पुस्तक समीक्षा : अध्यात्म और यथार्थ का संगम है जलनाद का अंतर्नाद

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(डॉ.दुर्गा सिन्हा”उदार”-विनायक फीचर्स)
सागर की उत्ताल तरंगों से सुशोभित आकर्षक आवरण मुखपृष्ठ अंतर्मन के कोलाहल का आस्वाद करा रहा है। बहुत ही खूबसूरत रंग संयोजन है। पुस्तक का आवरण पृष्ठ महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है,पाठकों को आकर्षित करने में। पढ़ने का मन सभी का हुआ होगा। जो भी देखेगा ज़रूर पढ़ेगा। बहुत-बहुत बधाई । शीर्षक भी स्वतः उद्घोष कर रहा है कि ‘तृतीय युद्ध की पृष्ठभूमि मैं ही बनूँगा।’सारे वाद-विवाद , संवाद और नाद ,आज इसी के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं। “जलनाद” इसी स्वर से न जाने कितने मधुर संगीत उपजे हैं। जल जीवन का पर्याय है।जल अमृत है। जल की आवाज़ मधुर व जीवनदायिनी है। सभ्यता-संस्कृति का विकास भी जल के किनारे ही हुआ। जल धारा जीवन का संकेत करती है। ऊपर से शांत अंदर कितना कोलाहल समेटे हुए है ,यह तो अन्तर्मन में झांक कर ही अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। सागर के उस शोर को किसने सुना, किसने जानना चाहा। आवरण पृष्ठ अपनी ओर आकर्षित कर यही संकेत कर रहा है कि मेरी अहमियत को जानो -पहचानो , समझो और स्वीकारो। वर्तमान की स्थिति तो और भी संकट भरी है। जलसंकट का संकेत जीवन को आगाह कर रहा है। सचेत कर रहा है। आज हम सभी को इस स्वर को सुनने की आवश्यकता है।प्रकृति के इस अनमोल ख़ज़ाने को अपने लिए ही सुरक्षित व संरक्षित करने की ज़रूरत है। गंगा प्रदूषित,पूजा कैसे करें ? नल है ,पर पानी रहित,शो की वस्तु ,कब तक सँभालें ? किस राज्य ने कितना पानी दिया और क्यों नहीं दे रहा ? सरकार और सत्ता खतरे में। कारण केवल जल। जल है तो जीवन है। जल बिना जीवन ही ख़तरे में आ गया है।

बारह खण्डों में पौराणिक, ऐतिहासिक,सामाजिक, सांस्कृतिक व सभ्यता विकास से प्रारम्भ होती जल की ध्वनि ,संकट की घड़ी का संकेत करती अपनी अहमियत दर्शाती, अपनी कोलाहल पूर्ण ध्वनि से आगाह कर रही है। शिकायत के साथ संरक्षण, संवर्धन और संचयन के लिए गुहार भी लगा रही है।
सागर मंथन की घटना और प्राप्त होने वाले रत्नों के साथ विष का उल्लेख,विषाक्त होता परिवेश, समाज और इंसान ,सभी का बहुत सटीक चित्रण। प्रारम्भिक जल गीत भी जल का संदेश बखूबी स्पष्ट कर रहा है। जल का होना न होना, कम या अधिक होना, सभी कुछ प्रभाव डालता है। अभाव या कमी ,जीवन संकट उत्पन्न करता है तो जल की अधिकता विनाश का कारण बनती है। अति वृष्टि -अल्प वृष्टि दोनों ही नुक़सानदेह है। प्रकृति के प्रतिकूल सारे कार्य प्रत्यक्षतःउपयोगी भले ही हों किन्तु जल देवता को नाख़ुश कर मानव जाति का भला हुआ है ऐसा नहीं कहा जा सकता। बॉंध बना कर प्रवाह रोकना, नहर निकाल दिशा में परिवर्तन, जल से विद्युत उत्पादन , अंधाधुंध जल दोहन, मानव,विकास के नाम पर और स्वार्थ हित में न जाने कितने तरीके अपनाता रहा और अपना नुक़सान भी करता रहा, जो आने वाले दिनों में भयंकर परिणाम लाने की आगाही कर रहे हैं । पीने का शुद्ध जल बोतल में बंद होकर विषैला हो रहा है और जन मानस के लिए उपलब्धता में भी कमी आई है। जल स्तर दिनों दिन तेज़ी से गिरता जा रहा है। जल की शुद्धता जीवन के लिए ख़तरा बन गई है।
वर्तमान समय जल संरक्षण की माँग कर रहा है। इस दिशा में प्रत्येक व्यक्ति , समाज, राज्य और राष्ट्र को ध्यान देने की ज़रूरत है। इसी समस्या को ले कर विवेक जी ने नाटक के माध्यम से एक महत्वपूर्ण प्रश्न सबके सामने रखने व समाधान की दिशा बताने का प्रयास किया है। कोई भी साहित्य दृश्य-श्रव्य और पठनीय तीनों ही माद्दा रखता हो तो समाज में उसकी क़ीमत बढ़ जाती है। वह स्वतः संग्रहणीय बन जाता है। केवल पढ़ कर मन पर जितना असर पड़ता है उससे कई गुना ज़्यादा नाटक के माध्यम से मंच पर देख व सुन कर पड़ता है। शब्द, वाक्य,परिस्थितियाँ,वस्तुस्थिति का जीता जागता उदाहरण प्रस्तुत करती हैं, यही कारण है कि नाटकों का प्रभाव तेज़ी से मन पर पड़ता है और दीर्घकालिक रहता है।

