पलायन से पहाड़ की संस्कृति को खतरा

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पलायन से पहाड़ की संस्कृति खतरे में पड़ गई है।गाँव के गाँव वीरानें की ओर अग्रसर है।रोजगार के अभाव में युवाओं का रुख शहरी क्षेत्रों की ओर होनें से पहाड़ की जवानी अब पहाड़ की वादियों को छोड़ते जा रहे है।अनियोजित व अनियन्नित विकास व वनों के अधांधुध दोहन से पहाड़ की पीड़ा विकट रुप धारण करते जा रही है। इस कारण भी गाँव के गॉव खाली होते जा रहे है। राज्य में अभी भी अनेक स्थानों पर लोग नदियां पार करने के लिए रस्सियों या झूला पुलों का सहारा लेते हैं। जिन बिन्दुओं को लेकर उत्तराखण्ड राज्य की नींव पड़ी थीं उन मुद्दों पर शायद ही कार्य हुआ हो। उत्तराखण्ड राज्य का निर्माण ही यहां पर अछूते विकास को आगे बढ़ाना था लेकिन यहां पर विकास के नाम पर विनाश हो रहा हैै।और गांव के गांव खाली होते जा रहे है।
जिस कारण देवभूमि प्रलयंकार दुर्दशा से जूझ रही है।

हिमालयी भूमि के साथ छेड़छाड़ मानव जाति को महंगी पड़ सकती है। भयावह तस्वीरें इसी बात की ओर इशारा करती हैं। राजनीतिज्ञों, माफिया, नौकरशाहों तथा ठेकेदारों की अपवित्र गठजोड़ ने सुनहरी घाटियों को कंक्रीट के जंगलों में तब्दील करके रख दिया है जिसके चलते वन्य जीव-जन्तुओं की प्रजातियां दिन पर दिन घटती जा रही है।अलग राज्य निर्माण के बावजूद पहाड़ के धुर पिछड़े गांवों की तकदीर व तस्वीर नहीं बदल पायी है। विकास की रोशनी तक को तरसते इन गांवों की खौफनाक त्रासदी तो यह है कि आज इनकी गांव-ब्लाक की नुमान्दगी भी शहरी ठाठ-बाट में कैद हो चली है। हालत यह है कि प्रधानी से लेकर क्षेत्र व जिला पंचायत तक के अधिसंख्य प्रतिनिधि आज शहरों में इन गांवों की लड़ाई लड़ रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे पूर्व में लखनऊ में बैठे खैर-ख्वाह अब देहरादून में सुध लेने लगे हैं।कुछ नया हो न हो, इस नव सृजित उत्तराखण्ड में यह नयी संस्कृति जरूर पैदा हो गयी। विकास की रोशनी तक को तरसते हजारों गांवों की ओर निकले कदम पलायन से आज शहरी चकाचौंध की ओर मुड़ गये हैं। न होता ऐसा तो इतने दुःखों का पहाड़ झेलने के बाद भी राजधानी लखनऊ में और उल्टे सीधे देहरादून क्यों चली जाती?लेकिन इसका यहां के लोगों को इसलिए गिला नहीं कि इनके तो अपने ही गांव-ब्लाक से चुने नुमाइंदे भी आज इनसे दामन झिटककर शहरों के हो गये। उनकी सारी पंचायत और राजनीति शहर से ही चल रही है। इसी का नतीजा है कि आजादी के बाद भी आज गांव के गांव बिजली-पानी तक को महरूम हैं। हालांकि जनप्रतिनिधियों की अपनी दलील ये है कि बड़े नेता व अफसरान तो शहरों में ही पकड़े जायेंगे, गांवों में रहकर क्या वो माथा पीटें।आज पिथौरागढ़, बागेश्वर, अल्मोड़ा, चम्पावत से लेकर नैनीताल के तमाम दूरस्थ गांवों की यही राम कहानी है। इलाके बद से बद्तर होते जा रहे हैं। तमाम गांव वीरान हो गये हैं। जो रह भी रहे हैं तो जलालत भरी जिंदगी के बीच। कोठी-बंगले व अट्टालिकाओं के दौर में भी लोग आदिम मानव की तरह गुफा-कंदराओं में जीवन बसर करने को मजबूर हों। बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य को कौन पूछे। आधुनिक सुविधाएं तो इनके लिए परीलोक की बातें हैं। समृद्व जिलों में गिने जाने वाले नैनीताल जिले के ओखलकाण्ड, धारी, रामगढ़, भीमताल व बेतालघाट ब्लाकों की स्थिति भी कम नरकीय नहीं है। लोग यहां आज भी बिजली, पानी, सड़क शिक्षा स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। सरकार व प्रशासन तो दूर उनके द्वारा चुनकर भेजे गए लोग भी आज उनके अपने नहीं रहे।गांव-ब्लाकों तक के अधिसंख्य प्रतिनिधि ठाट से शहरों में रह रहे हैं, जो वहां हैं भी उन्हें चुनावो के सिवा बाकी जनता से कोई सरोकार नहीं। बहुत कम हैं तो जन प्रतिनिधि का ‘धरम’ निभा रहे हैं। गांवों की नुमाइंदगी करने वाले ऐसे जिला, क्षेत्र व ग्राम पंचायत के दर्जनों प्रतिनिधि तो हल्द्वानी व नैनीताल में ही हैं। गौरतलब यह कि ये तमाम नेतागण धुर पिछड़े गांवों का प्रतिनिधित्व करते हैं।आधुनिकता के इस दौर में भी अनेको गाव बिजली से वंचित हैं। लोगों को मीलों दूर से सिर व कंधे में पानी ढोना पड़ रहा है। और महिलाओं की तो और भी बुरी हालत है, उन्हें कोसों दूर जंगलों से घास व लकड़ी सिर पर ढोकर लानी पड़ती है। संसाधन न होने से बूढे-बीमार घरों में ही दम तोड़ देते हैं। तो इसीलिए कि इनकी दमदार नुमांइदगी नहीं हो पायी है। सरकार व प्रशासन को क्या दोष दें, जब अपने ही चुने लोग बेगाने हो जायें। लगभग पूरे पहाड़ का आज भी यही दर्द है।बेकारी बढ़ती जा रही है। व्यवसाय के नाम पर सीजन में सड़कों आदि में मेहनत-मजदूरी या फिर लकड़ी आदि का धंधा ही है। बाकी कोई संसाधन नहीं है। खेती लायक जमीन तो वैसे भी पहाड़ में नहीं के बराबर है। राशनपानी सब बाजार व कस्बों से ढोया जाता है। मीलों दूरी नापने के बाद ही सवारी मिल पाती है। इस तरह नून-तेल के जुगाड़ में ही सारी ऊर्जा व समय चूक जाता है।

