जनपद चम्पावत के देवीधूरा स्थित माँ वाराही देवी शक्तिपीठ वाराही धाम के नाम से लोक प्रसिद्ध है। प्राचीन काल से ही यह पावन धाम मॉ वाराही देवी की अलौकिक व रहस्यमयी लीलाओं भी भूमि मानी गई है सदियों से ही यहाँ रक्षा बन्धन के अवसर पर एक विशाल मेले का आयोजन होता आया है, जिसे आषाढ़ी कौतिक भी कहा जाता है। इस पावन पर्व पर जहाँ एक ओर माँ वाराही देवी के दर्शन पूजन, वन्दन व अन्य धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न कराने को बड़ी संख्या में श्रद्धालु भक्त समर्पण भाव से यहाँ पहुंचते हैं वहीं देश के अनेक हिस्सों से आषाढ़ी कौतिक में खेली जाने वाली ” बग्वाल ” यानी पत्थर युद्ध का रोमांच उठाने को भी लाखों की संख्या में दर्शनार्थी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं और रणवाकुरों की आस्था, भक्ति, शौर्य, पराक्रम तथा इस अनूठी परम्परा के प्रत्यक्षदर्शी बन कर स्वयम को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। सचमुच माँ वाराही धाम में आयोजित होने वाला यह आषाढ़ी कौतिक महान जनआस्था, भक्ति, समर्पण, पोरुष व दुर्लभ परम्परा का एक अनूठा और अलौकिक महासंगम है।
विज्ञान के आधुनिक युग में भी यहाँ पाषाण कालीन परम्परा से खेली जाने वाली बावाल यानी पत्थर युद्ध को देख हर कोई हैरान व रोमाचित हो उठता है। इस युद्ध में पत्थरों की बरसात से रणबाकुरों को चोट पहुंचना अथवा उनका घायल होना बहुत सामान्य बात है। निगाल से बनी ढाल से बचाव करते हुए भी हर वर्ष सैकड़ों युद्धरत रणबांकुरे बुरी तरह घायल हो जाते हैं। जान-माल की क्षति कम से कम हो, सम्भवतः इसी विचार से हाल के कुछ वर्षों से मेला समिति व जिला प्रशासन के प्रयासों से युद्ध में अब पत्थरों का प्रयोग पहले से कम करा दिया गया है, पत्थरों की जगह फल व फूलो से बग्वाल खेलने अर्थात युद्ध लड़ने की परम्परा शुरू कराई गयी है।
पुरातन काल से ही माँ वाराही देवी की प्रसन्नता के लिए सम्पूर्ण समर्पण व भक्तिभाव से देवीधूरा वाराही धाम में बग्वाल खेलना समीपवर्ती ग्रामीणों के लिए एक अनिवार्य कर्तव्य माना गया है। इसीलिए वाराही धाम के आस-पास स्थित गावों के चार अलग-अलग खाम यानी दल अटूट आस्था, श्रद्धा व उत्साह के साथ विधिवत पूजा-अनुष्ठान के पश्चात गाजे बाजों तथा ढाल- पत्थर, फल-फूल इत्यादि के साथ यहाँ स्थित ऐतिहासिक दूबा चौड़ मैंदान में विजयश्री प्राप्त करने को पत्थर युद्ध के लिए उतरते हैं।
बग्वाल युद्ध में परम्परानुसार लमगड़िया खाम, वालिक खाम, चम्याल खाम तथा गहड़वाल खाम के रणबांकुरे ही भाग लेते हैं, जिसमें युवाओं के अलावा अक्सर बच्चे व वृद्ध जन भी बग्वाल खेलते देखे जा सकते हैं । निश्चित मर्यादा व विधि-विधान से लड़े जाने वाले इस पाषाण युद्ध की शुरुआत शुभ मुहूर्त में मन्दिर के पुजारी द्वारा शंख ध्वनि के साथ होती है। ताँबे का छत्र और चंवर गाय की पूँछ के साथ पुजारी युद्ध के हर दृश्य को ध्यान से निहारता रहता है। लाखों दर्शकों की उपस्थिति में खोली खांण दूबा चौड़ मैदान के चारों कोनों से चार अलग-अलग खामों के योद्धा फूल – मालाएं पहन, विजय तिलक लगाकर रणभेरी व बाजे – गाजे के साथ एक दूसरे पर पत्थर वर्षा करते हुए मैदान के बीचों बीच एक निश्चित जगह को स्पर्श करने का प्रयास करते हैं। माना जाता है कि जो खाम अथवा दल उस निश्चित लक्ष्य को पहले स्पर्श करने में सफल हो जाता है, उसे विजयी घोषित कर दिया जाता है। इसी के साथ पुजारी द्वारा शंख ध्वनि किये जाने पर पत्थर युद्ध समाप्त मान लिया जाता है।