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अध्यात्म से जोड़ते हुए, रामचरितमानस में तुलसी दास जी द्वारा पंचतत्वों से रचित मानव शरीर में जल का महत्व बताते हुए,महाभारत काल की घटनाओं का समावेश ,साथ ही ऐतिहासिक घटनाओं का समुचित उल्लेख कर सभी अंकों का चित्रांकन विलक्षण है। अध्यात्म और विज्ञान का अद्भुत संगम है यह नाटक। रिफ़्रैक्शन , परावर्तन ,इंद्रधनुष के रंग , रंगों के चित्रण हेतु नृत्यात्मक प्रस्तुति की परिकल्पना सभी कुछ विवेक जी की विवेकशीलता का परिचय दे रहे हैं। जीवन के प्रारम्भ का अद्भुत दृश्य । कामायनी का प्रसंग , कथन को सार्थकता प्रदान कर रहा है। वर्तमान को वर्षों पूर्व के गहरे अतीत से जोड़ना अपने आप में एक विलक्षण दृष्टि का परिचायक है।
समुद्र मंथन की पौराणिक गाथा को वैज्ञानिक मनोवैज्ञानिक आधार दे कर बड़ी ही कुशलता से प्रस्तुत किया है ताकि हर कोई इसे सहजता से स्वीकार कर ले। देवता-दानव , मोहिनी और विष्णु ,मानव के बाहर नहीं भीतर ही हैं। बहुत ख़ूब !
विवेक जी ने हर विषय पर अपनी पूरी पकड़ को सिद्ध कर दिया है। रोचक व ज्ञानवर्धक और संप्रेषण की सारी व्यवस्था ,विस्तार से बचा कर बहुत आसान बना दिया है नाटक को ,मंच पर प्रस्तुत करने के लिए। न तो अतीत के आस्था और विश्वास को मिटने दिया है न ही कपोल कल्पना कह कर नकारने का अवकाश दिया है , वरन् वैज्ञानिकता के आधार पर सिद्ध कर स्वीकार्य बना दिया है ताकि सब यथावत् अस्तित्व में रहे। श्लाघनीय प्रयास। अध्यात्म और विज्ञान का अद्भुत संयोग। कालिया नाग को नाथने का दृश्य जल प्रदूषण की विभीषिका का संकेत है। सँभलने की आवश्यकता है।
वाह ! नर्मदा व सोन नदी की पौराणिक गाथा को बड़ी ही वैज्ञानिकता से चित्रित किया है। वर्णन इतना प्रभावशाली है कि मंच पर दृश्य उभर कर सामने उपस्थित से जान पड़ते हैं। उद्गम अमरकंटक के बीहड़ों में। आज तो वहाँ भी वह नीरव प्राकृतिक सुन्दरता नहीं रह गई है। मनुष्य ने कृत्रिमता इतनी लाद दी है कि कुछ भी प्राकृतिक शेष नहीं रह गया है। कंकरीट के जंगल वहाँ भी उगने लगे हैं। वहाँ की नीरव शांति और मधुर ध्वनि, जल का मीठा राग ,कानों में रस नहीं घोलते। यही विकास है शायद , कि सब अब बनावटी हो जाए और आत्मीयता समाप्त हो जाए।
वरुण देवता के विश्राम में विघ्न,असमय , कुसमय का विधान और न मानने से होने वाले नुक़सान का बड़ा ही तर्कसंगत वर्णन । रोचक घटना द्वारा महत्वपूर्ण संदेश ।
मंचन आसान नहीं। विवेक जी की परिकल्पना भले ही आसान है।
हालाँकि पौराणिक घटनाओं को परस्पर जोड़ने का वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक आधार अपने आप में विवेक जी की अद्भुत प्रतिभा की ओर इंगित करता है। “महाभारत का युद्ध जल के अपव्यय के तहत ही हुआ। “
न इस तरह की अनोखी रचना होती, न उपहास होता,न ही दुर्योधन अपमान का बदला लेता। बहुत ख़ूब !आज कृत्रिम झरने दिखावे के लिए जल का दुरूपयोग करते हैं और पानी बोतलों में बंद हो कर बिकने पर मजबूर है। संकट युद्ध की विभीषिका का आगाह कर रहा है।
कुम्भ मेले का आयोजन प्राचीनतम परम्परा का निर्वाह , आक्रांताओं ने भी बदलने का साहस नहीं किया।जल की सामाजिक महत्ता को ही प्रतिपादित करते हैं ये कुम्भ के मेले । धार्मिक पर्यटन , राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान और अनवरत चल रहे कुम्भ मेलों की प्रासंगिकता एवं अनिवार्यता पर प्रकाश डाला है कि कैसे ये मानसिक व शारीरिक शुचिता के लिए ज़रूरी हैं। यहाँ प्रवचन, दीक्षा ग्रहण आयोजन आदि सम्पन्न होते हैं। आध्यात्मिक उन्नयन के आधार हैं ये सभी मेले और आध्यात्मिक टूरिज़्म के आयोजन ।
कालिदास के मेघदूत का उल्लेख, जल का मानवी करण,विलक्षण है। भारतीय परिकल्पना, कि “कण-कण में भगवान है।”जड़ भी चेतन है। पशु-पक्षी, नदियां,पत्थर भी पूजे जाते हैं। मेघों के द्वारा संदेसा भेजना, मेघों को संदेश वाहक बनाना , मेघों को सजीव समझना है। यही विशेषता है भारत की । विवेक जी ने चुनिंदा प्रसंगों के माध्यम से जल की महत्ता को शास्त्रीय नृत्य-संगीत द्वारा रोचक बना कर प्रस्तुत करने व संदेश देने का विलक्षण प्रयास किया है।
मांडू का जहाज़ महल ,वाटर हार्वेस्टिंग, पानी की बचत संरक्षण व संवर्धन के उपायों के ऐतिहासिक प्रबंधन की ओर संकेत करता है। पानी का अभाव न था फिर भी दुरुपयोग न था। व्यर्थ पानी बर्बाद नहीं करते थे। क्या पूर्वज भविष्य दृष्टा थे ? शायद हाँ। तभी तो पुराने महलों व पुरानी इमारतों में घर में ये सारी व्यवस्थाएँ उपलब्ध थीं।
आज हम जानते-बूझते , देखते और महसूस करते हुए भी समझ नहीं पा रहे हैं। कल कितना भयंकर होने वाला है अभी से पता चल रहा है। बोतलों में बंद महंगा पानी आगाह कर रहा है लेकिन हम फिर भी नहीं देखना चाहते ।
मांडू गई तो हूँ लेकिन तब जल संकट ऐसा न था कि महल को इस दृष्टि से भी देखने का प्रयास किया जाता । आज हर किसी को इस नज़रिए से देखना और अमल में लाने का विचार करना ज़रूरी बन गया है। इतिहास, भूगोल, समाज शास्त्र अध्यात्म और विज्ञान का अनूठा संगम है ” जलनाद ” । विवेक जी की परिकल्पना अद्भुत है और प्रस्तुति का स्वरूप अद्वितीय – अप्रतिम ।

