दुर्लभ रहस्य :लोक देवताओं के गुरु गोरखनाथ जहाँ धाम में सतयुग से प्रज्जवलित है अखण्ड धूनी

ख़बर शेयर करें

चम्पावत जनपद के नेपाल से लगे सीमान्त क्षेत्र ” मंच ” की एक रमणीक चोटी पर स्थित है महायोगी गुरु गोरखनाथ का पावन धाम, जो प्राचीनकाल से ही सनातन धर्म, संस्कृति, आध्यात्म एवं दिव्य परम्पराओं का जीवन्त वाहक रहा है । नाथ सम्प्रदाय के संतों, महात्माओं,योगियों तथा भक्तों के लिए तो यह पावन धाम सदा से ही एक अलौकिक महातीर्थ की तरह पूजित व सेवित रहा है । आज भी समूचे उत्तर भारत, पूर्वी भारत व पड़ोसी देश नेपाल के नाथ सम्प्रदाय से जुड़े योगियों तथा भक्तों की आस्था व साधना का यह सबसे प्रमुख आध्यात्मिक केन्द्र माना जाता है।

चम्पावत के इस सीमान्त क्षेत्र को तल्लादेश क्षेत्र भी कहा जाता है। तल्लादेश क्षेत्र में लगभग 35 ग्राम सभाएं आती हैं, जिनमें मंच और तामली मुख्य सड़क मार्ग से जुड़े होने तथा गुरु गोरखनाथ धाम के समीपवर्ती गांव होने के कारण बाहरी क्षेत्रों से आने वाले दर्शनार्थियों, श्रद्धालुओं तथा सन्त- महात्माओं के बीच अधिक लोकप्रिय हैं। तल्लादेश क्षेत्र के लगभग तीन दर्जन ग्राम पंचायतों का प्रमुख धार्मिक केन्द्र होने के कारण सभी ग्रामीण लोग मिल -जुल कर आपसी सहयोग से इस पावन धाम की व्यवस्थाएं देखते हैं, ताकि गुरु गोरखनाथ धाम की नित्य पूजा-अर्चना से लेकर सभी प्रकार के धार्मिक व मर्यादित परम्पराओं का सुचारु सचालन सुनिश्चित हो सके।

उत्तर भारत के प्राचीनतम आध्यात्मिक पीठों में से एक गुरु गौरखनाथ धाम चम्पावत – मंच तामली सड़क मार्ग पर चम्पावत जिला मुख्यालय से लगभग 40 किमी की दूरी पर स्थित मंच से ढाई किमी ऊपर पहाड़ी की ऊँची चोटी पर स्थित है। मंच तक वाहनों द्वारा आसानी से जा सकते हैं, वहाँ से पैदल चल कर इस पावन धाम के दर्शन किये जा सकते हैं।
पैदल चढ़ाई मार्ग में मन्दिर से पहले अष्ट भैरव स्थापित हैं, जिन्हें क्षेत्रभर के लोग वर्षों से ही आस्था व श्रद्धा के साथ पूजते आ रहे हैं। अष्ट भैरवों को कुछ लोग क्षेत्र के रक्षक मानते हैं तो कुछ महायोगी गुरु गोरखनाथ धाम के प्रहरी के रूप में उनकी पूजा-उपासना करते हैं।
गुरु गोरखनाथ डी धूनी नाम से लोक प्रसिद्ध इस पौराणिक आध्यात्मिक पीठ में प्रवेश करते ही सर्वप्रथम दक्षिण दिशा में हनुमान जी का एक छोटा मन्दिर पड़ता है, जिसमें बजरंगबली की सुन्दर मूर्ति प्रतिष्ठापित है।