यहाँ यह बताते चलें कि इस पत्थर युद्ध में सैकड़ों योद्धा घायल हो जाते हैं, कइयों को गम्भीर चोटें भी आती हैं, परन्तु चारों खामों के लड़ाके युद्ध समाप्ति के पश्चात एक दूसरे की कुशल क्षेम जानते हैं, परस्पर गले मिलते हैं और घायलों की हर सम्भव मदद करते हैं। यानी युद्ध के पश्चात किसी के मन में किसी के प्रति लेशमात्र भी दुर्भाव नहीं रहता है। सभी का उद्देश्य माँ के सम्मान में एक तय मात्रा में खून बहा कर पुण्य अर्जन करना होता है।
मान्यता के अनुसार माँ वाराही के प्रति जहाँ श्रद्धा, समर्पण व भक्ति का विशेष धार्मिक व आध्यात्मिक महत्व है वहीं बग्वाल के सुखद व चमत्कारिक प्रभाव को लेकर भी समीपवर्ती ग्रामीणों में अटूट विश्वास देखा जाता है।
चम्पावत जिला मुख्यालय से करीब 55 किमी दूर मॉ वाराही का यह पावन धाम समुद्र सतह से 7000 फुट की ऊंची पर्वत सतह पर अवस्थित है। जनपद नैनीताल व अल्मोड़ा की सीमाओं से लगा हुआ यह धाम अत्यधिक शान्त व रमणीक स्थल है। टनकपुर – चम्पावत – लोहाघाट होकर यहाँ दर्शनार्थी पहुंचते हैं, इधर अल्मोड़ा- शहरफाटक व हल्द्वानी – भीमताल के रास्ते भी यहाँ देश के किसी भी हिस्से से आसानी से पहुंचा जा सकता है।
वाराही धाम में आवा-जाही के लिए वाहन सुविधाओं के साथ ही मन्दिर परिसर में पेयजल, प्रकाश व्यवस्था, आवासीय भवन, धर्मशाला, जलपान- भोजन , स्नान-ध्यान व शौचालय आदि सभी प्रकार की मूलभूत सुविधाएं शासन-प्रशासन व मेला समिति की ओर से उपलब्ध हैं। दूर-दराज से आने वाले श्रद्धालु यहाँ अपनी सुविधानुसार रात्रि विश्राम कर सकते हैं।
हाल के दशकों में समुचित प्रचार-प्रसार के बाद अब यह प्राचीन शक्तिपीठ श्रद्धा, भक्ति व तीर्थाटन के एक बड़े केन्द्र के रूप में विख्यात हो चला है। समूचे क्षेत्र में प्रकृति ने दिल खोलकर सौन्दर्य बिखेरा है। हर तरफ प्रकृति के विहंगम दृष्यों तथा नगाधिराज हिमालय की हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं मनोरम दर्शन सहज ही अलौकिक आनन्द की अनुभूति करा देती हैं।
जगत जननी महामाया का यह मंदिर घने देवदार के वृक्षोंं के मध्य परम सुशोभित है । धार्मिक,
पौराणिक व आध्यात्मिक दृष्टि से जगत जननी का यह पावन धाम जितना चमत्कारिक एवं रहस्यपूर्ण है, सास्कृतिक, भौगोलिक व प्राकृतिक दृष्टि से उतना ही महत्वपूर्ण भी है।
