गंगा का गंगत्व खतरे में

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आज हिमालय चिल्लाता है, कहां इसका पुराना नाता है।’’ विश्व संस्कृति का महातीर्थ हिमालय आज संकट में है। हमारी ही स्वार्थपरक नीतियों ने इसे संकट में डाल दिया है। पुराणों में मानस खण्ड व केदारनाथ की उपमा से विभूषित उत्तराखण्ड के साथ सदा से ही ऋषि-मुनियों, ज्ञानियों, चिंतकों, तपस्वियों का निर्मल नाता रहा है। तभी तो इस भूमि को भूमि नहीं, अपितु देवभूमि कहा जाता है। आज देवभूमि प्रलयंकार दुर्दशा से जूझ रही है। चारों ओर बर्बादियों के मेले लगे हैं। सुन्दर रमणीक पहाड़ियां काल की क्रूर छाया बनकर विकराल रूप धारण किए हुए हैं। अपनी-अपनी उपेक्षा से आहत प्रकृति ने बीते वर्षों में जो उग्र रौद्र रूप दिखाया है उसने भगवान शिव के तांडव नृत्य को भी पीछे छोड़ दिया है। ऐसा मालूम पड़ता है, मानव जाति के लिए हिमालय की यह एक चेतावनी है कि सनातन संस्कृति के महातीर्थों में मर्यादा का उल्लंघन कदापि न किया जाए

गौरतलब है कि पूरे विश्व की पर्वत श्रृंखलाओं में हिमालयी क्षेत्र ही ऐसा है जो मानव समुदायों की आस्था, संस्कृति, सम्मान व जीवन जीने की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करता आया है। यहां की पर्वत श्रृंखलाओं का अकूत भण्डार इसे गौरव प्रदान करता है। यहां से निकलने वाली सदानीरा नदियां जहां पूरे उत्तर भारत की प्यास बुझाती हैं वहीं समूचे देश को निहाल करती हैं।
गंगोत्री का स्मरण होते ही मन विभोर हो उठता है। यह वह पावन स्थल है जहां गंगा ने पृथ्वी को पहली बार स्पर्श किया। इसे भागीरथी व अन्य तमाम नामों से पुकारा जाता है। गंगा का मूल उदगम 4220 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गोमुख ग्लेशियर है जो गंगोत्री से 18 किमी. दूर है। गंगोत्री में मां गंगा का मंदिर भागीरथी नदी के दाहिने तट पर स्थित है। समुद्र तल से 3042 मीटर की ऊंचाई पर सफेद संगमरमर के 20 फीट ऊंचे मंदिर में आदि शंकराचार्य द्वारा प्रतिष्ठित गंगा जी की प्राचीन मूर्ति है। इसके अलावा यहां राजा भगीरथ, यमुना, सरस्वती व शंकराचार्य की मूर्तियां भी हैं। ऋषिकेश से लगभग ढाई सौ किलोमीटर के इस सफर में उत्तरकाशी, गंगोत्री, भैरोघाटी, हरसिल, धरासू, नचिकेता ताल, डोडीताल, केदारनाथ आदि तमाम दर्शनीय स्थल हैं जो बीते समय की महाप्रलयकारी विनाशलीला की चपेट को भी दिखाते हैं।

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गगनचुम्बी पर्वत मालाओं में समय से हिमपात न होने व इन क्षेत्रों की हिम रेखा के लगातार पीछे खिसकने से पर्यावरण जगत में गहरा संकट छाने लगा है। मध्य हिमालय क्षेत्र की तमाम पर्वत श्रृंखलायें जो पांच हजार से सात हजार मीटर के बीच स्थित है निरन्तर पूर्व में अक्सर माह अक्टूबर से हिमपात शुरू हो जाता है था। यह संतुलन गड़बड़ा गया। ऊंचे पर्वतों पर उगने वाली वनस्पति में नमी के अभाव में तमाम प्रकार की वनस्पतियों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है। शीतकालीन अवसरों पर बर्फ के पर्याप्त मात्रा में न पड़ने से वनों में नमी का अभाव भी दावाग्नि का कारण बना है। बुजुर्ग बताते हैं कि तीस-पैंतीस वर्ष पहले गंगोत्री से गोमुखी गंगा के दर्शन करने करीब 18 किमी. की कठिन चढ़ाई चढ़कर या तो साधु संन्यासी ही जाते थे या फिर गंगा के पवित्र उद्गम स्थल को देखने की बेहतद लालसा लिए कोई बिरला गंगा भक्त ही जाता था। अतः गोमुख के वातावरण या हिमालय से निकलने वाली नृत्य करती गंगा की धारा में प्रदूषण नाम की कोई चीज नहीं थी। बढ़ते प्रदूषण ने आज तो गंगा के गंगत्व को ही खतरे में डाल दिया है जिस कारण हिमालय डोलने लगा है। धर्म के नाम पर बढ़ती भीड़ द्वारा बढ़ता व्यवसायिक रूप तथा कई अन्य अनेक कारणों से यह प्राकृतिक सुगंधित वातावरा प्रलंकारी हो गया है।

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आस्था के नाम पर तमाम पवित्र स्थलों की ओर पर्यटकों के बढ़ते अंधाधुंध कदम पर्यावरण के लिए घातक साबित हो रहे हैं और पहाड़ों के दुर्लभ वन्य जीव वेशकीमती जड़ी-बूटियां, सौन्दर्य से भरपूर देवदार व भोज वृक्ष से घिरे विशालकाय वन अनियमित विकास के तले दम तोड़ रहे हैं। पर्यटन विकास के नाम पर पहाड़ की चोटियों पर मानव के बढ़ते कदमों व फैलाये जा रहे प्रदूषण से हिमालय के पहाड़ी क्षेत्र संकट में आ गये हैं। सरकार ने वर्ष 2001 पर्यटन नीति तो बनायी, जो सात भागों में थी- 1. तीर्थाटन, 2. सांस्कृतिक पर्यटन, 3. प्राकृतिक पर्यटन, 4. साहसिक पर्यटन, 5. वन्य जन्तु पर्यटन, 6. पारिस्थितिकी पर्यटन, 7. सैर सपाटा। लेकिन इनमें से कोई भी नीति कारगर साबित नहीं हुई। साहसिक पर्यटन के नाम पर उत्तराखण्ड के बुग्यालों पर भी एक भयानक संकट आ खड़ा हुआ है। राज्य के चमोली, पिथौरागढ़, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी व टिहरी जनपदों के उच्च हिमालयी बुग्यालों जो पर्यावरणीय रूप से नाजुक क्षेत्र हैं। इन क्षेत्रों में ‘कीड़ाजड़ी’ एकत्र करने के नाम पर एक विशाल भीड़ इन नाजुक बुग्यालों को रौंद रही है। संरक्षण व प्रबंधन का ढिढोरा पीटने वाला वन विभाग मूकदर्शक बनकर यह सब देखता आ रहा है।

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