महातीर्थ प्रयाग की महिमां: जानकर हो जाएंगे धन्य ,त्रेता का श्रेष्ठ तीर्थ पुष्कर, द्वापर का कुरुक्षेत्र और कलियुग में प्रयाग की है अद्भूत विशेषता

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तीर्थराज प्रयाग की महिमां अपरम्पार है पुराणों में प्रयाग की बड़ी ही अद्भूत महिमां वर्णित है कूर्मपुराण के चौंतीसवे अध्याय से लेकर सैतीसवें अध्याय तक प्रयाग महात्म्य का सुन्दर वर्णन मिलता है मार्कण्डेय ऋषि ने युधिष्ठिर को यहाँ की भूमि का यशोगान करते हुए प्रयाग संगम स्नान का फल बताया है

मार्कण्डेय ऋषि ने पाण्डु नन्दन युधिष्ठिर के पूछने पर इस भूभाग की महिमां का वर्णन करते हुए कहा है मनुष्यों के लिए पाप को नष्ट करनें हेतु प्रयाग की यात्रा करना श्रेष्ठ उपाय है वहां सभी के ईश्वर महादेव रुद्रदेव और स्वयम्भू भगवान ब्रह्मा देवताओं के साथ विराजमान है वत्स ! प्राचीन काल में महर्षियों द्वारा कही गयी (प्रयाग की महिमा) एवं प्रयाग-निवास का फल आदि जो कुछ मैंने सुना है, उसे मैं भली -भाँति आपको बतलाऊँगा। यह प्रजापति-क्षेत्र तीनों लोकों में विख्यात है। यहाँ पर स्नान करने वाले स्वर्गलोक में जाते हैं और जो यहाँ मृत्युको प्राप्त होते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता। यहाँ ब्रह्मा आदि देवता मिलकर (प्रयाग-निवासियों की) रक्षा करते हैं और सभी पापों को दूर करने वाले अन्य भी अनेक तीर्थ यहाँ हैं। मैं सैकड़ों वर्षों में भी उनका वर्णन नहीं कर सकता

साठ हजार धनुष जाह्नवी (गङ्गा) की रक्षा करते हैं और सात अश्वोंको वाहन बनाने वाले सवितादेव सदा यमुना की रक्षा करते हैं। प्रयाग में विशेष रूप से इन्द्र निवास करते हैं। समस्त देवों से युक्त विष्णु प्रयागमण्डल की रक्षा करते हैं

(प्रयागके विशाल) वट वृक्ष की महिमां का वर्णन करते हुए ऋषि मार्कण्डेय धर्मराज युधिष्ठर को बताते हुए कहते है हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले महेश्वर नित्य यहाँ निवास करते हैं और सभी पापों को हरने वाले इस शुभ स्थान की रक्षा सभी देवता करते हैं। हे नराधिप ! जो लोग अपने कर्मों से घिरे हैं तथा जिनका छोटे से भी छोटा पाप बचा रहता है, वे लोग उस मोक्ष-पद को प्राप्त नहीं करते, किंतु प्रयाग का स्मरण करने वाले के सभी पाप नष्ट हो जाते है

*दर्शनात् तस्य तीर्थस्य नाम संकीर्तनादपि । मृत्तिकालम्भनाद् वापि नरः पापात् प्रमुच्यते*

इस (प्रयाग) तीर्थ के दर्शन करने से, नाम का संकीर्तन करने से अथवा यहाँ की मिट्टी का स्पर्श करने से भी मनुष्य पाप से मुक्त हो जाता है। राजेन्द्र ! यहाँ (प्रयाग में) पाँच कुण्ड हैं, जिनके बीच में जाह्नवी (गङ्गा) स्थित प्रयाग में प्रवेश करने वाले का पाप तत्क्षण ही नष्ट जाता है।सहस्रों योजन दूर से भी जो मनुष्य गङ्गाका स्मरण करता है, वह दुष्कृत करने वाला होने पर भी परम गति को प्राप्त करता है 

इस भूमि का स्मरण करते हुए कीर्तन करने से मनुष्य पाप मुक्त हो जाता है और इसका दर्शन करने से सर्वत्र मंगल ही मंगल दिखलायी पड़ता है यहां आचमन व स्नान करनें से स्वर्ग लोक में प्रतिष्ठा प्राप्त होती है

*कीर्तनान्मुच्यते पापाद् दृष्ट्वा भद्राणि पश्यति तथोपस्पृश्य राजेन्द्र स्वर्गलोके महीयते*