कहा जाता है कि जो भी भक्तजन श्रद्वा पूर्वक माँ की शरण में पहुंचता है, उसके रोग, शोक, दुःख, दरिद्रता एवं विपदाओं का हरण हो जाता है । इसीलिए प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा के दिन लाखों की संख्या में भक्तजन यहाँ पहुंचकर देवी की कृपा प्राप्त करते हैं। मंदिर के चारों ओर का क्षेत्र देवदार, बांज, चीड़, काफल आदि के सघन वृक्षों से आच्छादित होने के कारण अत्यन्त ही मनोहारी लगता है। शान्त के वातावरण के बीच भक्तों को विशेष रूप से शत्रि के एकान्त में सर्वत्र माँ वाराही देवी की प्रत्यक्ष उपस्थिति का अनुभव होता है ।
मॉ वाराही देवी की महिमा अनेक पौराणिक ग्रन्थों में गायी गयी है। इस शक्तिपीठ में माता के मंदिर का निर्माण कब हुआ यह आज भी रहस्य का विषय है, परन्तु मंदिर में निर्मित कलाकृति, तीन शिलाखण्डों से इसकी प्राचीनता स्वतः प्रमाणित होती है। यहाँ स्थित एक रहस्यमयी गुफा में प्राचीन शक्ति पिण्ड सुशोभित है, जिसके दर्शन-पूजन का फल सहस्त्र चंडी यज्ञों के फल के समान बताया जाता है।शक्तिपीठ को लेकर अनेक पौराणिक कथाएं व जनश्रुतियां भी प्रचलित हैं।
वाराह पुराण के अनुसार यहां पर पहले रणचण्डी को प्रसन्न करने के लिए नरबलि की प्रथा प्रचलित थी। जनश्रुतियों के अनुसार एक बार नरबलि हेतु जब चमियाल खाम की एक बृद्ब महिला के इकलौते पौत्र की बारी आयी तो वंशनाश बचाने के लिए उसने माता की घोर तपस्या की और तपस्या से प्रसन्न होकर नर बलि के स्थान पर माता ने अन्य विकल्प खोजने को कहा । फिर क्या था क्षेत्र के चारों खामों की सहमति से देवी को प्रसन्न करने के लिए एक दूसरे पर पत्थरों की मार करके एक व्यक्ति के बराबर रक्त से देवी के गणों को प्रसन्न करने का निर्णय लिया गया । तभी से बग्वाल यानी पत्थर युद्ध मेला आयोजित करने की परम्परा चली आ रही है, जो अब समय के साथ-साथ फलों के युद्ध के रूप में परिवर्तित होने लगा है ।
यहाँ उल्लेखनीय है कि वाराही धाम में पूजित माँ वाराही देवी की दुर्लभ चमकदार मूर्ति को आज तक कोई भी प्राणी खुली आंखों से नहीं निहार पाया । कहा जाता है कि जिसने भी यह दुस्साहस किया, वह अंधा हो गया। इसीलिए एक तांबे के बक्से में मां बाराही को प्रतिष्ठित किया गया है, जिसे आदि शक्ति वाराही देवी का सिंहासन डोला कहा जाता है। रक्षाबंधन यानी बगवाल के दिन तांबे के बक्से में रखी गई दुर्लभ मूर्ति को स्नान कराने की भी अलग ही परम्परा है। गहड़वाल खाम के मुखियां के पास बक्से की चांबी रहती है। जिसे वह वर्ष में इसी दिन अन्य खामों के मुखियों को सौंपते हैं। एक पुजारी व बागड़ जाति के एक व्यक्ति की आंखों पर काली पट्टियां बांधी जाती हैं । तांबे के बक्से व पट्टी बांधे व्यक्ति के ऊपर काला कम्बल डाला जाता है। तब शुभ मुहूर्त में बक्से को खोलकर मां बाराही को हाथों के सहारे दूध से स्नान व श्रृंगार कराया जाता है, तत्पश्चात इस तांबे के बक्से को भव्य रूप से सजाकर डोले में रखकर मुख्य मंदिर से लगे नन्दघर में विराजमान किया जाता है। अगले दिन डोले को गाजे-बाजे व शंख ध्वनि के बीच माँ के जयकारों के साथ समीपवर्ती गॉव मचवाल अर्थात माँ वाराही के मायके ले जाया जाता है। वहाँ प्राचीन शिव मन्दिर में विधिवत पूजन कर पुनः वापस नन्दघर में डोला पहुंचता है। तत्पश्चात विधि – विधान के साथ डोला पुनः मूल स्थान पर प्रतिष्ठित कर दिया जाता है। इस सम्पूर्ण धार्मिक अनुष्ठान कार्य में चार खाम व 7 थोक मुखिया, एक पुजारी व एक आचार्य प्रमुख रूप से सम्मिलित होते हैं।
