पाताल लोक से लौटकर दुर्लभ स्टोरी : भगवान शिव का ऐसा रहस्य लोक सिर्फ और सिर्फ कुमाऊँ की धरती में, वेद व्यास जी ने बताया है ये है भूमण्डल का सर्वप्रधान पवित्र तीर्थ

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भारतवर्ष के पवित्रतम तीर्थोंं में एक पाताल भुवनेश्वर भगवान श्री भुवनेश्वर की महिमा एवं अलौकिक गाथा का साकार स्वरूप है। देवभूमि उत्तराखण्ड के गंगोलीहाट स्थित श्री महाकाली दरबार से लगभग ११ किमी. दूर भगवान भुवनेश्वर की यह गुफा वास्तव में अद्भुत, चमत्कारी एवं अलौकिक है। यह पवित्र गुफा जहां अपने आप में सदियों का इतिहास समेटे हुए है, वहीं अनेकानेक रहस्यों से भरपूर है। इस गुफा को पाताल लोक का मार्ग भी कहा जाता है। सच्ची श्रद्वा व प्रेम से इसके दर्शन करने मात्र से ही हजारों-हजार यज्ञों तथा अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त हो जाता है और विधिवत पूजन करने से अश्वमेघ यज्ञ से दस हजार गुना अधिक फल प्राप्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त पाताल भुवनेश्वर का स्मरण और स्पर्श करने से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। यही कारण है कि तैतीस कोटि देवता भगवन भुवनेश्वर की अखण्ड उपासना हेतु यहां निवास करते हैं तथा यक्ष, गंधर्व, ऋषि-मुनि, अपसराएं, दानव व नाग आदि सभी सतत पूजा में तत्पर रहते हैं तथा भगवान भुवनेश्वर की कृपा करते हैं।

स्कन्ध पुराण के मानस खण्ड में भगवान श्री वेदव्यास ने इस पवित्र स्थल की अलौकिक महिमा का बखान करते हुए कहा है- भुवनेश्वर का नामोच्चार करते ही मनुष्य सभी पापों के अपराध से मुक्त हो जाता है तथा अनजाने में ही अपने इक्कीस कुलों का उद्धार कर लेता है। इतना ही नहीं अपने तीन कुलों सहित शिवलोक को प्राप्त करता है। इसे सृष्टि की अद्भुत कृति बताते हुए श्री वेदव्यास आगे कहते हैं कि इस पवित्र गुफा की महिमा और रहस्य का वर्णन करने में ऋषि-मुनि तपस्वी तो क्या देवता भी स्वयं को असमर्थ पाते हैं। ब्रह्माण्ड के समान ही यह गुफा भी अनन्त रहस्यों से सम्पूर्ण है।

पाताल भुवनेश्वर को बाल भुवनेश्वर भी कहा जाता है। कहा जाता है कि भगवान शिव ने यहां बाल रूप में प्राणी मात्र के कल्याण हेतु सहस्त्रों वर्षों तक तप किया था। पाताल भुवनेश्वर गुफा से लगभग २०० मी. पहले भगवान वृद्व भुवनेश्वर का प्राचीन मंदिर भी अवस्थित है जो अपने आप में हजारों हजार सदियों का इतिहास, धर्म एवं सनातन संस्कृति के साथ ही दिव्य कलाओं को समेटे हुए है। बाल भुवनेश्वर के दर्शन से पूर्व बृद्व भुवनेश्वर के दर्शन जरूरी माने जाते हैं।

