुद को समर्पित कर दिया। अपनी मातृभूमि के प्रति उनके समर्पण की मैं दिल से प्रशंसा करता हूं ।
उन्हें राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तथा रामनाथ कोविद द्वारा सम्मानित भी किया गया था। उनके निधन पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की बेटी अनिता बोस ने जर्मनी से शोक संवेदना प्रकट की। जापान के राजदूत ने भी शोक संदेश अपने ट्वीट के माध्यम से दिया।
( कुमार कृष्णन फीचर्स)










लेटैस्ट न्यूज़ अपडेट पाने हेतु -
👉 वॉट्स्ऐप पर हमारे समाचार ग्रुप से जुड़ें