कल्पना कीजिए एक कलम है-शानदार, सुनहरी, और चमकती हुई। पर उसमें स्याही न हो तो वह सुंदर होकर भी निरर्थक है। या फिर मंच पर एक जबरदस्त अभिनेता खड़ा है-भावनाओं से परिपूर्ण, ऊर्जा से भरा हुआ-लेकिन अगर निर्देशक ने उसे सही संवाद और सही फ्रेम न दिया, तो वह अभिनय केवल शोर बनकर रह जाएगा।
यहीं से जन्म लेता है एक शाश्वत सत्य-“कितना भी बड़ा राइटर हो, उसे एडिटर चाहिए और कितना भी बड़ा एक्टर हो, उसे डायरेक्टर चाहिए ।” यह विषय गहराई व गंभीरता के साथ सृजनात्मकता और सामूहिक प्रयासों की महिमा का दस्तावेज़ है। महानता कभी अकेले नहीं चलती, उसे दिशा, सहयोग और आलोचनात्मक समर्थन की ज़रूरत होती है।
*कौन महान होता है और कौन उसे अमर करता है*
जब अभिनय की बात होती है, तो दिलीप कुमार का नाम सबसे पहले आता है। ‘देवदास’ में उनकी पीड़ा, ‘मुगल-ए-आज़म’ में सलीम की तड़प, सब कुछ ऐसा था जो दिलों में उतर गया। पर इन दृश्यों को उस गहराई तक पहुँचाने का कार्य किया बिमल रॉय और के. आसिफ जैसे निर्देशकों ने।
धर्मेंद्र, जिन्हें हीमैन कहा गया, उनका ‘शोले’ का वीरू किरदार आज भी जीवित है। लेकिन याद रखिए, यह किरदार रमेश सिप्पी की निर्देशन कला और सलीम-जावेद की लेखनी का संगम था।
अमिताभ बच्चन- अभिनय का पर्याय – को जिस फिल्म ने ‘एंग्री यंग मैन’ बनाया, वह ‘जंजीर’ थी। लेकिन उस जंजीर की कड़ियाँ जोड़ने वाले थे निर्देशक प्रकाश मेहरा और लेखक सलीम-जावेद, जिनकी दृष्टि के बिना यह किरदार अस्तित्व में ही न आता।
*लेखक के विचार को आकार देता है संपादक*
एक लेखक के भीतर भावनाओं का सागर होता है, लेकिन वह सागर तब तक अथाह नहीं माना जाता जब तक कोई संपादक उसकी धाराओं को दिशा न दे। मुंशी प्रेमचंद हिंदी के महान कथाकार माने जाते हैं, लेकिन ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उनकी भाषा और शिल्प को नया आयाम दिया।
जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ जैसी गूढ़ रचना को भी अपने समय के विद्वानों और आलोचकों ने तार्किक अनुक्रम, भावपक्ष की सघनता और विचार गंभीरता के संदर्भ में दिशा दी।
धर्मवीर भारती की ‘गुनाहों का देवता’-जितनी हृदयस्पर्शी रचना है, उतनी ही बार-बार संपादकीय समीक्षा से भी गुजरी। यही संपादन उसे ऐसा आकार दे सका जिसे पीढ़ियाँ पढ़ती हैं।
*पर्दे के पीछे का महान होना*
जो सामने दिखता है, वह अकेले का परिणाम नहीं होता। चाहे वह एक संवाद हो, एक भावपूर्ण दृश्य हो या एक प्रभावशाली पैराग्राफ-उसके पीछे अनेक अनुभवी आँखें, श्रमशील हाथ और सजग मस्तिष्क काम कर रहे होते हैं।
फिल्म ‘लगान’ की चर्चा करें-सुपरस्टार आमिर खान का समर्पण सराहनीय था, लेकिन उसके पीछे थे निर्देशक आशुतोष गोवारिकर, संगीतकार ए. आर. रहमान, और लेखकों की टीम, जिन्होंने इस काल्पनिक कहानी को ऐतिहासिक अनुभूति बना दिया।
ठीक वैसे ही किसी कविता या कहानी की अंतिम पंक्तियों के पीछे भी कई बार लंबा संवाद, संशोधन और संपादन छिपा होता है, जिसे पाठक नहीं देखता, पर महसूस करता है।
*जब विनम्रता मिलती है प्रतिभा से*
सच्चे रचनाकार वही होते हैं जो स्वयं को पूर्ण नहीं मानते, बल्कि हर दिन सीखते हैं, हर संवाद से परिपक्व होते हैं।अमिताभ बच्चन, जिन्होंने पाँच दशक से अधिक सिनेमा पर राज किया, आज भी हर निर्देशक से कहते हैं – “आप बताइए, कैसे करना है।”
प्रेमचंद, जिनके पास स्वयं एक अलग भाषा शैली थी, फिर भी वह हर पत्रिका, हर आलोचक की टिप्पणी पढ़ते थे और जरूरी बदलाव करते थे।
विनम्रता, मार्गदर्शन की स्वीकृति और सहयोग की भावना ही एक साधारण को असाधारण बनाती है।
*कृति तराशने से ही पूरी*
हर रोशनी किसी दीपक से निकलती है, पर वह दीपक तब तक नहीं जलता जब तक उसे किसी ने जलाया न हो। हर अभिनेता, हर लेखक, चाहे वह सदी का महानायक ही क्यों न हो, तब तक सम्पूर्ण नहीं होता जब तक कोई उसकी कृति को तराशने वाला, उसे देखने वाला, उसे दिशा देने वाला न हो।
*महा वाक्य:*
“प्रतिभा की पराकाष्ठा तब ही प्रभावशाली होती है, जब वह विनम्रता से मार्गदर्शन को स्वीकार करे।”
( नरेंद्र शर्मा परवाना-विनायक फीचर्स)



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