गुफा के भीतर प्रवेश करते ही सर्वप्रथम नृसिंह भगवान की मूर्ति के दर्शन होते हैं। ८२ सीढयां उतरकर जंजीरों के सहारे ९० फुट नीचे प्रथम तल में पहुंचा जाता है और एक अद्भुत किन्तु सुखद आभास होने लगता है। जहां-जहां दृष्टि जाती है वहीं कोई न कोई दिव्य मूर्ति, कलाकृति के दर्शन होने लगते हैं। ऐसा लगता है मानो सृष्टि नियंता भगवान ब्रह्मा जी ने किसी विशेष कल्याणकारी प्रयोजन हेतु यहां एक अलौकिक सृष्टि रची हुई है। अष्ट धातुनुमा विचित्र चट्टानों पर उकेरी गई आकर्षक एवं जीवन्त कलाकृतियां धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, शक्ति, भक्ति, आध्यात्म, संस्कृति, इतिहास तथा सनातन मर्यादा का प्रतिनिधित्व करती प्रतीत होती हैं।
कहा जाता है कि इस गुफा से पाताल नीचे की ओर कुल सात तल यानि लोक स्थित है, परन्तु दर्शन-पूजन, यज्ञ-हवन इत्यादि के लिए प्रथम तल के बाद नीचे उतरने की अनुमति नहीं

प्रथम दृष्टि में तो यह सुरक्षा कारण ही माना जाता है किन्तु धार्मिक मान्यताओं के अनुसार कठिन भक्ति, जप-तप, अनुष्ठान इत्यादि से भुवनेश्वर की विशेष कृपा प्राप्त सिद्व-योगी को ही ऐसा सौभाग्य मिलता है।

आदि जगद्गुरू शंकराचार्य ने गंगोलीहाट स्थित महाकाली दरबार के दर्शन के पश्चात जब यहां आकर भगवन भुवनेश के दर्शन किये तो स्वयं को धन्य कहा। इस गुफा के प्रथम तल में विचरण करते हुए जगद्गुरू ने अखिल ब्रह्माण्ड में विद्यमान देवी-देवताओं, भूमण्डल के सभी पवित्र तीर्थों, देवगणों तथा क्षेत्रपालों को एक साथ भुवनेश्वर के चरणों में ध्यानस्थ देखकर कहा कि इस महानतम तथा श्रेष्ठतम तीर्थ के दर्शन जन्म जन्मान्तरों के पुण्य कर्मों के बाद भी दुर्लभ हैं। शंकराचार्य को भगवान भुवनेश के दर्शन महाकाली की प्रेरणा तथा कृपा से ही संभव हो पाये थे। यहां श्री भुवनेश्वर तथा सभी देवी-देवताओं की विधिवत पूजा-अर्चना के पश्चात अंततः इस परम शक्ति को कीलित किया। साथ ही लोक कल्याण की दृष्टि से भगवान भुवनेश्वर की पूजा करने-कराने का दायित्व समीपवर्ती गांव के निवासियसों को सौंप गये।

गुफा के प्रथम तल में सर्वप्रथम शेषनाग के विशाल फन तथा उसके विषकुण्ड के दर्शन होते हैं। यहां शेषनाग क्षेत्रपाल के रूप में विराजमान हैं। ऐसा माना जाता है कि क्षेत्रपाल की अनुमति बिना भगवान भुवनेश के दर्शन के संभव नहीं हैं। स्कंद पुराण के मानस खण्ड में एक कथा प्रसंग के अनुसार राजा परीक्षित के पुत्र जन्मेजय ने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए इसी स्थान पर एक अद्भुत यज्ञ किया था।

कथा के अनुसार एक बार राजा परीक्षित ने प्रहसन भाव में श्रृंगी ऋषि के गले में मरा हुआ सांप डाल दिया। इस पर ऋषि पुत्र उलंग को बहुत क्रोध आ गया और उन्होंने राजा को सांप के डंसने से मृत्यु का श्राप दे दिया। अपने बचाव के लिए तब राजा ने एक विचित्र यज्ञ का आयोजन कर डाला और सम्पूर्ण भूतल व पाताल में मौजूद सांपों-नागों का हवन कर दिया। परन्तु तक्षत नाग देवराज इन्द्र के आसन के नीचे छुप गया। इन्द्र का यज्ञ चल रहा था, परीक्षित को भी निमंत्रण था। वहां तक्षत नाग ने राजा परीक्षित को डस कर उनके प्राण हर लिये। घटना के सात दिन बाद कलयुग आरंभ हुआ, फिर परीक्षित की मृत्यु हुई। शेषनाग की रीड की हड्डियां यहीं से समूची पृथ्वी के भीतर फैली बतायी जाती हैं।

