हिमालय को उजाड़कर खुशहाली की उम्मीद कैसे करें?

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पर्यावरण को लेकर एक अध्ययन में सामने आया है कि वन- संसाधनों के बेढंगे इस्तेमाल से हिमालयी वन क्षेत्र में बहुत बड़ा वानस्पतिक संकट पैदा हो गया है। देवदार के लाखों वृक्षों के काटे जाने से यहां दिन प्रतिदिन स्थिति गंभीर होती जा रही है। दून-घाटी और कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्रों में ऐसा संकट पहले से उपस्थित है।
वैसे तो पर्यावरण का यह संकट एवं बीमारी देशव्यापी है, किंतु हिमालय और पर्वतीय अंचलों का प्रदूषित होना अत्यधिक चिन्ता का विषय है।
सुंदरलाल बहुगुणा और उनके साथियों ने टिहरी-गढ़वाल क्षेत्र में दस हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित रियाला इलाके में बालगंगा, भिलंगा आदि रेंज मे पेड़ों की गैरकानूनी कटाई होने पर, वनों को बचाने के लिए पेड़ों को राखी बांधी। अवैध कटाई का विरोध किया। पहले पेड़ों से स्त्री-पुरुष चिपक जाते थे, ताकि उन्हें काटा नहीं जा सके। उस ‘ चिपको आंदोलन’ की तरह यह ‘रक्षा-सूत्र’ अभियान भी लोकप्रिय हुआ था। फिर भी वनों की बर्बादी बरकरार रही। बहुगुणा ने बहुत महत्वपूर्ण एवं गंभीर समस्या और खतरे की ओर इशारा किया था। इस इशारे के परिणाम अब दिखने लगे हैं।

खदानों के लिए बड़े पैमाने पर लीज पर भूमि देने का असर तो हुआ ही साथ ही पर्यटन के लिए बड़े पैमाने पर हुए निर्माण कार्यो ने भी स्थिति को बदतर किया है। इससे पेड़-पौधे पर व्यापक प्रतिकूल असर होने के साथ ही घाटी का मौसम भी प्रभावित हुआ है, भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी हैं। राजनीतिक फायदे और आर्थिक उगाही के लिए वनों की अवैध कटाई के प्रति बेरुखी का यह नतीजा है।

पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए अब तो बद्रीनाथ के साथ-साथ गंगोत्री और यमनोत्री तक होटल और ढाबे पहुंच गये हैं । बड़ी संख्या में देशी- विदेशी सैलानी पहुंचते हैं, मगर तेजी से बढ़ रहे प्रदूषण को लेकर प्रशासन के साथ ही स्थनीय जनमानस भी उदासीन दिखाई दे रहा है। नतीजा यह हुआ है कि गंगोत्री का ग्लेशियर पीछे हट रहा है। यानी सिकुड़ कर छोटा हो रहा है।

एक अध्ययन के अनुसार यह ग्लेशियर 15 मीटर प्रति वर्ष की गति से पीछे हट रहा है। जमीन का कटाव बढ़ता जा रहा है, वह अलग। पर्यटकों एवं सैलानियों की भीड़ बढ़ने से कुछ लोगों को आय तो अवश्य हो रही है, लेकिन साथ ही यहां का सामाजिक, नैतिक और धार्मिक माहौल भी दूषित हो रहा है। गंगोत्री को खतरा तो बहुत ही चिंतनीय है।

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वर्ष 1991 में उत्तराखंड में आये भीषण भूकम्प के कारण भी यहां की भूमि पर असर हुआ। ऐसे कई भूकम्पों से तबाही हुई। 1803 का भीषण भूकम्प इतिहास में एक बर्बादी के रूप में दर्ज है। बड़ी बरबादी की पुनरावृत्ति न हो, इस पर गम्भीर चिन्तन जरूरी है।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों को न्यौता देने एवं तकनीक के आयात के नाम पर कई लाबियां लंबे समय से सक्रिय हैं। हिमालयी क्षेत्र में सीमेंट के कारखाने लगाने एवं पहाड़ों की खुदाई के कारण भी प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण मंत्रालय हिमालय क्षेत्र में उद्योगों को स्वीकृति देने में जितना उदार है, उससे उसकी मंशा पर संदेह होना स्वाभाविक है।