यहीं से कुछ कदम आगे चलकर मुख्य मन्दिर परिसर का प्रवेश द्वार है। प्रवेश द्वार के ठीक सामने नाथ सम्प्रदाय के एक महान संत की मूर्ति स्थापित है। बगल में निर्मित छोटे द्वार से चार-पांच सीढ़ी चढ़कर सुन्दर प्रांगण के सामने अखण्ड प्रज्जवलित धूनी अर्थात मुख्य आध्यात्मिक पीठ का द्वार दिखाई देता है , जबकि प्रांगण के बॉई तरफ प्राचीन वास्तु में निर्मित पत्थरों की छत वाली आकर्षक धर्मशाला है । इसमें अलग-अलग कई साधना कक्ष व आवास कक्ष बने हुए हैं। महायोगी गुरु गोरखनाथ जी की अखण्ड प्रज्जवलित धूनी एक गुफानुमा कक्ष के भीतर स्थित है, जहाँ पीठ के मुख्य संचालक योगी सदैव मौन साधना में देखे जाते हैं। अखण्ड धूनी के दर्शन हेतु बाहर रखे गये पीले रंग के कपड़े से सिर ढक कर ही प्रवेश की अनुमति होती है। दर्शन-पूजन के पश्चात पीठ गद्दी पर आसीन नाथ योगी द्वारा धूनी की पवित्र राख पुड़िया में प्रसाद स्वरूप प्रदान की जाती है। कहा जाता है कि सतयुग से प्रज्जवलित पावन धूनी के दर्शन से आगन्तुकों तथा भक्तों को परम शान्ति व परम आनन्द की अनुभूति होती है और उनके दैहिक- दैविक- भौतिक यानी तीनों प्रकार के ताप शान्त हो जाते हैं। अखण्ड धूनी में ” बांज ” के वृक्षों की लकड़ियां स्वच्छ जल से धोने के बाद ही जलाई जाती हैं। यहाँ स्थापित मर्यादा के विरुद्ध किसी को भी कुछ भी करने की अनुमति नहीं होती है। मौन रहकर ही धूनी के दर्शन-पूजन की परम्परा है।
वर्तमान में इस गोरक्षधाम में सेवारत व साधनारत योगी जसवन्त नाथ जी महाराज बताते हैं कि महाशिवरात्रि, नवरात्रि, मकर संक्रांति व गुरु पूर्णिमा जैसे अन्य पर्वों के अवसर पर यदि निःसन्तान दम्पत्ति रात्रि जागरण कर पूजा-उपासना करते हैं तो अवश्य ही दम्पत्ति को संतान सुख की प्राप्ति होती है, जबकि ध्यान – साधना करने वाले भक्तों को महायोगी गुरु गोरखनाथ जी स्वप्न में मनोवांछित वर प्रदान करते हैं।
नाथ सम्प्रदाय के इस विश्व प्रसिद्ध आध्यात्मिक पीठ को लेकर अनेक पौराणिक कथाएं व लोक गाथाएं प्रचलित हैं। एक पौराणिक कथा के अनुसार सतयुग में गुरु गोरखनाथ, अपने नाथ सम्प्रदाय के कुछ सतों के साथ नेपाल से भ्रमण करते हुए कूर्मांचल की इस बनाच्छादित मनोहारी पर्वत चोटी पर पहुंचे थे। यहाँ की दिव्य शान्ति व रमणीक भूमि को देख कर उन्होंने यहीं अपनी धूनी रमा दी । कहा जाता है कि तब धूनी का मुख्य स्थान पर्वत शिखर से थोड़ा नीचे था । कालान्तर में धूनी को वर्तमान स्थान पर प्रतिष्ठापित किया गया।
कुमाऊं के लोक देवता ” ऐड़ी ” को गुरु गोरखनाथ जी का ही शिष्य माना जाता है। गोवंशीय पशुओं के रक्षक के रूप में भी पूजे जाने वाले महायोगी गुरु गोरखनाथ के परम शिष्य ऐड़ी देवता भी महान गऊ प्रेमी और गोवंशीय पशुओं की रक्षा करने वाले देवता माने गये हैं। इसीलिए क्षेत्रवासी जो कुछ भी फल, सब्जी, अन्न, दूध आदि का उत्पादन करते हैं, सर्वप्रथम इसी गोरख धाम में चढ़ाते हैं। कहा जाता है कि गुरु गोरखनाथ स्वयम एक संरक्षक के रूप में कृषि- फल उत्पाद से लेकर दुधारू पशुओं तथा जन सामान्य की हर प्रकार से रक्षा करते हैं।
पुराणों में वर्णित एक अन्य कथा के अनुसार नेपाल स्थित नाथ सम्प्रदाय के प्राचीन मठ में गुरु मत्स्येन्द्र नाथ ( मद्देन्द्रनाथ ) साधना करते थे। एक बार उनके मन में एक ऐसे पुत्र की इच्छा हुई जो सदैव चिरंजीवी रहकर धर्म व मर्यादा का पालन करते हुए सदाचारी भक्तों की रक्षा में हर क्षण तत्पर रहे।

