मार्कण्डेय महादेव मंदिर भक्ति व आस्था का महासंगम
वाराणसी। काशी के ग्रामीण अंचल में गंगा तट के निकट स्थित मार्कण्डेय महादेव मंदिर में इन दिनों श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ रही है। पौराणिक मान्यता के अनुसार यही वह पवित्र स्थल है जहाँ ऋषि मार्कण्डेय को अल्पायु प्राप्त होने पर जब यमराज उनके प्राण लेने आए थे, तब बालक मार्कण्डेय शिवलिंग से लिपट गए थे।
कहा जाता है जैसे ही यमराज ने अपने पाश से बालक मार्कण्डेय को पकड़ने का प्रयास किया, शिवलिंग फट पड़ा और भगवान शिव स्वयं प्रकट होकर यमराज को पराजित कर दिया। इसके बाद भगवान शिव ने बालक को न केवल दीर्घायु का आशीर्वाद दिया बल्कि अमरत्व का वरदान भी प्रदान किया। इसी चमत्कारी घटना के कारण इस स्थान को “यम-निषिद्ध स्थल” भी कहा जाता है—जहाँ स्वयं यमराज भी पराजित हो गए थे।
इस क्षेत्र के आस्थावान भक्त विजेन्द्र पाण्डे बताते है आज यह मंदिर बनारस के प्रमुख आध्यात्मिक स्थलों में शुमार है। सावन, महाशिवरात्रि और कार्तिक पूर्णिमा पर यहां विशेष मेले का आयोजन होता है। श्रद्धालु मानते हैं कि यहाँ दर्शन करने से आयु वृद्धि, संकट से मुक्ति और परिवार में सुख-समृद्धि प्राप्त होती है।
आस्था, चमत्कार और शिव-भक्ति की यह कथा आज भी बनारस के मार्कण्डेय महादेव मंदिर को अद्वितीय और चमत्कारी शक्ति स्थल के रूप में प्रतिष्ठित करती है। बनारस शहर से यह मंदिर तीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है
मार्कण्डेय ऋषि : मृत्यु को पराजित करने वाले अद्भुत तपस्वी की गौरवगाथा
भारतीय धार्मिक परंपरा में कुछ ऋषियों ने अपनी तपस्या, निष्ठा और भक्ति के बल पर ऐसे चमत्कारिक स्थान प्राप्त किए, जिनकी स्मृति युगों-युगों तक जीवित रहती है। ऋषि मार्कण्डेय ऐसी ही दिव्य विभूति थे ज्ञान, तप और अटल श्रद्धा के प्रतीक। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि भक्ति में वह शक्ति है, जो मृत्यु जैसी अटल सत्य को भी पराजित कर सकती है।
जन्म और अल्पायु का वरदान
मार्कण्डेय का जन्म महान तपस्वी मृकंडु ऋषि और उनकी पत्नी मरुद्वती के घर हुआ। कहा जाता है कि दंपत्ति संतान प्राप्ति के लिए वर्षो से तप कर रहे थे। जब भगवान शिव उनके समक्ष प्रकट हुए, उन्होंने विकल्प दिया अल्पायु किन्तु तेजस्वी पुत्र या साधारण आयु वाला सामान्य बालक।मृकंडु ऋषि ने पहला विकल्प चुना और इसी निर्णय से जन्म हुआ मार्कण्डेय का एक तेजस्वी किंतु अल्पायु वाले दिव्य बालक का।
अल्पायु होते हुए भी अखंड भक्ति
मार्कण्डेय बाल्यावस्था से ही अत्यंत ज्ञानवान, विनम्र और ईश्वरभक्त थे। जैसे-जैसे वे 14 वर्ष की आयु के निकट पहुँचे, उन्हें अपने अल्पायु होने का संकेत भी मिल चुका था। किंतु भय के बजाय उनके हृदय में शिवभक्ति और अधिक गहन हो गई। वे प्रतिदिन घंटों ध्यान, जप और शिवलिंग की पूजा में लीन रहते। कहा जाता है कि उनका तेज ऐसा था कि प्रकृति भी उन्हें देखकर शांत हो जाती थी।
यमराज से निर्णायक सामना
जब नियत समय आया, यमराज ने उनका प्राण लेने के लिए पाश फेंका। किंतु युवा मार्कण्डेय भयभीत न हुए—वे पूरे समर्पण के साथ शिवलिंग से लिपट गए और ओम नमः शिवाय का जाप करने लगे।
उसी क्षण शिवलिंग फट पड़ा, और भगवान शिव प्रकट हुए उन्होंने यमराज को पराजित किया और घोषणा की कि उनके भक्त पर मृत्यु का अधिकार नहीं।
यहीं मार्कण्डेय को अक्षय आयु और अमरत्व का वरदान मिला।
अमरत्व का प्रतीक—महामृत्युंजय स्तोत्र
माना जाता है कि महामृत्युंजय मंत्र, जो मृत्यु, रोग और भय पर विजय का सर्वोच्च स्तोत्र है, मार्कण्डेय ऋषि की ही देन है। उनके अनुभव और शिव-कृपा के प्रत्यक्ष साक्षात्कार ने इस अद्भुत मंत्र को जन्म दिया, जो आज भी भारत में भय, संकट और रोग निवारण के लिए सबसे शक्तिशाली स्तोत्र माना जाता है।
वेद-पुराणों में योगदान
मार्कण्डेय ऋषि केवल भक्ति और तप के प्रतीक नहीं थे, बल्कि महान वैदिक विद्वान भी थे। उनके नाम से प्रसिद्ध मार्कण्डेय पुराण में धर्म, नीति, पौराणिक कथाएँ, देवी महात्म्य और समाज जीवन को दिशा देने वाली अनेकों उपदेशात्मक कथाएँ मिलती हैं। विशेष रूप से दुर्गा सप्तशती का मूल प्रसंग भी इसी पुराण में वर्णित है।
आज का श्रद्धा-स्थल मार्कण्डेय महादेव
भारत में अनेक स्थानों पर मार्कण्डेय ऋषि की स्मृति जुड़ी है, किन्तु वाराणसी के निकट स्थित मार्कण्डेय महादेव मंदिर सबसे प्रसिद्ध है। माना जाता है कि यमराज और भगवान शिव का यह दिव्य संवाद यहीं हुआ था। इस स्थल को “यम-निषिद्ध स्थान” भी कहा जाता है—जहाँ मृत्यु ने हार मान ली थी।
मार्कण्डेय की कहानी क्यों अमर है?
मार्कण्डेय ऋषि की जीवनगाथा हमें सिखाती है—
भक्ति में वह शक्ति है जो असंभव को संभव कर देती है
मृत्यु का भय भी समर्पित मन को विचलित नहीं कर सकता
ईश्वर सच्चे भक्त की रक्षा अवश्य करते हैं
ज्ञान, तप, और श्रद्धा से जीवन दिव्य बन जाता है
ऋषि मार्कण्डेय का जीवन उस अडिग विश्वास का प्रतीक है जिसकी छाया में मनुष्य मृत्यु, भय, पीड़ा और कर्मबंधन सभी से पार पा सकता है।
उनकी कथा आज भी भारतीय संस्कृति का अविनाशी प्रकाशस्तंभ बनी हुई है।
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