नवरात्रि के अवसर पर यहाँ अष्टबलि समर्पित करने की परम्परा भी बहुत प्राचीन बताई जाती है। अष्टबलि में 6 बकरे काली मन्दिर में, एक काला बकरा कलुआ बेताल यानी काल पुरुष के मन्दिर तथा एक नारियल गणेश मन्दिर में चढ़ाने का विधान बताया जाता है।
तीन विशाल शिलाखण्डों के बीच स्वतः ही एक मंदिर निर्मित हुआ है। जिसमें जाने के लिए एक संकरी गुफा से होकर जाना पड़ता है। इस गुफा में अत्यन्त कठिनाई से झुककर प्रवेश करना पड़ता है व बचने का कितना ही प्रयास किया जाये, शरीर का कोई ना कोई भाग पत्थरों को अवश्य छू जाता है। पर यह एक आश्चर्य का विषय है कि जब एक मोटे तगड़े भैंसे को इसी गुफा से होकर गुजरना पड़ता है तो वह बिना दिवारों को स्पर्श किये आराम से निकल जाता है। मंदिर की दायी ओर विशाल पत्थर के बीच एक चौकोर गहचर है। इसमें सपाट पत्थर पर प्राकृतिक रूप से बना हुआ शिवलिंग है।
लोकगाथा के अनुसार पहले बाराही देवी को उपरोक्त प्रतिमा सोने की बनी थी। पर एक बार एक पुजारी की नियत में खोट उत्पन्न हो गया और वह ;यह देखने के लिए कि मूर्ति में कितना सोना है, उस मूर्ति को तुड़वाने एक सुनार के पास ले गया। सुनार ने मूर्ति पर प्रहार करने हेतु
जैसे ही हथोड़ी उठाई, वैसे ही मूर्ति से रक्त की धारा फूट पड़ी और मूर्ति अदृश्य होकर पुनः मंदिर में आ गई।
कहा जाता है कि तब से उस मूर्ति को जो भी देखता है वह अन्धा हो जाता है।
वाराही धाम का इतिहास पाण्डवों से भी जुड़ा बताया जाता है। मन्दिर के पश्चिमी छोर पर एक विशाल भीम शिला है, जिस पर चौसर खेलते हुए पाण्डवों के हाथों के निशान बताये जाते हैं। एक अन्य कथा के अनुसार इस क्षेत्र के लोगों का मानना है कि उनके पूर्वजों ने भी महाभारत युद्ध में प्रतिभाग किया था। उस महान ऐतिहासिक घटना को चिरस्थाई बनाने के लिए ही देवीधूरा में बग्वाल खेलने की परम्परा शुरू हुई।
बहरहाल वाराही शक्तिपीठ को लेकर अनेकानेक रहस्यमयी कथाएँ प्रचलित हैं । एक सप्ताह तक चलने वाले इस आषाढ़ी कौतिक बग्वाल में देवीधुरा के आसपास के ढरांज, कोहला, कटना, स्यूड़ा, मथेला, छाना, सिलपड़, दादिनी, गवई, मौरना, जाख, अर्नपा, रिखौली, बसान, पाटी इत्यादि अनेक गांव के ग्रामीण शामिल होते हैं। बताया जाता है कि इस युद्व में शामिल होने वाला योद्धा एक माह पूर्व से ही व्रत इत्यादि कर स्वयं को शुद्घ करता है। युद्घ में भाग लेने वाले योद्वा की पवित्रता हेतु अपनी पत्नी तक के हाथ का बना भोजन भी वर्जित होता है । मान्यता है कि योद्वा की शुद्घता ही उसे घायल होने से बचाती है। आमतौर पर पर्वतीय क्षेत्र में उगने वाली जहरीली बिच्छू घास से घायल योद्धाओं का उपचार किया जाता है।
कुल मिलाकर वाराही शक्तिपीठ की गाथाएं रहस्यों व रोमांच से भरी हुई हैं और ऐतिहासिक बग्वाल मेला भी दुनियां में अपनी तरह का एक रहस्यमय मेला है, जो अब उत्तरोत्तर विस्तार ले रहा है।
रमाकान्त पन्त



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