आबादी की ओर आते – जाते हाथी अब देने लगे हैं लोगों को चुनौती, जान-माल के लिए बनते जा रहे हैं बड़ा खतरा

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+ स्थाई समाधान करने में वन विभाग लगातार रहा है विफल
लालकुआं ।
कुमाऊं में तराई- भाबर के अनेक क्षेत्रों में जंगली हाथियों का अब आवादी की तरफ आना-जाना बहुत आम बात होने लगी है। बेखौफ होकर आवादी की ओर आते-जाते अब ये जंगली हाथी लोगों को जैसे चुनौती देने लगे हैं।
आवादी क्षेत्रों में घुसकर हाथियों द्वारा उत्पात मचाने और फसलें बरबाद किए जाने की खबरें तो तराई- भाबर क्षेत्रों में कहीं न कहीं से आए दिन आती रहती हैं, परन्तु लोगों की जान-माल के लिए भी अब ये हाथी बड़ा खतरा बनते जा रहे हैं। खासतौर से तराई- भाबर के जंगलों से सटे गावों में लोग अक्सर जंगली हाथियों के उत्पात से आतंकित देखे जा सकते हैं।
वन विभाग की तरफ से आमतौर पर हाथियों के उत्पात जैसी घटनाओं को बहुत हल्के में लिया जाता है । परिणामस्वरूप आज तक इस समस्या के स्थाई समाधान करने में वन विभाग या तो असफल रहा है या फिर किसानों और ग्रामीणों की जान-माल को लेकर उदासीन रहा है । तराई भाबर के खतीमा, सितारगंज से लेकर शान्तिपुरी, बिन्दुखत्ता, हल्दूचौड़, कालाढूंगी, बैलपड़ाव समेत अनेक क्षेत्रों में हाथियों के आतंक से ग्रामीण भय के साये में जीते हैं । फसल ही नहीं अक्सर जान माल को लेकर भी चिंतित देखे जाते हैं । बीते शनिवार को ही हल्दूचौड़ में एक बड़ा जंगली दिन- दोपहर मुख्य हाईवे पर निकल आया और बेखौफ होकर इधर-उधर विचरण करने लगा । जिसके चलते हाइवे पर तथा आस-पास गावों में अफरा-तफरी सी मच गई।
वन विभाग को सूचित किये जाने पर बमुश्किल हाथी को मुख्य हाइवे और आवादी क्षेत्र से जंगल की तरफ ले जाया जा सका ।
सवाल उठता है कि जंगली हाथी आखिर आवादी क्षेत्रों की ओर रुख करने को क्यों विवश होने लगे हैं। इसके पीछे बहुत सारे कारण हो सकते हैं, परन्तु आम लोगों का मानना है कि हाथी पेयजल और समुचित चारे के अभाव के कारण अक्सर किसानों के खेतों में घुस आते हैं। ख़ासतौर से जहाँ खेतो में गन्ने की फसल खड़ी होती है, उन क्षेत्रों में जंगली हाथियों के झुण्ड घुस आते हैं और सारी फसल को बर्बाद कर काश्तकारो के लिए मुसीबतें खड़ी कर देते हैं।
तराई-भाबर क्षेत्र को आमतौर पर सघन वन क्षेत्र माना जाता है, बावजूद इसके, यहाँ के वनों में चारे की कमी व पेयजल का अभाव होना, आखिर क्या दर्शाता है?
आबादी वाले क्षेत्रों के आसपास झुण्ड़ों के रुप में हाथियों से दिखने से उनकी उस पीड़ा की पुष्टि होती है, जो उनको जान जोखिम में डालकर भी आवादी की तरफ आने को विवश करता है। अर्थात जंगलों में हाथियों के लिए पर्याप्त पानी व भोजन- चारे की समुचित व्यवस्था का घोर अभाव है।
बताया जाता है कि सरकार द्वारा जंगलों में हाथियों व अन्य पशुओं के लिए चारा- पानी की व्यवस्था के लिए हर वर्ष एक बड़ी धनराशि वन विभाग को दी जाती रही है। इसके बाद भी विभाग द्वारा कोई कारगर उपाय न कर पाना प्रथम दृष्ट्या विभागीय अधिकारियों की घोर उदासीनता एवं भष्टाचार को ही दर्शाता है। आबादी वाले क्षेत्रों के आसपास विचरण कर रहे हाथियों के कदम इस बात की गवाही देते प्रतीत होते हैं कि हाथी व अन्य वन्य जीव- जन्तु पानी व भोजन को लेकर काफी परेशान हैं ।
बता दें कि तराई क्षेत्रों में जंगलों की अंधा-धुंध कटाई की वजह से हाथियों व अन्य पशुओं के भोजन व पानी व्यवस्थाएं स्वतः ही समाप्त हो रही हैं । इतना ही नहीं वन तस्करों की अवैध गतिविधियों के चलते अब तो हाथियों व अन्य जानवरों के सुरक्षित आवास ही उनके लिए सुरक्षित नहीं रह गए हैं।
मानव व वन्य जीव संघर्ष की बातें तो अक्सर होती रहती हैं, परन्तु स्थाई समाधान के प्रश्न पर स्वयम मनुष्य की बाधक बनता देखा जा सकता है। परिणाम स्वरूप संघर्ष की खाई तेजी से बढ़ने लगी है ।