कुछ कदम आगे चलकर भगवान आदि गणेश की सिर विहीन मूर्ति दृष्टिगोचर होती है। मूर्ति के ठीक ऊपर १०८ पंखुडयों वाला शवाष्टक दल ब्रह्मकमल सुशोभित है। जहां से दिव्य जल की बूंदें टपकती हैं। मुख्य बूंद तो श्री गणेश के गले में पहुंचती है जबकि पंखुडयों से बाजू में टपकती है। पूर्व में यही जल अमृत हुआ करता था। थोडा आगे चलकर भगवान केदारनाथ भैंसे के पादपृष्ठ रूप में अवस्थित हैं। उनके बगल में ही बद्रीनाथ जी विराजमान हैं। ठीक सामने बद्री पंचायत बैठी है जिसमें यम-कुबेर, वरुण, लक्ष्मी, गणेश तथा गरुड महाराज शोभायमान हैं। बद्री पंचायत के ऊपरी तरफ बर्फानी बाबा

अमरनाथ की गुफा है तथा पत्थर की बडी-बडी जटाएं फैली हुई हैं। यहां आगे बढते ही काल भैरव की जीभ के दर्शन होते हैं। ऐसा माना जाता है कि जो भी मनुष्य काल भैरव के मुंह से गर्भ में प्रवेश कर पूंछ तक पहुंच जाये तो उसे अवश्यमेव मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। इसी के समीप त्रिदेव ब्रह्मा-विष्णु-महेश तथा महेश्वर सुशोभित हैं। उनके बगल में भगवान शंकर की झोली यानी भिक्षा पात्र तथा बाघम्बर छाला के दर्शन होते हैं।*
*यहां से चन्द कदम आगे बढते ही धर्म द्वार के पास पाताल चद्रिका विराजमान है जो पाताल देवी तथा पाताल भुवनेश्वरी के रूप में पूजित एवं प्रतिष्ठित है।

माँ भुवनेश्वरी के बगले में शेर का मुंह अलंकृत है। बाईं तरफ मुडकर देखने पर मोक्ष, धर्म, पाप तथा रणचार द्वार आते हैं।पौराणिक मान्यतानुसार रण द्वार द्वापर युग में बंद हो गया जबकि पाप द्वार त्रेता युग में। कलयुग के अन्तिम चरण में धर्म का द्वार बंद रहता है तथा मोक्ष का द्वार सतयुग में बन्द रहता है। पौराणिक कथाओं में इनका विस्तार से वर्णन आता है।
चार द्वारों के साथ ही द्वापर युग का प्रतिरूप पारिजात वृक्ष सुशोभित है। इसेदेखने से ऐसा जान पडता है मानो सम्पूर्ण भूमण्डल का भार इसने अपनी मजबूत शाखाओं में उठा रखा हो। जनश्रुति के मुताबिक वर्तमान में परिजात का एकमात्र वृक्ष बाराबंकी जनपद के रामनगर तालाब के किनारे देखा जा सकता है। भूण्डल में और कहीं भी यह पवित्र वृक्ष नहीं है।

पौराणिक प्रसंग के अनुसार योगीराज भगवान श्रीकृष्ण स्वर्गलोक स्थित अमरावती से इस वृक्ष को लोक कल्याण के निमित्त पृथ्वी पर लाये थे। द्वापर काल में यही वृक्ष तब कल्पवृक्ष के नाम से जाना जाता था जबकि कलयुग में यह पारिजात वृक्ष के रूप में पूजित एवं अभिसेवित है। कहा जाता है कि इस वृक्ष पर प्रति दिन रात्रिकाल में श्वेत वर्ण का सिर्फ एक पुष्प खिलता है जो प्रातः अरुणोदय से पूर्व झड जाता है। जिस किसी को यह फूल मिल जाता है उसके सभी रोग-शोक, कष्ट-क्लेश मिट जाते हैं और सांसारिक मायाचक्र से धीरे-धीरे बाहर निकल मुक्ति मार्ग पर चलने का अधिकारी हो जाता है

