गोपनीय विद्याओं में चक्रवर्ती सम्राट है, यह कवच

ख़बर शेयर करें

 

*गोपनीय विद्याओं में चक्रवर्ती सम्राट है मां भद्रकाली का कवच* *इस कवच के प्रभाव से ही शिवजी ने किया त्रिपुरासुर का वध**माँ भद्रकाली कवच* मां भद्रकाली के कवच का वर्णन पुराणों में मिलता है । यह कवच गोपनीय गुप्त विद्या का सम्राट है जो भी प्राणी इस कवच को धारण करके संसार रूपी कुरुक्षेत्र में अपने कर्तव्य का निर्वहन करता है वह सर्वत्र विजय को प्राप्त होता है कहा जाता है कि जिस पर माता भद्रकाली की कृपा होती है उस पर भगवान शिव सहित समस्त देवी देवता सहज में ही कृपा करते है। श्री नारायण द्वारा नारद जी को यह गुप्त ज्ञान संसार के प्राणियों के लोक कल्याण के लिए दिया गया नारद जी ने यह गुप्त रहस्य श्री नारायण की अपार भक्ति से प्राप्त किया नारदजी ने श्री नारायण से पूछा सर्वज्ञ नाथ! अब मैं आपके मुख से भद्रकाली-कवच तथा उस दशाक्षरी विद्या को सुनना चाहता हूँ। जो गोपनीय विद्याओं का सम्राट है
प्रसन्न होकर श्री नारायण बोले – नारद! मैं दशाक्षरी महाविद्या तथा तीनों लोकों में दुर्लभ उस गोपनीय कवच का वर्णन करता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो ।
*ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा* यही दशाक्षरी विद्या है। इसे पुष्करतीर्थ में सूर्य-ग्रहण के अवसर पर दुर्वासा ने एक प्रतापी व धर्मात्मा राजा सुचन्द को प्रदान किया था।
उस समय राजा ने दस लाख जप करके मन्त्र सिद्ध किया और इस उत्तम कवच के पाँच लाख जप से ही वे सिद्धकवच प्राप्त कर अजेय हो गए ।
तत्पश्चात् वे अयोध्या में लौट आये और इसी कवच की कृपा से उन्होंने सारी पृथ्वी को जीत लिया। नारदजी ने कहा – प्रभो!
जो तीनों लोकों में दुर्लभ है, उस दशाक्षरी विद्या को तो मैंने सुन लिया। अब मैं कवच सुनना चाहता हूँ, वह मुझसे वर्णन कीजिये।
श्रीनारायण बोले- विप्रेन्द्र! पूर्वकाल में त्रिपुर-वध के भयंकर अवसर पर शिवजी की विजय के लिये नारायण ने कृपा करके
शिव को जो परम अद्भुत कवच प्रदान किया था, उसका वर्णन करता हूँ, सुनो। मुने! वह कवच अत्यन्त गोपनीयों से भी
गोपनीय,तत्त्वस्वरूप तथा सम्पूर्ण मन्त्रसमुदाय का मूर्तिमान् स्वरूप है।
उसी को पूर्वकाल में शिवजी ने दुर्वासा को दिया था और दुर्वासा ने महामनस्वी राजा सुचन्द्र को प्रदान किया था।
ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा मेरे मस्तक की रक्षा करे।
क्लीं कपाल की तथा ह्रीं ह्रीं ह्रीं नेत्रों की रक्षा करे।ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा सदा मेरी नासिका की रक्षा करे।
क्रीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा सदा दाँतों की रक्षा करे।ह्रीं भद्रकालिके स्वाहा मेरे दोनों ओठों की रक्षा करे।
ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा सदा कण्ठ की रक्षा करे। ह्रीं कालिकायै स्वाहा सदा दोनों कानों की रक्षा करें।
क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा सदा मेरे कंधों की रक्षा करे।क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा सदा मेरेवक्ष:स्थल की रक्षा करे।
क्रीं कालिकायै स्वाहा सदा मेरी नाभि की रक्षा करे।ह्रीं कालिकायै स्वाहा सदा मेरे पृष्ठभाग की रक्षा करे।
रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा सदा हाथों की रक्षा करे।ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा सदा पैरों की रक्षा करे।
ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा सदा मेरे सर्वाङ्ग की रक्षा करे। पूर्व में महाकाली और अगिन्कोण में रक्तदन्तिका रक्षा करें।
दक्षिण में चामुण्डा रक्षा करें। नैर्ऋत्यकोण में कालिका रक्षा करें। पश्चिम में श्यामा रक्षा करें।
वायव्यकोण में चण्डिका, उत्तर में विकटास्या और ईशानकोण में अट्टहासिनी रक्षा करें।
ऊर्ध्वभाग में लोलजिह्वा रक्षा करें। अधोभाग मे सदा आद्यमाया रक्षा करें।
जल, स्थल और अन्तरिक्ष में सदा विश्वप्रसू रक्षा करें।वत्स!
यह कवच समस्त मन्त्रसमूह का मूर्तरूप, सम्पूर्ण कवचों का सारभूत और उत्कृष्ट से भी उत्कृष्टतर है; उत्तम से भी परम उत्तम है
इसे मैंने तुम्हें बतला दिया।इसी कवच की कृपा से राजा सुचन्द्र सातों द्वीपों के अधिपति हो गये थे।
इसी कवच के प्रभाव से पृथ्वीपति मान्धाता सप्तद्वीपवती पृथ्वी के अधिपति हुए थे।
इसी के बल से प्रचेता और लोमश सिद्ध हुए थे
तथा इसी के बल से सौभरि और पिप्पलायन योगियों में श्रेष्ठ कहलाये।
जिसे यह कवच सिद्ध हो जाता है, वह समस्त सिद्धियों का स्वामी बन जाता है।
सभी महादान, तपस्या और व्रत इस कवच की सोलहवीं कला की भी बराबरी नहीं कर सकते, यह निश्चित है।
जो इस कवच को जाने बिना जगज्जननी काली का भजन करता है, उसके लिये एक करोड जप करने पर भी
यह मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता।

