मानव जीवन और सूर्य

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प्रकृति का सबसे महान घटक सूर्य है जिसके बारे में आज भी हम बहुत कम जानते हैं। अनुमान ही अधिक लगाते हैं। चांद पर तो मानव चढ़ भी गया,यात्रा करके आ गया पर सूर्य के हजारों मील दूर ही वह खड़ा रह सकता है अन्यथा भस्म हो जाएगा। हमारे वैदिक व हिन्दू पूर्वज अध्येताओं ने समय नापने की एक सीमा बांधी थी उसका नामकरण भी सूर्य पर ही किया है। 4.32 मिलियन सूर्य वर्ष अर्थात उसे एक महायुग माना। खगोलशास्त्री लाखों वर्षों से शोध में लगे है और समय समय पर शून्याकाश या अंतरिक्ष के रहस्यों की थोड़ी थोड़ी जानकारी देते रहते हैं, अंतरिक्ष में अवस्थित स्पेस शटल प्रयोगशाला से विकसित देश इस सूर्य ज्ञान की ओर अग्रसर है। भौतिक विज्ञानी और रसायनशास्त्री भी इस बारे में नए नए प्रयोग करते रहते हैं। पर हमारी भारतीय संस्कृति व पूर्वज ऋषि मुनिगण हिमालय जैसे हिम प्रदेश में निवास कर ऐसे ज्ञान का विकास कर चुके थे जो आज भी प्रासंगिक है। विविध क्षेत्रों में उन्होंने कई पद्घतियां अपनाई व सिद्घांतों का प्रतिपादन भी किया।
पाश्चात्य विज्ञानी पोल ब्रंट ने भारत में भ्रमण कर प्राचीन ऋषि मुनियों के बारे में खूब जानकारी हासिल की और एक किताब लिखी ‘ए सर्च इन सीक्रेट इंडिया’ उसमें उन्होंने महायोगी स्वामी विशुद्घानंदजी का खास उल्लेख किया जो सूर्य विज्ञान या सिद्घांत के मर्मज्ञ थे। उनको सूर्य की साधना द्वारा कई सिद्घियां प्राप्त हो चुकी थी। महर्षि पतंजलि के जीयंतर परिणाम अर्थात एक वस्तु के दूसरे वस्तु में परिवर्तन या रूपांतरण की वैज्ञानिक जानकारी उन्होंने प्रस्तुत की।
स्वामी विशुद्घानंद के मतानुसार विश्व में हर स्थान पर सभी वस्तुएं शाश्वत रूप से विद्यमान रहती हैं परंतु सभी वस्तुएं एक समय में व्यक्त नहीं होती। पदार्थ मात्रा या गुण धर्म अधिक विकसित हो तभी प्रस्फुटित होकर प्रगट हो सकती है। सूर्य विज्ञान का मतलब भी यही है कि एक पदार्थ में परिवर्तन या रूपांतरण करने का विज्ञान या शास्त्र।
उदाहरण स्वरूप लोहे का टुकड़ा है। वह मात्र लोहे का टुकड़ा नहीं होता। उसमें कई अन्य तत्व या पदार्थ अव्यक्त रूप से उपस्थित रहते हैं। उसमें थोड़ी मात्रा या अंश में स्वर्ण भी मौजूद रहता है परंतु सूक्ष्म स्वरूप की सुषुप्त अवस्था को जागृत किया जाए, उसमें स्वर्ण मात्रा बढ़ाई जाए तो लौह का अस्तित्व या लौह भाव दब जाता है और स्वर्ण भाव बढ़ जाने से लौह खंड का टुकड़ा सोने का हो जाता है। पारस पत्थर की कल्पना पूर्वजों ने ऐसे ही नहीं की थी। लोहे का पारस पत्थर छूकर वह सोने का बन जाना इसी सिद्घांत के अनुरूप है। हमारे शास्त्रों में कहा भी है कि दुनिया में जितने भी नाम पदार्थ या शब्द हैं वे सभी अस्तित्व में है। यह अलग बात है कि कुछ चीजें अदृश्य व अव्यक्त रहती हैं कुछ दृश्यमान व व्यक्त हो जाती हैं या हो सकती हैं। इसी सिद्घांत को लेकर विज्ञानी आगे बढ़े और अध्ययन व प्रयोग से इतनी वस्तुओं का आविष्कार कर पाए हैं और कई नई नई चीजें हमारे सामने प्रगट हो रही हैं।
जैन शास्त्रों में त्रिपदी है। उत्पन्ने इवा, विगमेईवा, धूवे ईवा अर्थात् उत्पन्न होता है, नष्ट होता है व स्थिर रहता है। जगत का यही शाश्वत स्वभाव है।