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*नदी की मनोव्यथा*

नदी चीख कर कहती है मेरी दुर्दशा के ज़िम्मेदार मानव तुम ही हो और अब तुम ही मेरा उद्धार करोगे । नदियों ने हमें जल दिया,जीवन दिया, सभ्यता दी, संस्कृति दी, प्राण भरे,अब हमारी बारी है समझने की । अपने उत्तरदायित्व को समझें और निर्वाह करें। नदी स्वयं अपनी व्यथा – कथा , क्षति ,असमर्थता का प्रलाप कर रही है और अपनी सुरक्षा के लिए गुहार लगा रही है ,चेतावनी देते हुए। ‘सौ साल पहले हमें जल से प्यार था।’ जी हाँ हम खेल भी यही खेलते थे और गीत भी यही गाते थे ।”गोल-गोल रानी इत्ता-इत्ता पानी “ और “ मछली जल की रानी है ।” शायद यह भविष्य का संकेत था कि जब जल कम रह जाएगा या सिर से ऊपर हो जाएगा तो जीवन नहीं बच पाएगा।
गंगा जल और आब-ए-ज़मज़म और बपतिस्मा की ख़ासियत भी विवेक जी ने बखूबी याद रखे है। सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारी का गहराई से अध्ययन कर ,नाटक को सशक्त बनाने के लिए आवश्यकतानुसार बखूबी उपयोग किया है विवेक जी ने। जल मानव जीवन की औषधि है । प्राणी जगत के जीवन का आधार है तो हर धर्म में इसकी अहमियत और पवित्रता की चर्चा समान रूप से होनी ही है। धार्मिक आधार पर मौलवियों -पंडितों , गुरुजनों के माध्यम से सारगर्भित जानकारी देते हुए जल संचयन की ताकीद करता “ जलनाद “ नाटक, ।
जल तरंग ,जल वाद्य यंत्र जिसमें निर्धारित आकार के बर्तनों में निश्चित मात्रा में जल भर कर मधुर ध्वनि प्राप्त की जाती है। जल तरंग मात्र एक विशिष्ट वाद्य यंत्र नहीं,पंचतत्वों का संगम है। जिसमें जल तो है ही,कटोरी – भूमि,जल का तापमान अग्नि,वातावरण यानि आकाश और वायु ।पाँचों तत्व मिल कर निर्मित है। ऋग्वेद की ऋचाओं द्वारा व उनके भावार्थ को गीत के माध्यम से प्रस्तुत कर नाटक को एक महान ग्रंथ के रूप में ला खड़ा किया है,
विवेक जी ने । इसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई ।
वस्तुतः यह महज़ एक नाटक नहीं विलक्षण ग्रंथ है, पठनीय, संग्रहणीय और मंचनीय।

