भद्रकाली एकादशी का महत्व

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अनन्त स्वरूपा माँ भद्रकाली की लीलाएं भी अनन्त है। इन अनन्त लीलाओं में भद्रकाली एकादशी का बड़ा ही महत्व है। माँ भद्रकाली के परम भक्त ग्राम  पभ्या जिला पिथौरागढ़ निवासी स्व० प्रयाग दत्त पंत कहते थे।जिसने माँ भद्रकाली की शरण ले ली अपना सर्वस्व माँ के चरणों में समर्णण कर दिया। तो समझों उसनें समस्त शुभ अनुष्ठानों को पूर्ण कर लिया भद्रकाली एकादशी के महत्व पर वे बताते थे।माँ भद्रकाली एकादशी के महत्व का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता है। फिर भी अपनी भावनाओं को शब्दों में प्रकट करते हुए वे बताते थे।जो प्राणी इस दिन निर्मल भाव से भद्रकाली एकादशी का व्रत रखता है। वह परम वैभवशाली बन जाता है। उल्लेखनीय है,कि ज्येष्ठ मास में कृष्ण पक्ष की  एकादशी को ही भद्रकाली एकादशी कहते है।इसके अलावा अपरा एकादशी, अचला एकादशी, कृष्ण एकादशी के नाम से भी इसे जाना जाता है। इस दिन माँ भद्रकाली की की गई स्तुति अमोघ फल को प्रदान करती है। व समस्त पापों से मुक्ति दिलाने के साथ मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है।  इस व्रत को द्वादशी को सूर्योदय होने तक रखनें का विधान है। ज्येष्ठ मास में कृष्ण पक्ष द्वादशी को मधुसूदन द्वादशी नाम से भी जाना जाता है। सर्व मंगलकारी यह दिन रुक्मिणी द्वादशी नाम से भी पूज्यनीय है।
जानकार विद्वान बताते है ,कि भद्रकाली एकादशी का व्रत संपूर्ण होने के बाद द्वादशी के दिन श्री हरि विष्णु भगवान को तुलसी दल अर्पण करते हुए उनका पूजन करना चाहिए। ऐसा करने वाला मनुष्य अपने सम्पूर्ण कुल का उद्धार करने के साथ स्वयं वैकुंठ को प्राप्ति करता है। मधुसूदन द्वादशी के दिन खासतौर पर दान का भी बड़ा महत्व है।जलक्रीड़ा एकादशी के नाम से भी प्रसिद्व माँ भद्रकाली एकादशी का महत्व इसलिए भी विराट माना जाता है ,कि एकादशी के इसी दिन भगवान विष्णु और उनके 5वें अवतार वामन स्वरुप की पूजा की जाती है। माँ भद्रकाली/अपरा/अचला/जलक्रीड़ा एकादशी की प्रचलित कथा महीध्वज नामक महान् धर्मात्मा राजा से जुड़ी हुई है।कहा जाता है,कि युगों पूर्व प्राचीन काल में महीध्वज नामक एक धर्मात्मा राजा था।सदाचार व धर्म के प्रति उसकी अगाध श्रद्वा थी लेकिन उसका छोटा भाई वज्रध्वज बड़ा ही क्रूर, अन्यायी,अधर्मी था। धर्म पथ पर आरुढ़ वह अपने बड़े भाई से अकारण ही द्वेष रखता था। तथा अपनें बड़े भाई के प्रति द्वेषपूर्ण भावनाओं ने उसे पाप पथ गामी बना दिया।पापाचार के चलते उस पापी ने एक दिन मौका पाकर रात्रि में अपने बड़े भाई की हत्या करके उसकी देह को एक जंगली पीपल के नीचे दबा दिया।