यह भी पढ़ें 👉  दुम्काबंगर बच्चीधर्मा क्षेत्र पंचायत के जागरूक व सक्रिय समाजसेवी व खाटू श्याम जी के कट्टर भक्त शिक्षाविद पंकज गोस्वामी को हुआ मातृ शोक

शिव कृपा से उनको बैसाख पूर्णिमा तिथि को मंगलवार के दिन ” गोरक्ष ” के रूप एक तेजस्वी मानस पुत्र की प्राप्ति हुई। पुत्र का नाम गोरक्षनाथ पड़ा । योगी नरहरिनाथ से शिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर कालान्तर में वही तेजस्वी बालक गोरक्षनाथ, महायोगी गुरु गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए । कथा के अनुसार एक बार हिमालयी क्षेत्रों के भ्रमण के दौरान गुरु गोरखनाथ हिमांचल कांगड़ा स्थित मॉ ज्वालादेवी शक्तिपीठ के समीप पहुंच गये। यहाँ चरण पड़ते ही माँ ज्वालादेवी ने उनको भोजन ग्रहण करने का आमंत्रण दिया । गुरु गोरखनाथ ने भोजन करने के लिए असहमति जताते हुए माता से आगे बढ़ने की अनुमति चाही । परन्तु माँ ज्वालादेवी के बार- बार आग्रह करने पर भोजन का निमंत्रण तो स्वीकार कर लिया, लेकिन इस शर्त के साथ कि शुद्ध वैष्णव भोजन के लिए वह स्वयम भिक्षा माँगकर लायेंगे, तब मॉ पानी उबाले । मॉ ज्वाला ने भोजन के लिए पानी उबलने रख दिया, भिक्षाटन से लौटकर माँ ने उबलते पानी में चावल, उड़द, लवण आदि डाले । तभी उबलते पात्र में गुरु गोरखनाथ ने थोड़ी विभूती डाल दी, जिससे उबलता हुआ पानी भी शीतल हो गया । तभी से वह जलपात्र गोरख डिब्बी कहा जाने लगा।
सदियों से नाथ सम्प्रदाय के संत गोरख डिब्बी के दर्शनार्थ और खिचड़ी का प्रसाद ग्रहण करने हेतु आते रहे हैं। यहाँ खिचड़ी के उबलते पानी को धूप- ज्योति दिखाते ही ज्वाला की लपटें उठती हैं, परन्तु हाथ से स्पर्श करने पर एकदम शीतलता का अनुभव कराती हैं। आज भी ज्वालादेवी समेत अन्य सभी आध्यात्मिक पीठों में भोग व प्रसाद हेतु गोरख डिब्बी में शुद्ध वैष्णव खिचडी बनती है। माना जाता है कि पर्व, उत्सव, संक्रान्ति आदि अवसरों पर खिचड़ी का प्रसाद ग्रहण करने से आरोग्य वृद्धि होती है।
ज्योतिषीय अवधारणा के अनुसार खिचड़ी के मुख्य तत्व – चावल व जल चन्द्रमा की शीतलता से प्रभावित होते हैं, उड़द का सम्बन्ध शनिदेव की कृपा से है, हल्दी वृहस्पति अथवा गुरु ग्रह के रूप में ओज का प्रतीक है और घी सूर्यदेव के तेज का प्रतीक माना जाता है। घी से मंगल ग्रह तथा शुक ग्रह की कृपा भी प्राप्त होती है। इसलिए आरोग्य प्राप्ति हेतु विशेषरूप से मकर संक्रांति पर खिचड़ी का प्रसाद ग्रहण करने की परम्परा स्थापित हुई थी।

यह भी पढ़ें 👉  एशियाई चैम्पियनशिप में भारत की पहली स्वर्ण पदक विजेता नव्या पाण्डे को सेंचुरी मिल प्रबन्धन ने किया सम्मानित, मिल के सी ई ओ अजय कुमार गुप्ता ने नव्या की इस उपलब्धि को उत्तराखण्ड समेत देश के लिए बताया गौरवपूर्ण