*भद्रकाली कवच*
कवचं श्रोतुमिच्छामि तां च विद्यां दशाक्षरीम्।
नाथ त्वत्तो हि सर्वज्ञ भद्रकाल्याश्च साम्प्रतम्॥
*नारद उवाच*
श्रृणु नारद वक्ष्यामि महाविद्यां दशाक्षरीम्।
गोपनीयं च कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम्॥
ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहेति चदशाक्षरीम्।
दुर्वासा हि ददौ राज्ञे पुष्करे सूर्यपर्वणि॥
दशलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धि: कृता पुरा।
पञ्चलक्षजपेनैव पठन् कवचमुत्तमम्॥
बभूव सिद्धकवचोऽप्ययोध्यामाजगाम स:।
कृत्स्नां हि पृथिवीं जिग्ये कवचस्य प्रसादत:॥
नारद उवाच
श्रुता दशाक्षरी विद्या त्रिषु लोकेषु दुर्लभा।
अधुना श्रोतुमिच्छामि कवचं ब्रूहि मे प्रभो॥
नारायण उवाच
श्रृणु वक्ष्यामि विपे्रन्द्र कवचं परमाद्भुतम्।
नारायणेन यद् दत्तं कृपया शूलिने पुरा॥
त्रिपुरस्य वधे घोरे शिवस्य विजयाय च।
तदेव शूलिना दत्तं पुरा दुर्वाससे मुने॥
दुर्वाससा च यद् दत्तं सुचन्द्राय महात्मने।
अतिगुह्यतरं तत्त्वं सर्वमन्त्रौघविग्रहम्॥
ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा मे पातु मस्तकम्।
क्लीं कपालं सदा पातु ह्रीं ह्रीं ह्रीमिति लोचने॥
ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा नासिकां मे सदावतु।
क्लीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा दन्तं सदावतु॥
ह्रीं भद्रकालिके स्वाहा पातुमेऽधरयुग्मकम्।
ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा कण्ठं सदावतु॥
ह्रीं कालिकायै स्वाहा कर्णयुग्मं सदावतु।
क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा स्कन्धं पातुसदा मम॥
क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा मम वक्ष: सदावतु।
क्रीं कालिकायै स्वाहा मम नाभिं सदावतु॥
ह्रीं कालिकायै स्वाहा मम पष्ठं सदावतु।
रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा हस्तौ सदावतु॥
ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा पादौ सदावतु।
ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा सर्वाङ्गं मे सदावतु॥
प्राच्यां पातु महाकाली आगन्य्यां रक्त दन्तिका।
दक्षिणे पातु चामुण्डा नैर्ऋत्यां पातु कालिका॥
श्यामा च वारुणे पातु वायव्यां पातु चण्डिका।
उत्तरे विकटास्या च ऐशान्यां साट्टहासिनी॥
ऊध्र्व पातु लोलजिह्वा मायाद्या पात्वध: सदा।
जले स्थले चान्तरिक्षे पातु विश्वप्रसू:सदा॥
इति ते कथितं वत्ससर्वमन्त्रौघविग्रहम्।
सर्वेषां कवचानां च सारभूतं परात्परम्॥
सप्तद्वीपेश्वरो राजा सुचन्द्रोऽस्य प्रसादत:।
कवचस्य प्रसादेन मान्धाता पृथिवीपति:॥
प्रचेता लोमशश्चैव यत: सिद्धो बभूव ह।
यतो हि योगिनां श्रेष्ठ: सौभरि: पिप्पलायन:॥
यदि स्यात् सिद्धकवच: सर्वसिद्धीश्वरो भवेत्।
महादानानि सर्वाणि तपांसि च व्रतानि च॥
निश्चितं कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥
इदं कवचमज्ञात्वा भजेत् कलीं जगत्प्रसूम्।
शतलक्षप्रप्तोऽपि न मन्त्र: सिद्धिदायक:॥

स्रोत :- दशाक्षरी विद्या तथा कालीकवच का यह वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के गणपतिखण्ड में किया गया है।

ध्यान रहे-अपने गुरूदेव से श्री काली दीक्षा या 10 महाविद्याओं में से किसी भी मंत्र की दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात प्राप्त करके ही इसका पाठ करें.

Ad
Ad Ad Ad Ad
Ad