 इस अकाल मृत्यु से राजा प्रेतात्मा के रूप में उसी पीपल पर रहने लगा और अनेक प्रकार के उत्पात करने लगा। देवयोग से एक दिन अचानक महात्मा धौम्य ऋषि उधर से गुजरे। उन्होंने प्रेत को देखा और तपोबल से उसके अतीत पर दिव्य दृष्टि दौड़ाकर उसे जान लिया। प्रेत उत्पात का कारण भी उन्होनें समझ लिया।
 उसके अतीत के सद्आचरण से ऋषि ने प्रसन्न होकर उस प्रेत को पीपल के पेड़ से उतारा तथा परलोक विद्या का उपदेश दिया। दयालु ऋषि ने राजा की प्रेत योनि से मुक्ति के लिए स्वयं ही भद्रकाली एकादशी जिसे अपरा (अचला) एकादशी भी कहते है,उस  व्रत को धारण किया  इस पुण्य के प्रभाव से राजा की प्रेत योनि से मुक्ति हो गई।वे दिव्य भव्य स्वरुप को प्राप्त हो गये। उन्होनें ऋषि का धन्यवाद अदा कर दिव्य देह धारण करके पुष्पक विमान में बैठकर स्वर्ग को प्रस्तान किया। भद्रकाली एकादशी,अचला एकादशी की यह कथा सुनने से मनुष्य सब प्रकार के पापों से छूट जाता है।तथा इस कथा को जो भी श्रवण करता है ,उसके पितरजन पित्र लोक में प्रसन्न होकर श्री हरि व माँ भद्रकाली की कृपा को प्राप्त होते हैं।धर्मराज युधिष्ठिर के पूछनें पर भगवान श्रीकृष्ण ने इस एकादशी के महात्म्य का वर्णन करते हुए यहां तक कहा है। यह अपार धन व प्रसिद्धि  देने वाली है। इस एकादशी के व्रत के प्रभाव से ब्रह्म हत्या, भू‍त योनि, पर निंदा आदि जितनें भी पाप है। सब नष्ट हो जाते हैं। परस्त्रीगमन, झूठी गवाही देना, झूठ बोलना, झूठे शास्त्र पढ़ना या बनाना, झूठी ज्योतिषी विद्या से धन अर्जित करनें का पाप तथा आदि सब दूर हो जाते हैं। अपरा एकादशी का व्रत तथा भगवान बिष्णु एंव माँ भद्रकाली व अपनें ईष्ट का इस दिन पूजन करने से मनुष्य सब पापों से छूटकर आनन्द का भागी बनता है।
जो क्षत्रिय युद्ध से भाग जाए वे नरकगामी होते हैं, परंतु अपरा एकादशी का व्रत करने से वे भी स्वर्ग को प्राप्त होते हैं। जो शिष्य गुरु से शिक्षा ग्रहण करते हैं फिर उनकी निंदा करते हैं, वे अवश्य नरक में पड़ते हैं मगर अपरा एकादशी का व्रत करने से वे भी इस पाप से मुक्त हो जाते हैं। जो फल तीनों पुष्करों में कार्तिक पूर्णिमा को स्नान करने या गंगा तट पर पितरों को पिंडदान करने से प्राप्त होता है, वही अपरा एकादशी का व्रत करने से प्राप्त होता है।
 मकर के सूर्य में प्रयागराज के स्नान से, शिवरात्रि का व्रत करने से, सिंह राशि के बृहस्पति में गोमती नदी के स्नान से, कुंभ में केदारनाथ के दर्शन या बद्रीनाथ के दर्शन, सूर्यग्रहण में कुरुक्षेत्र के स्नान से, स्वर्णदान करने से अथवा अर्द्ध प्रसूता गौदान से जो फल मिलता है, वही फल अपरा एकादशी के व्रत से मिलता है।
 यह व्रत पापरूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है। पापरूपी ईंधन को जलाने के लिए अग्नि, पापरूपी अंधकार को मिटाने के लिए सूर्य के समान, मृगों को मारने के लिए सिंह के समान है। अत: मनुष्य को पापों से डरते हुए इस व्रत को अवश्य करना चाहिए।
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