नौकरी के नाम पर या तो फौज है या फिर परदेश। शराब के व्यवसाय ने नया रोग लगा दिया है। बेकारी तो है ही ऊपर से रातोंरात अमीर बनने की ललक में यहां की दिशा व दशा भी बदल दी है। जल्द ही जन प्रतिनिधि न चेते तो हालात और बद्तर हो जायेंगे।

उत्तराखण्ड में बेतरतीब विकास व जंगलों का अवैध कटान के दुष्परिणाम आज सामने आने लग गये हैं। उत्तराखण्ड के पहाड़ी जनपदों पिथौरागढ़, चमोली, टेहरी, पौड़ी, अल्मोड़ा, चम्पावत व नैनीताल के पर्वतीय इलाकों में कंक्रीट के जंगल विकसित हो गये हैं, जिससे पहाड़ के जंगलों का विनाश भी हो रहा है।
उत्तराखण्ड के हिमालयी अंचल में स्थित बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमनोत्री से लेकर वरुणावत पर्वत में जिस प्रकार पर्वतमालाओं में हलचल मची है, आने वाले दिनों में वह शुभ नहीं कहा जा सकता है। बद्रीनाथ चोटी के पास नीलकंठ पर्वत पर जो दरार दिख रही है उसे पर्यावरणविदों में चिन्ता व्याप्त हो गयी है। यदि हिमालय नहीं बचेगा तो भारत के अस्तित्व के लिए भी गंभीर संकट पैदा हो जायेगा।