इस चमत्कारिक गुफा के स्वरूप तथा रहस्य को शब्दों में समेटना सहज नहीं है। फिर भी धर्म प्रेमी जिज्ञासु इसके भीतर अंकित तथा चित्रित देवाकृत्रियों के दर्शन कर समय-समय पर अपनी समझ एवं सामर्थ्य के अनुसार इसके अलौकिक रहस्य को लोक कल्याणार्थ शब्द देने का प्रयास करते आ रहे हैं। पाताल भुवनेश्वर गुफा से ही वृंदावन स्थित कदलीवन के लिए मार्ग जाता है। कदलीवन यानी केले के पेडों से पुष्पित, पल्लवित तथा सुशोभित एक ऐसाविलक्षण वन जो भगवान सत्यनारायण की माया से निर्मित बताया जाता है। भूतल पर हयी एकमात्र ऐसा स्थान है जो श्री हनुमान जी को सर्वाधिक प्रिय है। इसको लेकर पौराणिक कथाओं में अनेक रोचक व ज्ञानवर्धक प्रसंग मिलते हैं। एक कथा प्रसंग के अनुसार एक बार युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर भीम कदली वन में ब्रह्मकमल तोडने निकले। कहते हैं कि भीम को अपने बल पर गर्व होने लगा था। हनुमान जी चूंकि भीम से अत्यधिक स्नेह रखते थे, उन्हें लगा कि भीम का यही गर्व उसके पतन का कारण बन जायेगा। इसलिए अहंकार के दलदल से उनको बचाना होगा, इसी भाव को लेकर हनुमान जी भीम के रास्ते में पूंछ फैलाकर लेट गये। भीम ने हनुमान जी से पूंछ हटाने तथा रास्ता देने का अनुरोध किया तो हनुमान जी ने कहा पूंछ हटा लो और निकल जाओ। भीम पूंछ हटाने लगे किन्तु सम्पूर्ण शक्ति लगाने के बाद भी वे उसे हिला तक न सके। भीम का सारा गर्व चूर-चूर हो गया। हनुमान जी उठे, सस्नेह भीम को गले लगाकर बोले, ’’मैं सदैव तुम्हारा कल्याण चाहता हूं।

महान ऋषियों की तपस्थली भी इसी पवित्र गुफा में है। कन्दरायें बनी हुई हैं। भृंगु ऋषि, दुर्वाशा ऋषि, मार्केण्डेय ऋषि तथा विश्वकर्मा आदि ऋषियों ने यहीं तपस्या की थी। कामधेनु गाय का थन भी यहीं सुन्दर शिला खण्ड में बना हुआ है जहां से जल की बूदें एक निश्चित समयान्तराल में झरती रहती हैं। बताया जाता है कि पूर्व काल में यहांदूध की धारा सतत प्रवाहित रहती थी, जो ठीक नीचे ब्रह्मा जी के पांचवें सिर पर गिरती थी, अब वर्तमान में जल से ही इस पंचानन का अभिषेक होता है।

पौराणिक कथानुसार पांच मुख वाले सृष्टि नियंता ब्रह्मा जी क पहला सिर बद्रीनाथ धाम में है, दूसरा सिर गया में, तीसरा पुष्कर राज में, चौथा सिर जम्मू-कश्मीर प्रांत के रघुनाथ मंदिर में है तथा पांचवां सिर यहां पाताल भुवनेश्वर में है। सम्पूर्ण भूमण्डल में ब्रह्मा जी का एकमात्र मंदिर राजस्थान प्रांत के पुष्कर में स्थित है। लेकिन उनकी पूजा का विधान कहीं भी नहीं है।

