मानव-जीवन में सूर्य के महत्व से सब परिचित हैं। इस संसार का सम्पूर्ण भौतिक विकास ही सूर्य पर निर्भर है। संभवतः इसीलिए विभिन्न भारतीय धर्मग्रंथों में सूर्य की स्तुति एवं महत्ता का वर्णन किया गया है। श्रीमद्भागवत के अनुसार सूर्य द्वारा दिशा, आकाश, भूलोक, स्वर्ग और मोक्ष के प्रदेश, नरक एवं रसातल का विभाजन होता है। हिन्दू-धर्म में ही नहीं, अपितु अन्य धर्मों में भी सूर्य की बड़ी महिमा है। पारसियों की मान्यता है कि सूर्य देवता आरोग्य के दाता हैं तथा उनके प्रकोप से कुष्ठ आदि रोग होते हैं। भारतीय ग्रंथों में सूर्य को आरोग्य-दाता कहा जाता है। संक्रमण रोगों का प्रकोप ऐसे स्थानों पर होता है, जहां सूर्य की रश्मियां नहीं पहुंच पाती।सूर्य की रश्मियां पृथ्वी पर स्थित रोग-जनक कृमियों को नष्ट कर प्राणियों एवं वनस्पतियों को शक्ति प्रदान करती हैं।
भारत में सूर्य – उपासना वैदिक काल से ही प्रचलित है। सूर्य-उपासक भगवान सूर्य को इस पृथ्वी का जनक, पालक और विनाशक मानते हैं। उनकी मान्यता है कि यदि सूर्य नहीं होता, तो न यह पृथ्वी होती और न ही जीवन होता। यह मान्यता विज्ञान के सिद्धांतों के भी बहुत निकट है।
सूर्य-उपासक, सूर्य को आरोग्य-दाता मानते हैं। उनके अनुसार रक्त का पीलापन, पतलापन, उसमें लोहे की कमी, नसों एवं स्नायु की दुर्बलता,आंखों की कमजोरी, आधासीसी, कुष्ठ रोग, चर्मरोग आदि दुसाध्य रोग सूर्य की उपासना से ठीक हो जाते हैं। प्रात: कालीन धूप के सेवन से क्षयरोग को दूर करने में सहायता मिलती है। इसी प्रकार जल-चिकित्सा पद्धति में विभिन्न रंगों की बोतलों में पानी भर कर, उन्हें सूर्य की रोशनी एव धूप में रखा जाता है और उन बोतलों का पानी रोगियों को पिलाया जाता है।
सूर्य की उपासना से कुष्ठ-रोग दूर होने की कई धार्मिक कथाएं प्रचलित हैं। भगवान कृष्ण के पुत्र साम्ब को जब कुष्ठ रोग हुआ था, तो उसने भगवान सूर्य की उपासना की थी, जिससे उसका यह असाध्य रोग दूर हो गया था। उड़ीसा में कोणार्क का सूर्य मंदिर आज जिस स्थान पर बना हुआ है, कहा जाता है, वहीं साम्ब ने तपस्या की थी।
मान्यता है कि अयोध्या के निकट सूर्य-कुण्ड जलाशय में स्नान करने से चर्म रोग दूर हो जाते हैं। गोवर्धन परिक्रमा के मार्ग में पड़ने वाले सुरभि कुण्ड़ में स्नान करने से भी कुष्ठ रोग दूर हो जाता है।
नेत्र रोगों को दूर करने के लिए चक्षुषी विद्या, अक्षि-उपनिषद विद्या के माध्यम से सूर्य-उपासना करने का धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख मिलता है। धारणा तो यहां तक है कि कांसे के पत्रे पर बने बत्तीसा-यंत्र के सामने चक्षोपनिषद का पाठ करते हुए, सूर्य-उपासना करने से न केवल नेत्र ज्योति बढ़ती है, अपितु मोतियाबिंद तक कट जाता है।
सूर्य-स्नान एवं सूर्य नमस्कार के चमत्कारों से तो सभी परिचित हैं। यूरोपीय देशों में सूर्य-स्नान काफी लोकप्रिय है, जबकि सूर्य नमस्कार के रूप में किये जाने वाले व्यायाम से शरीर स्वस्थ, बलिष्ठ, निरोगी एवं दीर्घजीवी होता है।
सूर्य इस संसार के जीवन-दाता, पालक और आरोग्य-दाता है। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है ‘ *ज्योतिषां रविरंशुमान।’*
इस तरह भारत में सूर्य आदिकाल से ही जन-आस्था, श्रद्धा, आराधना एवं उपासना का केंद्र रहा है। भारत के विभिन्न भागों में बने भव्य सूर्य मंदिर इस तथ्य को उजागर करते हैं कि हर युग में भारत में सूर्य की आराधना एवं उपासना प्रचलित रही है।
