बने रहे यह पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला

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हरिवंश राय बच्चन उन गिने चुने कवियों में से हैं जिनका गद्य भी उतना ही सशक्त था जितना कि पद्य। उनके बारे में हुल्लड़ मुरादाबादी का दोहा भी इसी तरह का है-

*गद्य पद्य में एक सी जो भी कलम चलाए*,
*इस दुनिया में वोही शख्स हरिवंश कहलाए।*

हुल्लड़ जी की यह पंक्तियां बिल्कुल सही भी हैं ,यही कारण है कि बच्चन एकमात्र ऐसे साहित्यकार हैं जिनको पद्य और गद्य दोनों रचनाओं के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। उनके कविता संग्रह *दो चट्टानें* को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और गद्य रचना *दशद्वार से सोपान तक* को सरस्वती सम्मान मिला। *दशद्वार से सोपान तक* उनकी आत्मकथा है जो बहुत रोचक है और एक तरह से आत्मकथा लिखने वालों के लिए स्कूल की तरह है । यह कृति सच्चाई,मर्यादा और सरलता का अद्भुत संगम है।आमतौर पर लोग आत्मकथा लिखने में या तो बहुत विनम्र,बेचारे हो जाते हैं या फिर जरूरत से ज्यादा साहसी लेकिन बच्चन जी की आत्मकथा में संतुलन है और घटनाओं का वर्णन भी ऐसा बिन्दुवार और रोचक है कि यह गद्य भी कविता की लय और गहराई तक पहुंच जाता है,और कोई भी पढ़ने वाला बोर नहीं होता । यही बच्चन की कलम की ताकत है। यही प्रभाव उनकी कविताओं का भी है । उन्होंने बहुत सरलता से गहरी बातें कहीं हैं । यही कारण है कि उनकी रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं बल्कि उनके कई टाइटल तो आज आम जीवन के मुहावरे बन चुके हैं । जैसे *बीत गई सो बात गई* या *नीड का निर्माण* या फिर *मधुशाला*। मधुशाला उनकी सबसे चर्चित कृति है , मधुशाला और बच्चन जी एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं,हालांकि जब यह लिखी गई थी तब इसका विरोध भी हुआ था लेकिन बाद में यह एक क्लासिक रचना मानी जाने लगी। उन्होंने मधुशाला का पहली बार पाठ बनारस हिंदू विश्व विद्यालय में किया था,जहां वो प्राध्यापक थे। जिस दिन मधुशाला उन्होंने सुनाई तब छात्र और श्रोताओं की संख्या कम थी इसलिए ज्यादा लोगों तक पहुंच नहीं पाई लेकिन जिन गिने चुने छात्र और स्टॉफ ने यह रचना सुनी थी उन्होंने इसकी इतनी तारीफें कर दीं कि पूरे विश्वविद्यालय में यह बात फैल गई और उस वक्त के छात्र संघ अध्यक्ष ने एक आयोजन सिर्फ बच्चन को सुनने के लिए ही किया। पब्लिसिटी खूब हो चुकी थी इसलिए हॉल खचाखच भरा था। उस वक्त कविता सुनने का क्रेज था और कवि को वैसा ही सम्मान और लोकप्रियता हासिल थी जैसी आज किसी बड़े फिल्म स्टार को या क्रिकेट स्टार को हासिल है। तब नए कवि को सुनने की उत्सुकता ज़रा ज्यादा ही होती थी इसलिए लोग इतने थे कि पैर रखने की जगह भी नहीं बची। सीढ़ियों पर भी लोग बैठ गए थे। जब बच्चन जी मंच पर आए तो उनका तालियों की गड़गड़ाहट से गर्मजोशी के सादर स्वागत हुआ। तब वो युवा तो थे ही खूबसूरत भी बहुत थे इसलिए पहला इंप्रेशन तो बहुत अच्छा पड़ा और फिर जब उन्होंने मधुशाला सुनाई तो छात्रों में अथाह उत्साह और उमंग की लहरें दौड़ने लगीं, तब छात्रों ने इसको शराब तक ही सीमित समझा, तो कई पीने वालों को तो बच्चन जी में अपना मसीहा दिखने लगा जो पीने पिलाने की सरेआम की वकालत कर रहा है। करीब दो घंटे तक बच्चन जी सुनाते रहे और कोई भी टस से मस नहीं हुआ और जब यह रचना पूरी हुई तो तालियों की गड़गड़ाहट और एक बार और की फरमाइश और स्टैंडिंग ओबेशन कुल मिलाकर सुपर हिट आयोजन और बस दो घंटे में ही बच्चन जी हीरो बन गए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में। खास बात यह कि उस ज़माने में जो बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रसिद्ध