ब्रह्मा जी के इन पांचों स्थानों पर पितरों का श्राद्घकर्म/तर्पण करना बहुत महत्व रखता है। पितृ पक्ष से संबंधित श्राद्ध कर्म बद्रीनाथ धाम में, मातृ पक्ष से सम्बन्धित श्राद्व कर्म पवित्र गया धाम में, भातृ पक्ष वाले कर्म पुष्कर में तथा ननिहाल पक्ष वाले श्री रघुनाथ मंदिर धाम में करना श्रेष्ठकर माना जाता है। जबकि पाताल भुवनेश्वर में सभी पक्षों से संबंधित श्राद्घकर्म तथा तर्पण आदि किये जाते हैं व चमत्कारिक फलदायी माने जाते हैं। यहां छूटे हुए श्राद्घ उठाये भी जाते हैं। अमावस्या के मौके पर तर्पण विशेष महत्व रखता है। यदि ब्राह्मण न हो तो पुजारी से भी उक्त कर्म करा लिये जाते हैं।

चमत्कारिक सप्त जल कुण्ड भी इसी गुफा में अवस्थित है। छह कुण्ड तो बंद यानी ढकेहुए हैं जबकि सातवां खुला है। सभी कुण्डों का जल इस सातवें कुण्ड में ही रिस कर आता है। इसे उदक कुण्ड अमृत कुण्ड भी कहते हैं। पौराणिक प्रसंग में आता है कि एक बार शेषनाग सातवें कुण्ड से अमृत युक्त जल ग्रहण कर रहे थे कि भगवान शिव ने हंस से अमृत अलग करने को कहा। अमृत रस की सुगन्ध पाकर हंस को लालच आ गया और स्वयं पीने लगा। भगवान शिव समझ गये और आज्ञा उल्लंघन करने पर श्राप दे दिया। हंस का मह टेढा हो गया। गुफा के भीतर सप्त कुण्ड के पास टेढे मुंह वाला हंस भी विशाल आकृति में देखा जा सकता है।

भगवान शिव की विशाल जटा, जिसमें समूची गंगा समा गयी थी, इसी गुफा में है। जटाओं के बगल से गंगा का मनोहारी प्रवाह है जिसमें तैंतीस करोड देवी-देवता स्नान करते हुए देखे जाते हैं। उनके बीचोंबीच में नर्मदेश्वर महादेव लिंग रूप में विराजमान हैं। इस चमत्कारिक लिंग में चाहे जितना जल गिराओ, जल को लिंग पूरी तरह सोख लेता है।

लिंगाकार नर्मदेश्वर महादेव के ठीक सामने थोडा निचली ओर भगवान विश्वकर्मा द्वारा निर्मित २*२ फिट का ढाई फिट गहरा जल कुण्ड है। पास में ही नन्दी विराजमान हैं। जल जटाओं से ही रिस कर आता है। शिव जटाओं के समीप ही राजा भगीरथ तप कर रहे हैं तथा पास में ही विशाल आकाश गंगा है जिसमें कोटि-कोटि तारावलियां सुशोभित हैं। गुफा के भीतर ढलान में कुछ कदम नीचे की ओर चलने के बाद भगवान भुवनेश्वर की विराट आदि शिव शक्ति के दर्शन होते हैं। कहा जाता है कि यहां शिव शक्ति के दर्शन से मनुष्य जन्म जन्मान्तरों के पाप कर्मों से छुटकारा पा लेता है तथा भुवनेश्वर की कृपा से मोक्ष का अधिकारी बन जाता है। यहां प्रातःकाल तथा सायंकाल नित्य पूजा विधान है। जो आदि जगत गुरू शंकराचार्य के द्वारा निर्मित व्यवस्था का ही स्वरूप है। कहा जाता है कि जब भगवती महाकाली की महान प्रेरणा से शंकराचार्य ने पाताल भुवनेश्वर के दर्शन किये तो विधिवत पूजन-वन्दन के पश्चात उन्होंने यहां शिवशक्ति को कीलित किया। ऐतिहासिक प्रमाणों के मुताबिक सन् ८२२ में शंकराचार्य ने शिव शक्ति को कीलित कर नित्य पूजा का विधान किया था और समीपवर्ती भण्डारी गांव के लोगों को पूजा का अधिकार दिया था। तब से यहां परम्परा निर्बाध रूप से चली आ रही है। जिस स्थान पर शिव शक्ति स्थित है, वहीं ब्रह्मा-विष्णु-महेश एक साथ विराजमान हैं। तीनों देवों के ठीक ऊपर एक जटा है जिसके तीन मुख हैं। शिव तथा विष्णु के ऊपर बारी-बारी से जल की बूंदें लगातार टपकती हैं। जबकि ब्रह्मा के ऊपर जल की बूदें नहीं गिरतीं। माना जाता है कि यहां दर्शन करने से तैंतीस कोटि देवताओं की पूजा तथा चारों पवित्र धामों की यात्रा का फल प्राप्त हो जाता है। इसके अलावा यहां अमृत डला जल का स्पर्श करने मात्र से गंगा-यमुना-नर्मदासरीखी पवित्र नदियों में स्नान का फल प्राप्त हो जाता है।