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हे जल के देवता !
यही ख़ासियत है भारत की कि,जल भी देवता है। जिससे हमें जीवन मिले वह देवतुल्य हो जाता है। ऋग्वेद की ऋचाओं का लक्ष्यभेदी हिन्दी रूपांतरण भी प्रभावशाली है। विवेक जी के ज्ञान-विज्ञान और अध्यात्म के मिश्रण को नमन जल रसायन की विस्तृत समीक्षा, व्याख्या एवं स्वरूप का आद्योपांत रोचक वर्णन सराहनीय। भाषा-शैली, सुरुचि पूर्ण एवं कथ्यानुरूप। विवेक जी की इस विलक्षण कृति की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। कम से कम मैंने तो यही अनुभव किया है। स्त्री-पुरुष स्वर में सूत्रधार की भूमिका नाटक में जान डाल रही है। बहुत ही सलीके से सभी परिस्थितियों को उजागर करते हुए नाटक के प्रति जिज्ञासा, उत्सुकता जगाती जानकारी दर्शक को बांधे रखने में पूर्णतः समर्थ है। एक अलग ही अनोखापन है। विवेक जी की परिकल्पना को बारम्बार बधाई । मुझे यह नाटक ख़ास पसंद क्यों आया या मैं विशेष रूप से इधर आकर्षित क्यों हुई , कारण यह है कि मैंने भी एक नाटक संग्रह “कौन सीखे-कौन सिखाए “प्रकाशित किया है,जिसमें चुने हुए नाटक , राज्य स्तर पर पुरस्कृत एवं दूरदर्शन व आकाशवाणी से प्रसारित हैं। मैंने भी संसाधन संरक्षण, आपदा प्रबंधन, साम्प्रदायिकता के कुप्रभाव से खुद को परे रखने एवं साक्षरता के महत्व से लगते नाटकों की रचना की, जिनकी मंचीय प्रस्तुति पाठकों व दर्शकों को बहुत पसंद आयी। खूब सराहना मिली। विवेक जी का यह नाटक अद्भुत है। सत्य-तथ्य, गल्प और पौराणिकता की वैज्ञानिक आधारशिला से समृद्ध ,भारतीय सभ्यता-संस्कृति ,आस्था व विश्वास को ठोस बनाती यह कृति न केवल पठनीय है वरन् मैं तो कहती हूँ कि संग्रहणीय है। सभी बुद्धिजीवियों की लाइब्रेरी में होनी ही चाहिए।साथ ही इसका जितना अधिक से अधिक मंचन किया जा सके उतना श्रेयस्कर है।
विवेक जी के सूक्ष्म अवलोकन , समसामयिक समस्या के प्रति चिंतित होना,बखूबी अभिव्यक्त हो रहा है। शब्द चयन,संवाद,भाषा-शैली एवं सम्प्रेषण कला का,परिचय मिल रहा है। प्रस्तुति रोचक और प्रभावशाली है। नाटक मंचन की पूरी-पूरी व्यवस्था भी कर रखी है विवेक जी ने कि कोई दिक़्क़त न हो। सूक्ष्मतम जानकारी पूरे विस्तार से दी गई है ,जो अपने आप में विलक्षण है। बहुत-बहुत बधाई एवं आकाश भर हार्दिक शुभकामनाएं *

।(विनायक फीचर्स)(लेखिका काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी की पूर्व व्याख्याता हैं एवं वर्तमान में अमेरिका में निवासरत हैं।)*

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