हो जाता था उसकी चर्चा पूरे देश के साहित्य जगत में पहुंच जाती थी,यही बच्चन जी के साथ हुआ। वे बहुत ही जल्दी पूर्वांचल फिर अवध और जल्दी ही दिल्ली तक ख्यात हो गए और कवि सम्मेलनों में आमंत्रित किए जाने लगे। कवि सम्मेलन में बच्चन जी जल्दी ही इतने प्रसिद्ध हो गए कि वे कवि सम्मेलन की अनिवार्यता बन गए। उनको कवि सम्मेलनों का पहला सुपर स्टार कहा जा सकता है,क्योंकि लोग इनका इंतजार करते थे और कुछ लोग तो ढोलक,मजीरे लेकर भी आते थे ताकि बच्चन के साथ बजा सकें। बच्चन ने मधुशाला जितनी अच्छी लिखी थी उतना ही अच्छा उनका प्रस्तुतीकरण भी था,मधुर आवाज और सुरीली गायकी से ऐसा समां बंध जाता था कि पूरी पूरी रात लोग बैठकर सुनते थे । यह वह दौर था जब भारत में मनोरंजन का सर्वश्रेष्ठ साधन कवि सम्मेलन ही हुआ करते थे । तब गाने वाले कवि भी बहुत कम थे । आजादी का नशा खत्म नहीं हुआ था इसलिए ज्यादातर कवि ओज सुनाते थे । तब बुलंद आवाज़ और जोश कवियों की खासियत मानी जाती थी । ऐसे दौर में बच्चन जब मधुर गायकी लेकर मंच पर आए तो पूरा माहौल ही बदल गया । इसका फायदा कवि सम्मेलनों को भी हुआ और बच्चन जी को भी,दोनों ने एक दूसरे को लोकप्रियता दिलाई। तब बच्चन जी युवाओं में सबसे ज्यादा पॉपुलर थे और युवा उनकी तरह बनना चाहते थे । उन्होंने कई युवा कवियों को प्रेरित किया जो आगे जाकर बड़े कवि बने उनमें से नीरज जी भी एक हैं। नीरज ने खुद इस बात को स्वीकार किया कि बच्चन को देखकर ही मैं मंच की तरफ आकर्षित हुआ और उनको देखकर ही मैने मंच पर गीत और गाना शुरू किया,बाद की कहानी तो हम सब जानते हैं कि नीरज जी अपने गुरु से भी आगे निकल गए।नीरज जी को पहली बार मंच पर भी बच्चन जी ही लेकर गए थे,उस दिन बस में भीड़ बहुत थी बच्चन जी को तो सीट मिल गई लेकिन युवा नीरज खड़े रहे तब बच्चन जी ने युवा नीरज को अपनी गोद में बैठा लिया और तभी नीरज ने घोषणा कर दी कि मै बड़ा कवि बनूंगा ,इसका कारण पूछने पर बोले कि जो आपकी गोद में बैठ चुका हो जिसके सर पर आपका हाथ रखा जा चुका हो वो नहीं तो कौन बनेगा बड़ा कवि ? और यह बात सच साबित हुई। बहरहाल बच्चन की बात करें तो उनकी मधुशाला की लोकप्रियता देखकर उनके ही एक कलीग ने मधुशाला की पैरोडी ताड़ीशाला लिखी लेकिन वह ज्यादा पॉपुलर नहीं हो सकी । उसका सबसे बड़ा कारण यही था कि बच्चन का प्रस्तुतीकरण भी कमाल का था।
बच्चन जी जितने सशक्त मंच पर थे उनका साहित्य भी उतना ही सशक्त रहा है,यह भी एक बिरली बात है जो हर कवि में नहीं होती । बच्चन जी की रचनाएं बहुत प्रेरणादायी होती हैं और साथ ही उनका मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक पक्ष भी बहुत मजबूत है। मधुशाला भी शुरू में भले ही किसी कारण से लोकप्रिय हुई हो लेकिन बाद में जब इसका दार्शनिक पक्ष लोगों को समझ आया तो फिर यह पुस्तकालयों की अनिवार्यता बन गई । यहां तक कि पेरेंट्स खुद अपने बच्चों को मधुशाला पढ़ने के लिए देने लगे।आज नब्बे साल बाद भी मधुशाला की बहुत सी बातें सही प्रतीत होती हैं- जैसे राह पकड़ तू एक चलाचल पा जायेगा मधुशाला,यह पंक्ति दुविधा और दोराहे की स्थिति में अच्छा समाधान देती है कि कोई भी एक निर्णय लेकर काम शुरू कर दो मंजिल मिल ही जाएगी। उनकी “बीत गई सो बात गई” तो अब एक कहावत बन चुकी है । जब भी कोई अतीत के कारण दुखी होता है तो हम उसको यही कहकर समझाते हैं, यह बच्चन जी की सरल भाषा का ही कमाल है। साहित्य में एक कहावत है कि सरल लिखना ही सबसे कठिन है और यह काम बच्चन जी ने बखूबी किया है। अपनी इसी सरलता के कारण ही वे इतने सफल भी हुए हैं क्योंकि वे जिस दौर के रचनाकार थे वह दौर ऐसे छायावादी कवियों का दौर था , जिनकी भाषा कठिन और विशुद्ध हिन्दी होती थी,जिसे आम लोग आसानी से नहीं समझ पाते थे । ऐसे दौर में बच्चन जी जब आम बोलचाल की भाषा को साहित्य में लेकर आए तो हाथों हाथ बिकने लगे और नए लोग बहुत तेजी से कविता की ओर खिंचने लगे । यह बच्चन जी की बड़ी सफलता थी कि उन्होंने आम लोगों को भी कविता और साहित्य से जोड़ दिया। बच्चन जी बहुत आधुनिक विचारों के धनी थे ।