भगवान शिव की माया नगरी काशी तथा प्रसिद्व तीर्थ नगरी बनारस के लिए भी इसी गुफा से मार्ग जाता है। मोटेश्वर महादेव भी लिंग रूप में यहीं विराजमान हैं। पास म ही इनकी जटायें फैली हुई हैं। लिंग के ऊपरी भाग के समीप ही पांचों पाण्डव मूर्ति रूप में बैठे हुए हैं। उनके समीप ही देवी उमा के साथ शिव शोभायमान हैं। मां पार्वती की गोद में सिद्व विनायक श्री गणेश जी बैठे हुए हैं। कहा जाता है कि पाण्डवों की चौपड खेलने को कुछ ज्यादा ही शौक था। यही शौक अन्ततः पाण्डवों के भव्य राजपाट जाने का कारण बना। पौराणिक कथाओं के अनुसार आखिरी समय में पाण्डवों ने भगवान शिव के साथ चौपड खेलने की इच्छा रखी। भगवान शिव ने उनकी इस इच्छा का सम्मान करते हुए पाताल भुवनेश्वर गुफा में इसी स्थल पर चौपड लीला रची। तत्पश्चात पाण्डवों ने यहीं से स्वर्गारोहण किया। इस अद्भुत दृश्य को देख बडे-बडे ऋषि-मुनि, त्यागी-तपस्वी धन्य हुए।

चार युग भी लिंग रूप में इसी गुफा में अवस्थित हैं। आकार की दृष्टि से वर्तमान में कलयुग बडा तथा प्रभावी प्रतीत होता है। जबकि सतयुग उसके सामने लाचार तथा बौना लगता है। चारों युगों के ऊपर ब्रह्माण्ड निर्मित है जिसका एक सिरा लिंग रूप कलियुग के ठीक ऊपर से नीचे की ओर है। लोक मान्यतानुसार लिंगरूप कलियग वर्ष दर वर्ष ऊपर की तरफ बढरहा है तथा ब्रह्माण्ड का वह सिरा नीचे की ओर। जिस दिन यह सिरा कलियुग से छू जायेगा, उसी दिन महाप्रलय के बाद नई सृष्टि की रचना आरंभ हो जायेगी। ब्रह्माण्ड के समीप ही पंचवटी सुशोभित है। सेतुबंध रामेश्वरम के लिए मार्ग इसी स्थान से जाता है।