पौराणिक कथाओं के अनुसार ही सम्पूर्ण हिमालयी भूभाग का भ्रमण करने के पश्चात महायोगी गुरु गोरखनाथ हिमांचल से केदारखण्ड होते हुए पुनः मानस क्षेत्र अर्थात कूर्मांचल पहुंचे और स्थान-स्थान पर गोरक्ष पीठ स्थापित कर अन्ततः फिर से चम्पावत के तल्लादेश क्षेत्र में परम सुशोभित गोरखधाम में साधना में लीन हो गये। कहा जाता है कि कुमाऊं के सभी लोक देवता यथा गोलू देवता, ऐड़ी देवता, गगनाथ देवता, सैम देवता आदि महायोगी गुरु गोरखनाथ महाराज के ही शिष्य रहे थे। आज भी कुमाऊं के ग्रामीण अंचलों में गुरु गोरखनाथ की धूनी लगभग सभी गॉवों में देखी जा सकती है। डीडीहाट स्थित मलयनाथ जी का मन्दिर भी नाथ सम्प्रदाय का एक प्रसिद्ध मन्दिर है। समय-समय पर इन धुनियों में जागर लगती है और गुरु गोरखनाथ के साथ ही सभी लोक देवताओं की दिव्य गाथाएं गायी जाती हैं। बताया जाता है कि चन्द राजाओं की इस गोरख धूनी के प्रति अगाध श्रद्धा थी। उस काल में चन्द राजा प्रत्येक शुभ अवसर पर यहाँ आकर महायोगी का आशीर्वाद प्राप्त करते थे। चन्द राजाओं ने चार सौ वर्ष पूर्व यहाँ एक घण्टा भी चढ़ाया था।
लम्बे समय तक . सरकारी उपेक्षा के चलते चम्पावत के इस गोरखधाम में आवा-जाही कठिन थी, धाम में मूलभूत सुविधाओं का भी अभाव था । इसके बावजूद समूचे उत्तरभारत से श्रद्धालु भक्त एवं नाथ सम्प्रदाय के संत भारी संख्या में यहाँ आते रहते थे। हाल के वर्षों में राज्य सरकार द्वारा इस प्राचीन धर्म स्थल के सौन्दर्यीकरण की दिशा में कुछ सार्थक प्रयास किये गये हैं। इसके तहत लगभग तीन करोड़ की लागत से यहाँ सौन्दर्यीकरण का कार्य प्रगति पर है। मुख्य सड़क से धाम तक 2 किमी सी सी मार्ग का निर्माण चल रहा है, सड़क से धाम तक तीन भव्य द्वार बनाये जाने, मन्दिर परिसर में ग्रेनाइट पत्थर बिछाया जा रहा है और विजली, पानी आदि की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए हर संभव प्रयास चल रहे हैं। तीर्थाटन की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण इस पावन धाम के विकास के लिए और भी बहुत से कार्य किये जाने की आवश्यकता है। राज्य के मुख्यमंत्री का चुनाव क्षेत्र होने के कारण धाम से जुड़े भक्तों व क्षेत्रवासियों को उसे काफी उम्मीदें हैं।
इस गोरख धाम में महाशिवरात्रि, दोनों नवरात्रि, मकर संक्रान्ति व गुरु पूर्णिमा के अलावा सभी महत्वपूर्ण हिन्दू पर्वो पर बड़ी संख्या में भक्तगण यहाँ पहुंचते हैं। वर्ष में 3 – 4 बड़े भण्डारे होते हैं । इसके अलावा अन्य धार्मिक अनुष्ठान भी सम्पन्न होते रहते हैं।
गोरखनाथ धूनी के योगी यहाँ नित्य पूजा – आरती को लेकर कहते है कि सर्वप्रथम धूप से आरती होती है, फिर घृत के सात फूल बत्तियो से, तत्पश्चात नाथ जी पर चंवर डुलाया जाता है, फिर मोरछल हिलाया जाता है, पुनः धूप से आरती, फिर चंवर डुलाया जाता है, उसके बाद कपूर से आरती और अन्त में पुनः धूप से आरती के साथ ही पूजा सम्पन्न होती है। अपनी अनूठी परम्पराओं एवं मर्यादाओं को लेकर इस पावन धाम की एक अलग ही पहचान है।
कुल मिलाकर प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर गुरु गोरखनाथ धाम के चारों ओर की पर्वत श्रृखलाएं यहाँ के नैसर्गिक सौंदर्य को और भी बढ़ा देती हैं। ऊंचे शिखर पर स्थित होने के कारण यहाँ से टनकपुर, बनबसा, खटीमा, नेपाल व शारदा नदी का विहंगम दृश्य बड़ा ही मनोहारी लगता है।

Ad