अपने वक्त से सौ साल आगे । यही कारण है कि उनके बेटे अमिताभ फिल्मों में आ सके जबकि अमिताभ बहुत पढ़े लिखे और एक्जीक्यूटिव थे लेकिन जॉब छोड़कर फिल्मों में आने का निर्णय वो भी साठ के दशक में बहुत दूरदर्शी और समय से पहले का निर्णय था । तब बच्चन जी ने न केवल इस निर्णय का स्वागत किया बल्कि अमिताभ की मदद के लिए मुंबई भी आए और अपने फिल्मी मित्रों से अमिताभ को मिलवाया भी। तब फिल्म इंडस्टी में भी बच्चन जी को जानने और चाहने वाले बहुत लोग थे।अमिताभ को उनका बेटा होने का निश्चित रूप से फायदा हुआ । उन्हें फिल्में मिलने में भी आसानी हुई और दर्शकों तक पहुंचने में भी। बाद में अमिताभ इतने बड़े स्टार बने कि बच्चन जी खुद अमिताभ के कारण जाने गए लेकिन बच्चन जी की परवरिश का ही नतीजा था कि अमिताभ इतने सफल हुए। अमिताभ के संस्कार उनकी सबसे बड़ी ताकत है जो उनको अन्य हीरोज से अलग बनाती है। बच्चन जी ने दोनों बच्चों को उस वक्त के सबसे बड़े स्कूल शेरवुड नैनीताल में पढ़ाया जहां आज भी पहुंचना आसान नहीं है। शेरवुड की शिक्षा ने अमिताभ को अभिजात्य वर्ग में आसानी से शामिल कराया। शेरवुड में पढ़ाने का निर्णय बच्चन जी की दूरदर्शिता और महत्वाकांक्षा को दर्शाता है । वे जानते थे कि अच्छी शिक्षा का महत्व क्या है। खुद बच्चन जी भी बहुत एजुकेटेड थे,ऑक्सफोर्ड में पढ़े थे इसलिए उन्हें पूरब और पश्चिम दोनों सभ्यताओं की पहचान थी । संस्कारों के मामले में बच्चन जी पूरे भारतीय थे तो व्यावसायिकता के मामले में अंग्रेज। बच्चन जी बहुत मेहनती थे,काम को पूरा किए बिना विश्राम नहीं करते थे,यही गुण अमिताभ में भी देखा जा सकता है। बच्चन जी असल में जो लिखते थे वैसा ही उनका जीवन भी था । वे आदर्श की सिर्फ बातें नहीं करते थे बल्कि खुद भी अमल करते थे इसीलिए उनके पास मानव जीवन की हर समस्या का समाधान भी होता था इसका जिक्र अमिताभ ने कई बार किया है अमिताभ अपने भाषणों में अक्सर बच्चन जी का एक वाक्य दोहराया करते हैं *मन का हो तो अच्छा न हो तो और भी अच्छा* , अब तो यह वाक्य देश के हर घर में पहुंच चुका है। उनका साहित्य आज भी उतना ही प्रेरक है जितना पहले था, अमिताभ तो खुद भी कहते हैं कि जब भी मैं किसी दुविधा में होता हूं तो बाबूजी की किताबें पढ़ने बैठ जाता हूं फिर मुझे समाधान भी मिल जाता है और शांति भी।बच्चन जी का साहित्य है भी ऐसा ही इसीलिए आज भी बच्चन जी उतने ही प्रासंगिक हैं। आज बच्चन जी का एक सौ पच्चीसवां जन्मदिन है । आज वे हमारे बीच नहीं है लेकिन कोई भी साहित्यकार अपने साहित्य के कारण सदैव मौजूद होता । यही कारण है कि आज सवा सौ साल बाद भी बच्चन जी उतने ही तरोताजा हैं,आज भी कहीं न कहीं उनकी रचनाओं का जिक्र जरूर होता है।उनकी रचनाओं में ताकत और गहराई बहुत है क्योंकि वे अथाह संघर्ष और त्याग का परिणाम है,,उन्होंने खुद लिखा भी है
*कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला* और हम भी यही चाहते हैं कि यह मधुशाला हमेशा खड़ी रहे और दुनिया को प्रेरित करती रहे,उन्ही के शब्दों में उनको श्रद्धांजलि *बनें रहें यह पीने वाले बनी रहे यह मधुशाला*।

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(डॉ. मुकेश “कबीर”-विनायक फीचर्स)

(लेखक गीतकार हैं।)

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