वास्तविकता के दाग-धब्बों को छिपाने का माध्यम बना सोशल मीडिया

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अजब दौर है , हर कोई अपनी ‘वाल’ या ‘स्टेटस’ पर ऐसी चमकती-दमकती बौद्धिकता और आदर्शवाद का प्रदर्शन करता है, मानो गांधी, नेल्सन मंडेला और दलाई लामा का संयुक्त स्वरूप उनके की बोर्ड में निवास करता हो। “सर्वे भवन्तु सुखिनः” की स्टोरी, कहीं पर्यावरण बचाने का जोशीला स्टेटस, तो कहीं नारी सशक्तिकरण पर विद्वतापूर्ण उपदेश। देखकर लगता है कि धरती पर स्वर्ग उतर आया है और उसके मुख्य देवदूत हमारी फ्रेंडलिस्ट में विराजमान हैं।
लेकिन ज्योंही इस आभासी आभा से निकलकर हम इन ‘आदर्श पुरुषों’ और ‘आदर्श नारियों’ के वास्तविक जीवन में कदम रखते हैं, त्योंही चश्मे के शीशे टूट जाते है।
वही सज्जन, जिनकी वाल पर “क्षमा वीरस्य भूषणम्” (क्षमा वीरों का आभूषण है) टंगा होता है, सड़क पर गलती से टकरा जाने पर ऐसी गालियों की वर्षा करते हैं जो शायद ही किसी डिक्शनरी में मिले। वही महानुभाव, जो स्टेटस में “सादा जीवन उच्च विचार” का पाठ पढ़ाते हैं, असल जिंदगी में ब्रांडेड कपड़ों और महंगी गाड़ियों के पीछे दौड़ लगाते हैं, मानो सादगी कोई संक्रामक रोग हो।
पारिवारिक मोर्चे पर तो यह विसंगति महाकाव्य बन जाती है। फेसबुक पर “मातृ-पितृ भक्ति सबसे बड़ा धर्म” का उद्घोष करने वाला युवक, घर पहुंचते ही मां के “जरा पानी ला दो” कहने पर ” मम्मी, मैं बिजी हूं!” का तीखा जवाब देता है। ट्विटर पर “समानता और सम्मान” की पैरोकार करने वाली सुश्री, घर की बहू-बेटियों के साथ बर्ताव में ऐसा पुरातनपंथी रवैया अपनाती हैं, कि स्टेटस खुद शर्म से पानी-पानी हो जाए।
कार्यालयों में तो यह व्यवहार रोज का रंगमंच है। जो साहब लिंक्डइन पर “टीम वर्क” और “इथिकल लीडरशिप” पर लेख लिखते नहीं थकते, वही कार्यालय में अपने जूनियर की बढ़ती प्रतिभा से इतने क्षुब्ध रहते हैं कि उसकी प्रमोशन रिपोर्ट खराब करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते और “सत्यमेव जयते” वाला स्टेटस लगाने वाला कर्मचारी? उसके तो ऑफिस टाइम में पर्सनल काम और पर्सनल टाइम में ऑफिस के झूठ बनाने का शेड्यूल इतना टाइट होता है कि ‘सत्य’ तो बस उसकी प्रोफाइल पिक्चर तक ही सीमित रह जाता है।
इस विडंबना के मूल में छवि का भूत होता है । सोशल मीडिया ‘इमेज मेकिंग फैक्ट्री’ बन गया है। यहां आप जो दिखाना चाहते हैं, वही दिखाते हैं , आप जो हैं, वह नहीं। यह एक सुविधाजनक मास्क है, जिसे पहनकर वास्तविकता के दाग-धब्बों को छिपाने की कोशिश में हर प्रोफाइल जुटा हुआ है।
आदर्शवादी, प्रबुद्ध और संवेदनशील दिखने वाले पोस्ट्स को आभासी जगत में सामाजिक स्वीकृति और प्रशंसा मिलती है। यह एक डोपामाइन रश है ।
आत्ममंथन करके अपने चरित्र को सुधारना एक कठिन, दीर्घकालिक प्रक्रिया है। उसके मुकाबले किसी महान व्यक्ति का कोट कॉपी-पेस्ट करके तुरंत ‘अच्छा इंसान’ दिख जाना सरल है। यह समय है कि हम अपनी ‘वाल’ को सजाने से पहले, अपने ‘व्यवहार’ को संवारने पर ध्यान दें। आदर्शवाद वह नहीं जो टाइप होता है, बल्कि वह है जो जीवन के कैनवास पर चरित्र के रंगों से चित्रित होता है।

(विवेक रंजन श्रीवास्तव-विनायक फीचर्स)

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