आगे प्रयाग महिमां का बखान करते हुए मार्कण्डेय ऋषि कहते है कोई मनुष्य व्याधिग्रस्त हो, दीन हो अथवा कुद्ध हो, यदि वह प्रयत्नपूर्वक गङ्गा-यमुना के समीप पहुँचकर प्राण- त्याग करता है तो वह सूर्य के समान उद्दीप्त, स्वर्णिम आभावाले विमानों से युक्त होकर अभीष्ट पदार्थों को प्राप्त करता है-ऐसा श्रेष्ठ मुनिजनोंका कहना है

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*प्रयाग की पावन भूमि मनुष्य को आनन्द प्रदान करनें वाली भूमि कही गयी है स्वर्ग व मोक्ष को देने वाली भूमि कही गयी है इतना ही नहीं आगे गंगा की पावन स्थली का वर्णन करते हुए वर्णित किया गया है जो व्यक्ति स्वकार्य पितृकार्य अथवा देवताओं की पूजा करते समय प्रयागराज का स्मरण करता है वह धन्य है यहां गाय का दान करना परम पुण्य माना गया है प्रयाग की महापुण्यदायी भूमि पर पैदल भ्रमण करना बहुत ही पुण्य माना जाता है*

मार्कण्डेय ऋषि यहाँ के तीर्थों का वर्णन करते हुए युधिष्ठिर को बताते है

यहाँ पर प्रमुख दस हजार तीर्थ तथा साठ करोड़ दूसरे तीर्थों का सांनिध्य है। योगयुक्त सत्त्वगुणी मनीषी की जो गति होती है वही गति गङ्गा- यमुना के संगम पर प्राण त्याग करने वाले की होती है। हे युधिष्ठिर ! तीनों लोकों में विख्यात प्रयाग में जो नहीं पहुँचते, जहाँ-कहीं भी निवास करने वाले वे लोग इस संसार में जीवित रहते हुए भी मृतक के तुल्य हैं

*न ते जीवन्ति लोकेअस्मिन् यत्र तत्र युधिष्ठिर*

*इस प्रकार परम पद रूप इस प्रयाग तीर्थ का दर्शन कर मनुष्य सभी पापों से उसी प्रकार मुक्त हो जाता है, जैसे चन्द्रमा राहु से मुक्त हो जाता है। यमुना के दक्षिण किनारे पर कम्बल और अश्वतर नामक दो नाग स्थित हैं। वहाँ स्नान करने और जल पीने से सभी पापों से मुक्ति हो जाती है*

महादेव के उस स्थान पर जाकर मनुष्य अपने को तथा दस पूर्व की और दस बाद की सभी पीढ़ियों को तार देता है। वहाँ *स्नान करने से मनुष्य अश्वमेध का फल प्राप्त करता है तथा महाप्रलयपर्यन्त स्वर्गलोक प्राप्त करता है हे राजन् ! गङ्गा के पूर्वी तट पर तीनों लोकों में विख्यात सर्वसामुद्र* नामक गह्वर तथा प्रतिष्ठान प्रसिद्ध है। वहाँ ब्रह्मचर्यपूर्वक तथा क्रोधजयी होकर तीन रात्रि निवास करने वाला (मनुष्य) सभी पापों से निर्मुक्त होकर अश्वमेध का फल प्राप्त करता है। प्रतिष्ठान नामक स्थान के उत्तर तथा भागीरथी की बायीं ओर तीनों लोकों में विख्यात हंसप्रपतन नामक तीर्थ है। उसके स्मरणमात्र से अश्वमेध का फल प्राप्त होता है और (वहाँ जानेवाला व्यक्ति) जबतक सूर्य एवं चन्द्रमा हैं, तब तक स्वर्ग में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है

*अश्वमेधफलं तत्र स्मृतमात्रात् तु जायते। यावच्चन्द्रश्च सूर्यश्च तावत् स्वर्गे महीयते*

जो व्यक्ति उर्वशी के हंस के समान अति धवल रम्य,विस्तृत तट पर प्राणों का परित्याग करता है,उसका भी जो फल है, वह सुनो-हे नराधिप। वह व्यक्ति साठ हजार साठ सौ वर्षों तक पितरों के साथ स्वर्गलोक में निवास करता है। रमणीय संध्यावट (प्रयागके वट-विशेष) के नीचे जो मनुष्य जितेन्द्रिय होकर ब्रह्मचर्यपूर्वक पवित्रता से उपासना करता है, वह ब्रह्मलोक प्राप्त करता है। जो कोटितीर्थ (प्रयाग में स्थित तीर्थ) में पहुँचकर प्राणों का परित्याग करता है, वह हजार करोड़ वर्षों तक स्वर्गलोक में पूजित होता है। जहाँ बहुत से तीर्थों एवं तपोवनों से युक्त महाभागा गङ्गा विद्यमान हैं, 