सुषुप्त व जागृत अवस्था साथ साथ चलती है। लोहे का टुकड़ा नष्ट नहीं हुआ सोना नहीं बना पर दोनों तत्व उसमें मौजूद है। मात्रा में घनत्व का अंतर हो सकता है। अगर तत्व या पदार्थ की मात्रा किस प्रकार परिवर्तित की जाए उसका ज्ञान किसी को हो जाए तो कहीं भी कभी भी कोई भी वस्तु हाजिर की जा सकती है। योग शास्त्र की परंपरा मात्र हमारे देश में ही थी। योग शक्ति द्वारा पदार्थ का रूपांतरण इसी प्रकार होता है तथा उसमें सूर्य विज्ञान सहायक होता है। उसकी सहायता आवश्यक होती है।
महर्षि पतंजलि ने सूर्य विज्ञान के बारे में बहुत ही गंभीर विशिष्ट संशोधन किया था। उनके अनुसार सूर्य की किरणों में अलग अलग रंग या रश्मियां विद्यमान रहती है। उसका समन्वित रंग मात्र श्वेत है जिसे विशुद्घात्मक तत्व कहा जाता है। इस श्वेत रश्मि को 24 कोणीय स्फटिक मणि के माध्यम से देखा जा सकता है। इस स्फटिक का प्रत्येक कोना वर्तुलावस्था में होता है ज्यों ही सूर्य की किरणें स्फटिक लेंस पर पड़ती हैं तब घनीभूत होकर एक वर्तुल दूसरे वर्तुल में प्रवाहमान बनकर 24 वें वर्तुल में प्रवेश करती है तब हमें संपूर्ण शुभ्र या श्वेत रंग दिखने लगता है। इस स्थिति में ये रश्मियां पदार्थ पर पड़ती हैं तो उसमें से इच्छित पदार्थ का परिवर्तन शक्य बन सकता है।
सूर्य सिद्घांत में उपासना द्वारा निष्णात बनने वाले योगियों को इस बात का ज्ञान था कि किसी पदार्थ के कितने वर्तुल हो सकतेे हैं। स्वामी अखिलेश्वरानंदजी के पास भी यह ज्ञान था।
जिस प्रकार एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ में रूपांतरण करने की प्रक्रिया में सूर्य सिद्घांत कार्य करता है उसी तरह योग बल द्वारा कोई भी कार्य स्फटिक यंत्र की सहायता के बिना भी किया जा सकता है। स्वामी अखिलेशवरानंदजी ने हिमालय के ‘महायोगियों की गुप्त सिद्घियां’ किताब में लिखा है कि प्रत्यक्ष रूप से हम जिस दैदीप्यमान सूर्य को देखते हैं उससे भी करोड़ गुना अधिक शक्ति व तेजवाला सूर्य हमारे अंदर विद्यमान है पर हमारे मन में बिखरा हुआ रहता है। योग साधना द्वारा अगर उसे घनीभूत बनाकर नेत्रों के माध्यम से किसी पदार्थ पर फेंका जाए तो इच्छित वस्तु के रूप में रूपांतर किया जा सकता है। यहां एकाग्रता की जरूरत होती है। थोड़े समय के लिए जादूगर यह करते दिखाई दे सकते हैं पत्थर को फूल या मिश्री बना सकतेे हैं। योगी सिद्घियां प्राप्त करने पर यही काम कर सकते हैं।
हिमालय क्षेत्र मानसरोवर और कैलाश के पूर्व में पुराणों में वर्णित कायालग्राम आश्रम नामक ऐसी दिव्य जगह का उल्लेख मिलता है, जहां हजारों सिद्घ योगी सूक्ष्म शरीर में विचरण करते हैं तथा अपनी साधना में लीन रहते हैं। परंतु उस स्थल के दर्शन दिव्य दृष्टि संपन्न कुछ कृपापात्र व्यक्ति कर सकते हैं। स्थूल आंखों से उसे देख पाना असंभव है।
हिमालय सिद्घयोगियों का प्रिय स्थान रहा है। तपस्थल किसी प्रयोगशाला से कम नहीं होता। वहां बसने वाले महान योगी परकाया प्रवेश, आकाशगमन, जलगमन अर्थात् जल पर चलना, साधना, समाधि में अवस्थित होना जैसे सिद्घांतों का विशद वर्णन स्वामी अखिलेश्वरानंदजी महाराज ने अपनी किताब में किया है। भारत में इण्डियन प्लेनेटरी सोसाइटी, मुंबई के एमेटर एस्ट्रोवाकर एसोसिएशन, गोवा की नेशनल सेंटर फार अंटार्कटिक एंड ओसियन रिसर्च, अहमदाबाद की स्पेस एप्लीकेशन सेंटर, बैंगलूर की अस्ट्रोफिजिक्स इन्स्टीट्यूट, नैनीताल की वेधशाला, स्पेशल टेेलीस्कोप, स्प्रेक्टोमीटर और सी सी डी कैमरा ये सब सूर्य विज्ञान का अध्ययन करने वाली संस्थाएं कार्यरत हैं।

(डॉ. गुलाबचंद कोटडिय़ा – विभूति फीचर्स)

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(विभूति फीचर्स)

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