धराली की आपदा की ही बात करें तो यहां लगभग एक वर्ग किलोमीटर में औसतन 400-500 देवदार वृक्ष थे। यह स्थिति पूरे गंगोत्री वाले हिमालय में थी। फिर चाहे बादल फटे या भूस्खलन हो, देवदार मलबा-पानी को नीचे नहीं आने देते थे। लेकिन, 1830 में इंडो-अफगान युद्ध से भागे अंग्रेज सिपाही फैडरिक विल्सन ने हर्षिल में देवदार को काटने का जो दौर शुरू किया, वो आज भी बंद नहीं हो पाया। आज देवदार काटकर आलीशान होटलें और इमारतें बन गई, कई सरकारी और गैर सरकारी प्रोजेक्ट शुरू हो गए हैं । धराली की तबाही उसी का परिणाम है। गांव में जिस रास्ते से तबाही नीचे आई, वहां पहले देवदार का घना जंगल था। लेकिन, वो जंगल अब पूरी तरह आधुनिक विकास की भेंट चढ़ चुका है।

हिमालय पर कई शोधपरक किताबें लिख चुके प्रो. शेखर पाठक बताते हैं कि उत्पत्ति के बाद हिमालय की मजबूती में देवदार ने सबसे अहम किरदार निभाया, क्योंकि इसका जंगल काफी घना होता है। इसके नीचे के हिस्से में बांज जैसी घनी झाड़ियां होती है। यह एक सिस्टम है, जो जमीन धंसने या बादल फटने पर भी हिमालय की मि‌ट्टी को जकड़ कर रखता है। इसीलिए

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हिमालयवासी इसे भगवान की तरह पूजते हैं। लेकिन 19वीं सदी में इसे ही बेरहमी से काटने का जो दौर विल्सन ने शुरू किया, वो आज भी जारी है।

गढ़वाल गैजेटियर के अनुसार विल्सन ने टिहरी के राजा से देवदार काटने का ठेका लिया था। उसने हर्षिल, धराली, सुक्खी, मुखवा, गंगोत्री में देवदार के 600 एकड़ में लगे दो लाख से ज्यादा पेड़ काट डाले। इन्हें बेचकर वह टिहरी के राजा से भी अमीर हो गया था। उसके पास 1200 फैडरिक विल्सन मजदूर थे। वह खुद को हर्षिल घाटी का राजा बनाकर अपनी मुद्रा में व्यापार करने लगा था। खैर वह तो अंग्रेज था और उसे भारत के पर्यावरण, नागरिकों के जान माल से कोई लेना देना नहीं था। वे आए ही भारत को लूटने थे, लेकिन दुख तो तब होता है जब विल्सन और अंग्रेजों के बाद उत्तराखंड में हमारी अपनी सरकार आई, लेकिन देवदार की कटाई कभी बंद नहीं हो पाई। आज भी सड़कें बनाने के नाम पर हजारों देवदार व अन्य पेड़ काट दिए जाते हैं।

धराली में जहां अभी आपदा आई, वहां देवदार के घने जंगलों को काटकर पर्यटकों,ट्रेकिंग करने वालों और तीर्थयात्रियों की सुविधाओं के नाम पर सड़क, होटल ,बाजार सब बना दिए गये। इसका नतीजा कितना भयावह हुआ,यह सबने देख लिया है।

पूर्व में पर्यावरण मंत्री कमलनाथ की भूमिका हिमालयी पर्यावरण को लेकर बहुत आपत्तिजनक रही, यह उस समय के अखबारों में छपी खबरों से स्पष्ट होता है। उन्होंने हिमालयी अंचल में