विराट शिव शक्ति के वृत्ताकार दाहिनी तरफ चलते हुए इसी क्रम में आगे चलकर भगवान भोलेनाथ के दिव्य कमण्डल के दर्शन होते हैं जो सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है। दिव्य कमण्डल के पास ही एक शिलाखण्ड में एक सुराख है जिससे दूसरी तरफ का दृश्य देखा जा सकता है। ऐसी मान्यता है कि जो भी व्यक्ति पंच धातु अथवा अष्ट धातु से निर्मित सिक्के या टुकडे को एक बार के प्रयास से उछाल कर इस सुराख या छिद्र के उस पार कर देते हैं उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं तथा वे सदा के लिए भगवान शिव की कृपा के भागी बन जाते हैं। जो भी श्रद्बालु यहां आते हैं वे भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने के उद्देश्य से अष्टधातु के सिक्के से इस दिव्य छिद्र पर निशाना साधने का प्रयास करते देखे जाते हैं। इसी के समीप देवराज इन्द्र के एरावत हाथी के बडे-बडे अनेक पांव दिखाई देते हैं। कहते हैं कि गुफा के भीतर हाथी के एक हजार पांव तथा सात सूंडें हैं। एरावत हाथी के दाहिनी ओर गुफा के भीतर छोटी गुफा में सरस्वती की सफेद धार दिखाई देती है। कहते हैं कि सरस्वती गंगा तो अब लोप हो चुकी है, हांसफेद सूखी धारा प्रवाहित होती प्रतीत होती है। उसी के बगल में भगवान भैरवनाथ मंदिर के लिए भी रास्ता है जो भुवनेश्वर गुफा के मुख्य गेट के दाहिनी तरफ स्थित है।

इस रहस्यमयी गुफा के भीतर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रहों, नक्षत्रों, तारावलियों, विभिन्न लोकों तथा भुवनों के चित्र अंकित हैं। सभी देवी-देवता दैवीय शक्ति प्रतीक रूप में विराजमान हैं। एक स्थान से चार बडी-बडी गुफाएं विभिन्न दिशाओं को जाती हैं। इनकी लम्बाई-चौडाई की कोई निश्चित जानकारी तो नहीं है लेकिन बताया जाता है कि एक गुफा मार्ग बद्रीनाथ धाम के लिए जाता है, दूसरा रामेश्वरम के लिए, तीसरा बद्रीनाथ धाम के लिए तथा चौथा मार्ग जागेश्वर धाम को जाता है। यद्यपि इन गुफा मार्गों पर कुछ कदम भी आगे जाने का साहस आज तक कोई नहीं कर पाया, परन्तु यहां पहुंचने वाले श्रद्घालुओं में इनके रहस्य के बारे में जानने की उत्सुकता देखी जाती है।

गुफा के प्रथम तल में उतरते ही थोडा आगे चलकर ठीक सामने लगभग तीन मीटर ऊंची चट्टान है। उस पर चढना कोई सहज काम नहीं है। इस पर चढने के बाद एक विशाल गुफा निकलती है। इस अंधेरी गुफा में कई बार अनेक मीडिया कर्मी, खोजी पत्रकार जान जोखिम में डाल कर गुफा में आगे बढने की असफल कोशिश कर चुके हैं। कोई भी गुफा मार्ग में १०-२० कदम से आगे बढने का साहस नहींकर सका।

हालांकि पुरातत्व विभाग के दिशा निर्देशों के अनुपालन में मंदिर समिति पूरी तरह सतर्क रह कर अपने दायित्वों का निर्वहन करती है। इस तरह श्रद्वालुओं केा किसी भी देव आकृति, मूर्ति इत्यादि के साथ छेडछाड की अनुमति नहीं दी जाती है। कुछ वर्ष पूर्व तक पाताल भुवनेश्वर गुफा के भीतर प्रकाश की व्यवस्था नहीं थी जिससे दर्शनार्थियों को अनेक कठिनाइयों से गुजरना पडता था। हाल के कुछ वर्षों से यहां चमकदार मरकरी युक्त विद्युत ट्यूबें लगा दी गयी हैं जिससे अब गुफा के दर्शन करने, पूजन-हवन इत्यादि कर्म करने-कराने में काफी आसानी हो गयी है। यदि इस गुफा में चित्रित-अंकित सभी देव-आकृतियां को ठीक से देखा जाये तथा प्रथम तल को भलीभांति दर्शना करना हो तो दो से तीन घंटे का समय लग जाता है। यह कार्य मंदिर समिति से सम्बन्धित गाइडों की सहायता से सम्पन्न होता है।