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*उस क्षेत्र को सिद्धक्षेत्र जानना चाहिये इसमें किसी भी प्रकारका विचार (संशय) करना उचित नहीं है। गङ्गा पृथ्वी पर मनुष्यों को तारती है, नीचे पाताल लोक में नागों को तारती है और द्युलोक में देवताओंको तारती है, इसलिये यह त्रिपथगा कही जाती है*

जितने वर्ष तक पुरुष की अस्थियाँ गङ्गा में रहती हैं, उतने हजार वर्षों तक वह स्वर्गलोक में पूजित होता है। (गङ्गा) सभी तीर्थों में परम तीर्थ और नदियों में श्रेष्ठ नदी है, *वह सभी प्राणियों, यहाँ तक कि महापातकियों को भी मोक्ष प्रदान करने वाली है। गङ्गा (स्नान) सर्वत्र सुलभ होनेपर भी गङ्गाद्वार (हरिद्वार), प्रयाग एवं गङ्गासागर – इन तीन स्थानों में दुर्लभ होती है। (उत्तम) गति की इच्छा करने वाले तथा पाप से उपहत चित्तवाले सभी प्राणियोंके लिये गङ्गाके समान और कोई दूसरी गति नहीं* है 

यह सभी पवित्र वस्तुओं से अधिक पवित्र और सभी मङ्गलकारी पदार्थों से अधिक माङ्गलिक है। महेश्वर (के मस्तक) से होकर इस लोक में आने के कारण यह सभी पापों का हरण करनेवाली और शुभ है। सत्ययुगमें अनेक तीर्थ होते हैं, त्रेता का श्रेष्ठ तीर्थ पुष्कर है, द्वापर का कुरुक्षेत्र और कलियुग में गङ्गाकी ही विशेषता है। गङ्गाकी ही सेवा करनी चाहिये, विशेष रूप से प्रयाग में गङ्गाकी सेवा करनी चाहिये। कलियुग में उत्पन्न अत्यन्त कठिन पाप को दूर करने में कोई अन्य तीर्थ समर्थ नही है

*प्रयाग माहात्म्य में माघ मास में संगम स्नान का फल बताते हुए मार्कण्डेय ऋषि युधिष्ठर को उपदेश देते है युधिष्ठिर! गङ्गा और यमुना के संगम पर माघ महीने में साठ हजार साठ सौ तीर्थ जाते हैं। सौ हजार गौओं का भली भाँति दान करने का जो फल होता है, वही फल प्रयाग में माघ मास में तीन दिन स्नान करनेका होता है। गङ्गा और यमुना के संगमपर जो करीषाग्निका सेवन करता है, अर्थात् सूखा गोमय इससे अग्नि बनाकर उसके मध्य तपस्या करता है वह अहीनाङ्ग (हीन अङ्गसे रहित) अर्थात् सम्पूर्ण अवयवों से सम्पन्न, रोगरहित तथा पाँचों इन्द्रियोंसे युक्त होता है*

(युधिष्ठिर) ! उस मनुष्य के शरीर में जितने रोमकूप होते हैं, उतने हजार वर्षो तक वह स्वर्गलोक में पूजित होता है। तदनन्तर स्वर्ग से भ्रष्ट होनेपर वह जम्बूद्वीप का स्वामी होता है और विपुल भोगों का उपभोग करने के अनन्तर वह पुनः इस तीर्थ प्रयाग को प्राप्त करता है

*ततः स्वर्गात् परिभ्रष्टो जम्बूद्वीपपतिर्भवेत् । स भुक्त्वा विपुलान् भोगांस्तत् तीर्थ भजते पुनः*

(गङ्गा-यमुनाके) लोक-प्रसिद्ध संगम पर जो जल में प्रवेश करता है, वह जिस प्रकार राहु से ग्रस्त चन्द्रमा मुक्त हो जाता है,वैसे ही सभी पापों से मुक्त हो जाता है। वह चन्द्रलोक में जाता है और साठ हजार साठ सौ वर्षों तक चन्द्रमा के साथ आनन्दोपभोग करता है। हे राजेन्द्र ! तदुपरान्त मुनियों एवं गन्धर्वो से सेवित वह स्वर्गलोक से इन्द्रलोक में जाता है और वहाँ से भ्रष्ट होने पर इस लोक में आकर धनवानों के कुलमें जन्म लेता है। जो मनुष्य (यहाँ प्रयाग में) पैर ऊपर और सिर नीचे करके लोहे की धारा का पान (तपस्या- विशेष) करता है, वह सौ हजार वर्षां तक स्वर्गलोक में पूजित होता है