आलीशान होटल बनाने के लिए व्यास नदी के बहाव-मार्ग को मोड़ने की कोशिश की थी। बाद में यह नदी पुराने बहाव मार्ग पर लौट आयी और जो आलीशान भवन बना था, वह बह गया तो उन्होंने एक निजी फर्म को मौका दिया, जिसे व्यास के किनारे पर आलीशान होटल के लिए 1994 में 27 बीघा से अधिक जमीन नदी के किनारे पर दे दी। यह जमीन अतिक्रमण करके वन की भूमि पर कब्जा करके प्राप्त की गयी, जिसका पर्यावरण मंत्रालय द्वारा कमलनाथ के मंत्रीपद के कार्यकाल में नियमन भी कर दिया गया।
आज भी स्थिति अलग नहीं है।

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पर्यावरण की सारी चिंताओं को परे रखकर अंधाधुंध पेड़ काटे जा रहे हैं। स्थानीय नदियों का रास्ता रोकर आलीशान होटलों से लेकर छोटे-छोटे होम स्टे तक बनाए जा रहे हैं। भारतीय विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों के अनुसार भारतीय वानिकी तो वातावरण में कार्बन डाईआक्साइड के घेराव के बारे में,विश्वव्यापी चेतावनी के बावजूद कुछ भी सार्थक कार्य नहीं कर पायी ।
इतिहास और पुरातत्व के विद्वानों के अनुसार हिमालय से निकलकर हरियाणा, राजस्थान और गुजरात होकर खंभात की खाड़ी में गिरने वाली वेदकालीन पुरातन सरस्वती नदी भी वन एवं पर्यावरण के नष्ट होने से लुप्त हो गयी थी। उसका काफी बड़ा बहाव क्षेत्र मरुस्थल बन गया। वैसा ही खतरा गंगा एवं यमुना के लिए भी उपस्थित हो गया है। नहरें निकलने, उद्योगों के एवं शहरी गंदगी के कारण ये नदियां प्रदूषित हो रही हैं। पहाड़ों पर प्लास्टिक की बोतलों के ढे़र लगे हैं। हरिद्वार और ऋषिकेश में तो प्रतिदिन गंगा के घाटों पर ही हजारों टन प्लास्टिक की बोतलों और प्लास्टिक की बिछाने वाली पन्नियों का कचरा आ रहा है। यहां घाट पर आपको प्लास्टिक के थैले,बोतलें,पन्नियां बेचने वाले सैकड़ों लोग मिल जाएंगे। जो पानी यहां है, वह भी प्रदूषित हो रहा है।

गंगा किनारे ही लोग बोतलबंद पानी खरीदकर पी रहे हैं। भूमिगत जल का स्तर भी गिर रहा है।
वैज्ञानिक तो अभी भी चेतावनी दे रहे हैं कि अगर समय रहते यहां जंगल को पुनः विकसित नहीं किया गया तो आने वाले समय में हालात और भी खराब हो सकते हैं। हिमालयी क्षेत्रों से गांवों को तुरंत हटाए जाने की चेतावनी भी दी जा रही है।

जब जल का बड़ा स्त्रोत हिमालय ही प्रदूषित हो जाएगा तो क्या होगा? प्रगति और विकास बहुत जरूरी है। इंसानी जरूरतों की पूर्ति भी जरूरी है, लेकिन इसके लिए अनियोजित एवं मनमाने विकास या बेढंगे दोहन से नहीं बचा गया और वन एवं भूमि के साथ खिलवाड़ चलता रहा तो

भयावह प्राकृतिक आपदायें पैदा होंगी। आखिरकार हिमालय जो कि देश की सुरक्षा की दीवार एवं जीवन रेखा है, उसे उजाड़कर हम खुशहाली की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?

( अंजनी सक्सेना विभूति फीचर्स)

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