कुल मिलाकर इस भूमण्डल में न जाने कैसे-कैसे रहस्य तथा चमत्कार हो सकते हैं परन्तु पाताल भुवनेश्वर गुफा का रहस्य अपने आप में अद्भुत है। इसके भीतर अंकित-निर्मित शिलाखण्डों में विराजमान तथा सुशोभितआकृतियों के साथ कोई न कोई पौराणिक गाथा जुडी हुई है। स्कन्द पुराण के मानस खण्ड में इनका विस्तृत वर्णन मिल जाता है। धार्मिक पर्यटन की असीम संभावनाएं समेटे इस अलौकिक गुफा के विकास की ओर यदि ठीक से ध्यान दिया जाये ता राजस्व की दृष्टि से इसका बहुत बडा योगदान हो सकता है। साथ ही स्थानीय स्तर पर रोजगार के द्वार खुल सकते हैं।

वृद्व भुवनेश्वर एक अलौकिक शक्ति

श्री पाताल भुवनेश्वर की ही भांति वृद्व भुवनेश्वर की महिमा भी अलौकिक है। गुफा में विराजमान बाल भुवनेश्वर के दर्शन से पूर्व वृद्व भुवनेश्वर के दर्शन जरूर करने होते हैं तभी इस तीर्थराज के दर्शन फलदायी होते हैं।

श्री पाताल भुवनेश्वर गुफा से लगभग २०० मीटर पहले बांई तरफ वृद्व जागेश्वर के प्राचीन मंदिर समूह स्थित हैं। यहां पर प्रातःकाल तथा सायंकाल दोनेां समय नित्य पूजा का विधान है। यहां का संचालन भी श्री पाताल भुवनेश्वर मंदिर समिति द्वारा ही किया जाता है। प्राचीन काल से ही यहां ऋषि-मुनि, योगी, तपस्वी तथा राजे-महाराजे जय-तप-यज्ञ इत्यादि करते रहे हैं। पुराणों में भगवान वेद-व्यास ने स्पष्ट किया है कि मुक्ति पानेतथा परम धाम के अभिलाषी श्रद्वालुओं को वृद्व भुवनेश्वर तथा बाल भुवनेश्वर के दर्शन अवश्य करने चाहिए।
यहां के प्राीचन मंदिर भी श्री जागेश्वर धाम में निर्मित मंदिरों की शैली में बने हुए हैं। आदि जगद्गुरू शंकराचार्य अपने भारत-भ्रमण के दौरान काशी से अपने साथ पुजारियों को लाये थे। तब से आज तक आदि गुरू द्वारा स्थापित व्यवस्था के अनुरूप भंडारी उपजाति के पुजारी यहां पूजा कर्म करते हैं।

हिन्दू देवी-देवताओं की अलग-अलग धातुओं से निर्मित प्राचीन मूर्तियां यहां बडी संख्या में देखी जाती हैं। इन अद्भुत एवं अनमोल देव प्रतिमाओं के उचित रखरखाव तथा सुरक्षा की दृष्टि से वर्ष १९८८ में सरकार ने इन्हें धरोहर घोषित कर अपने नियंत्रण में ले लिया। पुरातत्व विभाग को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गयी है। इसी विभाग ने यहां एक संग्रहालय का निर्माण किया है जहां श्रद्वालुओं के दर्शनार्थ मूर्तियां, प्रतिमाएं, अवशेष इत्यादि सुरक्षित रखे गये हैं।

भगवान शिव भुवनेश्वर के मंदिर में नित्य पूजा एवं भोग का विधान है।////@ रमाकान्त पन्त////

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