खगोल शास्त्रियों ने जब सूर्य की गति का पता लगाया, तो सूर्य – उपासना की एक नई पद्धति प्रचलित हुई। सूर्य जब नभमंडल में एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है, तब उसे संक्रांति कहा जाता है। इस तरह हर वर्ष बारह संक्रांतियां होती है, पर इनमें सबसे महत्वपूर्ण मकर – संक्रांति कहलाती है। इस दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है। चूंकि सूर्य 365 दिनों अर्थात् एक वर्ष की निश्चित अवधि में बारह राशियों का ही भ्रमण कर डालता है, इसलिए मकर संक्रांति एक निश्चित दिन अर्थात् चौदह जनवरी को ही होती है। भारतीय मान्यता के अनुसार इस दिन का एक और विशेष महत्व है। मकर संक्रांति के दिन सूर्य दक्षिणायण से उत्तरायण में प्रवेश करता है।
भारत में उत्तरायण के सूर्य का विशेष महत्व है। हर शुभ काम के लिए तभी मुहूर्त निकाला जाता है, जब सूर्य उत्तरायण में हो। उत्तरायण में सूर्य का झुकाव उत्तर की ओर होता है। सूर्य के उत्तरायण में होने का भारत में कितना महत्व है, इसका प्रमाण हमें महाभारत में मिलता है। भीष्म पितामह ने दक्षिणायण के सूर्य के समय अपनी देह नहीं त्यागी थी, क्योंकि वे स्वर्ग में प्रवेश उत्तरायण के सूर्य में करना चाहते थे।
मकर संक्रांति भारत में विभिन्न नामों के साथ मनाई जाती है। अलग-अलग क्षेत्रों में इस दिन अलग-अलग पद्धतियां भी अपनाई जाती हैं, पर सबका उद्देश्य एक ही है- सूर्य की उपासना एवं आराधना। इस दिन पवित्र नदियों, सरोवरों एवं कुण्डों में स्नान करने, दान करने एवं सूर्य को जल चढ़ाने का बड़ा धार्मिक महत्व है। इसीलिए मकर संक्रांति के दिन तीर्थ स्थलों पर हजारों नर- नारी स्नान करते हैं एवं दान देते हैं। शीतकाल होने के कारण इस दिन तिल और गुड़ के सेवन तथा दान को भी महत्वपूर्ण माना जाता है। इस दिन तिल को पीसकर उबटन बनाकर उसे लगाया जाता है तथा फिर स्नान किया जाता है। दान में तिल और गुड़ से बनी वस्तुएं दी जाती है।उत्तर भारत में इस दिन तिल एवं खिचड़ी खायी जाती है तथा इन्हीं वस्तुओं का दान किया जाता है। बंगाल तथा उड़ीसा में भी यही प्रथा प्रचलित है। महाराष्ट्र एवं दक्षिण भारत में सौभाग्यवती स्त्रियां आपस में विभिन्न वस्तुएं भेंट करती हैं। महाराष्ट्र में इस प्रथा को हल्दी – कुंकुं कहा जाता है। इस दिन सौभाग्यवती स्त्रियों को हल्दी एवं कुमकुम के तिलक लगाए जाते हैं। पंजाब में मकर संक्रांति को लोहड़ी पर्व के रूप में मनाया जाता है।
कई स्थानों पर इस दिन बालक और युवक पतंग उड़ाते हैं। ब्राह्मण इस दिन अपने यज्ञोपवीत बदलते हैं। ब्राह्मणों को अनाज एवं खाद्य- पदार्थों से भरे बर्तन भी दिये जाने की प्रथा कई क्षेत्रों में है।
मकर संक्रांति का यह पर्व आरोग्य की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। तिल एवं गुड़ के सेवन से शरीर में शीत जनित व्याधियां एवं बीमारिया दूर हो जाती है। तिल के उबटन से त्वचा की कांति बढ़ती है।भारतीय धर्मग्रंथ भी मकर- संक्रांति के महत्व से भरे पड़े हैं। मकर संक्रांति पर सूर्य की उपासना विशेष फलदायी होती है। एक धार्मिक कथा के अनुसार सूर्य की उपासना एवं मकर संक्रांति के व्रत के फलस्वरूप यशोदा को कृष्ण पुत्र के रूप में प्राप्त हुए थे।
अंजनी सक्सेना-विनायक फीचर्स)
(विनायक फीचर्स)
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