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*प्रयाग माहात्म्य में यमुना की महिमां यमुना के तटवर्ती तीर्थो का वर्णन तथा गंगा में सभी तीर्थो की स्थिति* बताते हुए मार्कण्डेय जी ने कहा है सूर्य की तीनों लोकों में विख्यात पुत्री महाभागा यमुना नदी यहाँ पर मिली है जिस मार्ग से गङ्गा प्रवाहित हुई हैं, उस मार्ग से यमुना भी गयी हैं। सहस्रों योजन दूरपर भी (यमुना) नाम लेने से पापोंको नष्ट कर देने वाली है। युधिष्ठिर! इस यमुना में स्नान करने तथा इसका जल पीने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त होकर अपने सात पीढ़ियों के कुलों को पवित्र कर देता है। जो यहाँ प्राणों का परित्याग करता है, वह परम गतिको प्राप्त करता है। यमुना के दक्षिणी तट पर अग्नितीर्थ नामका एक विख्यात तीर्थ है। यमुना के पश्चिमी भाग में धर्मराज का ‘अनरक’ नामक तीर्थ कहा गया है। यहाँ स्नान करने वाले स्वर्ग जाते हैं और जो यहाँ मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता

यहाँ (अनरक तीर्थ में) कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को स्नान करके पवित्रतापूर्वक जो धर्मराज का तर्पण करता है, वह निस्संदेह महापापों से मुक्त हो जाता है। मनीषी लोगों का यह कहना है कि प्रयाग में दस हजार (प्रधान) तीर्थ और तीस करोड़ दूसरे (अप्रधान) तीर्थ स्थित हैं 

वायुने कहा है कि द्युलोक, भूलोक और अन्तरिक्ष में साढ़े तीन करोड़ तीर्थ हैं। और जाह्नवी उन सभी तीर्थों से युक्त कही गयी है। जहाँ महाभागा गङ्गा होती हैं, वही (पवित्र) देश है और वही तपोवन होता है। गङ्गा के तट पर स्थित उस स्थान को सिद्धि क्षेत्र समझना चाहिये। जहाँ देवी के साथ महादेव महेश्वरदेव वटेश्वर स्थित हैं, वह स्थान नित्य तीर्थ है और वह तपोवन है। इस सत्य को द्विजातियों, साधुओं, मित्रों, अपने पुत्र तथा अनुगामी शिष्य के कान में कहना चाहिये

*इदं सत्यं द्विजातीनां साधूनामात्मजस्य च सुहृदां च जपेत् कर्णे शिष्यस्यानुगतस्य तु*

यह (प्रयाग) धन्य है, स्वर्गफलप्रद (स्वर्गरूप फलको देनेवाला) है, यह पवित्र, सुख, पुण्य, रमणीय, पावन और उत्तम धर्मयुक्त है। यह महर्षियों के लिये गोपनीय रहस्य है। सभी पापों को नष्ट करने वाला है। यहाँ द्विज वेद का स्वाध्याय कर निर्मल हो जाता है। जो व्यक्ति नित्य पवित्रतापूर्वक इस पुण्यप्रद तीर्थ का वर्णन सुनता है, वह जन्मान्तर की बातों को स्मरण करने वाला हो जाता है और स्वर्गलोक में आनन्द प्राप्त करता है। शिष्ट मार्गका अनुसरण करने वाले सज्जन पुरुष ऐसे तीर्थों में जाते हैं। कुरुके वंशधर (युधिष्ठिर) ! तीर्थों में स्नान करो। इस विषय में विपरीत बुद्धि वाले मत होओ

ऐसा कहकर उन भगवान् मार्कण्डेय महामुनि ने (युधिष्ठिर के द्वारा) पूछे जाने पर पृथ्वी में जो कोई भी तीर्थ थे, उन्हें बतलाया और पृथ्वी तथा समुद्र आदि की स्थिति एवं नक्षत्रों की स्थितिका सम्पूर्ण वर्णन कर वे मुनि चले गये

*@ रमाकान्त पन्त*

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