हाथियों के हमले से फसलों को भारी नुकसान पहुंचना अब आम बात हो गयी है। वन विभाग व सरकारें भी इसको गम्भीरता से लेने की जरूरत नहीं समझते हैं। हाल के वर्षों में ट्रेनों की चपेट में आकर मरने वाले हाथियों की सख्यां भी लगातार बढ़ती जा रही है। भोजन- पानी के लालच में अक्सर हाथी ट्रेन की पटरियों को पार करके आवादी में घुसने का प्रयास करते हैं। उनको ट्रेनों की आवा-जाही का समय तो वन विभाग द्वारा कभी बताया नहीं जाता है । ऐसे में अनजाने में ही हाथी ट्रेनों की चपेट में आ कर अपनी जान गंवा बैठते हैं।
समय आ गया है राज्य के लोगों और वन-जीवन की सुरक्षा के लिए एक व्यापक रणनीति तैयार हो, विभागीय अधिकारियों की जिम्मेवारी स्पष्ट रूप से तय हो और लोगों को भी हाथियों के स्वभाव और पीड़ा से परिचित कराया जाए, ताकि सामूहिक प्रयासों से वनों की तस्करी व वन्य जीवों की हत्या पर कारगर रोक लग सके ।
भारतीय संस्कृति में आश्विन मास की पूर्णिमा के दिन पवित्र व निर्मल भाव से गजपूजा का विधान है।गज को देवता मानकर गजप्रेमी इस दिन व्रत भी रखते हैं।कहा जाता है,कि सुख,समृद्धि,यश,वैभव,की कामना रखने वाले लोगों की मनोकामना हाथी के पूजन से पूर्ण होती है।तभी प्राचीन काल से ही हमारे पूर्वज वन्य जीवों खासकर हाथियों को लेकर काफी सवेदनशील थे। लेकिन वक्त के बदलते परिवेश में हाथी अब न तो गज प्रेमियो के लिए साथी रहे और न ही आम लोगों के लिए वास्तव में पूजनीय रहे । यदि ऐसा होता तो वनों के अस्तित्व से खिलवाड़ न होता, हाथी दांत की तस्करी न होती और वन्य जीवों के आश्रय स्थलों पर कब्जा न होता ।
हमारे प्रथम पूज्यनीय देव निःसन्देह गणेश जी हैं, जिनका मुख ही हाथी का है।गजानन्द महाराज आदि के नाम से पुकारकर हम भले ही अपनी आस्था प्रकट करते हों, लेकिन धरातल की वास्तविकता यह है कि गजराज आज महान संकट में है।
गजेन्द्र मोक्ष की कथा तो हम सब गाते व सुनतें है।पर आज गजों की क्या स्थिति है।यह सब सामने है।यहां यह भी गौरतलब बात है कि स्वयं योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण ने गीता में हाथी को अपने मुखारबिंदु से पावन स्थान देते हुए कहा हाथियों में, मैं ही ऐरावत हूँ।
हमारी सांस्कृतिक व राष्ट्रीय धरोहर का प्रतीक हाथी अब घोर संकट से जूझ रहे है।वन क्षेत्रों में लोगों की गैर जरूरी चहल- पहल,वनों में भोजन- पानी का अभाव, आपसी संर्घष सहित अनेक कारणों के चलते हाथी सहित तमाम वन्य जीव जन्तुओं के अस्तित्व पर भीषण संकट आन पड़ा है।
हाथी-दाँत की तस्करी करने वालों, वन्य पशुओं की हत्या करने वालों,इमारती व अन्य मूल्यवान वृक्षों का अवैध कटान करने-कराने वालों तथा भ्रष्ट विभागीय अधिकारियों को दण्डित करने के लिए अब अत्यधिक सख्त कानून बनाए जाने की जरूरत है ।
बताते चलें कि राष्ट्रीय वन्य जीव बोर्ड (एनबीडब्ल्यूएल) की स्थाई समिति की 13 अक्टूबर, 2010 को हुई एक बैठक में हाथियों को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करने वाले प्रस्ताव को मंजूरी दी गई थी। इसके बाद पर्यावरण मंत्रालय ने 15 अक्टूबर, 2010 को इस सम्बंध में अधिसूचना जारी की । लेकिन संकट घटने की बजाय बढ़ता ही चला गया । हाथियों की संख्या घटती जा रही है। ऐसे में निकट भविष्य में यदि भारतीय हाथी विलुप्त प्रायः श्रेणी में शामिल हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा ।
हाथी नियमित जल क्रीड़ा का बड़ा शौकीन प्राणी माना जाता है, लेकिन जंगलों में जब पीने का जल पर्याप्त नहीं है तो स्नान के लिए जल कहाँ और कैसे सुलभ हो सकेगा ।
कुल मिलाकर राष्ट्रीय व सांस्कृतिक विरासत के इस पशु के प्रति सेवंदनशीलता नितांत आवश्यक है।इनके बेहतर संरक्षण की आवश्यकता है। साथ ही इनके क्षेत्रों में मानवीय हस्तक्षेप पर सख्त अंकुश की आवश्यकता है।