हिमालय में विकास की नीतियां बनाने वालों को इस बात का कोई मतलब नहीं है कि हिमालय से गंभीर रूप से छेड़छाड़ दुनिया के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। भूकम्प और प्राकृतिक आपदाओं की दृष्टि से उत्तराखण्ड का हिमालयी क्षेत्र नाजुक व संवेदनशील क्षेत्र है। पिछले 50-60 सालों में पेड़ों के अंधाधुंध कटान होने से जंगलों का जो विनाश हुआ है उसे पहाड़ के वानस्पतिक तंत्र को गंभीर नुकसान पहुंचा है। उत्तराखण्ड भूकम्प की दृष्टि से यह क्षेत्र सिस्मिक जोन 5 के अंतर्गत आता है। यहां पर भारी निर्माण का कार्य जोरों पर चल रहा है जिसमे बिजली प्रोजेक्ट, टिहरी बांध का निर्माण, सुरंगों के निर्माण के अलावा सड़क मांगों के निर्माण से यहां की जमीन को कमजोर किया है। बांध निर्माण योजनाओं में विस्फोटकों के प्रयोग से पहाड़ के अंदरूनी हिस्से बुरी तरह कांप उठे हैं। बड़ी मशीनों के प्रयोग से पहाड़ों की जमीन को जिस प्रकार रोंदा जा रहा है वह भविष्य के लिए खतरे की घंटी बन सकती है। बेतरतीब खुदान कार्य करने से प्रति वर्ष अनेकों लोग दुर्घटना के शिकार हो रहे हैं।
गौरतलब है कि उत्तराखण्ड पर्यावरण के अनेक सशक्त हस्ताक्षर हुए हैं, जिनमें गौरा देवी, चण्डी प्रसाद भट्ट, सुन्दरलाल बहुगुणा आदि प्रमुख हैं। इन लोगों ने यहां के पर्यावरण के लिए उल्लेखनीय कार्य किये हैं लेकिन सरकार ने विकास कार्यों के आड़ में इनकी सिफारिशों पर अमल नहीं किया, जिस कारण यहां पर पर्यावरण के लिए गंभीर खामियां देखने को मिल रही हैं।
संवेदनशील स्थानों में यात्रियों के बढ़ते दबाव ने भी खतरा पैदा कर दिया है। विशेषकर केदारनाथ, बदरीनाथ, गंगोत्री, जमनोत्री तीर्थ यात्राएं होने के कारण आजकल वहां पर अंधाधुंध निर्माण कार्यों से क्षेत्र की स्थिति गंभीर होते जा रही है। जबकि यह क्षेत्र भूकम्प की दृष्टि से अत्यंत नाजुक क्षेत्रो में शुमार होता है। हिमालय के पर्यावरण और पारिस्थितिकी महत्व को समझे बिना यहां के विकास की नीतियां बनायी गयी हैं। यहां का वनस्पतियों का विशेष महत्व है। हिमालयी क्षेत्र में वृक्षों की अधिकता होने के कारण मौसम पर भी असर पड़ता था। आज ग्लोबल वार्मिंग की विश्वव्यापी समस्या का जो खतरा मंडरा रहा है उसे निपटने के लिए हिमालय के वन संरक्षक थे। लेकिन पिछले 60 वर्षों में जिस प्रकार हिमालयी क्षेत्रों में वनों का अंधाधुंध दोहन एवं विनोश हुआ है वह गंभीर खतरे की तरफ इंगित करता है। लकड़ी माफिया व लीसा माफियाओं ने बड़ी बेदर्दी से जंगलों का कत्ल किया है। इसके अलावा आग लगने से प्रति वर्ष जंगलों में करोड़ों रुपये की सम्पत्ति नष्ट होती जाती है।

भारत के लिए हिमालय के पर्यावरण को बचाना जरूरी है। हालांकि प्रति वर्ष हिमालय को बचाने के लिए तथाकथित एनजीओ करोड़ों रुपये डकार जाते हैं और कितने ही पर्यावरणवादियों को पुरस्कृत किया जाता है, लेकिन सच्चाई कुछ और ही बयां करती है। जब तक व्यवहारिक प्रयास नहीं किये जायेंगे तब तक यहां के पर्यावरण पर विशेष असर नहीं पड़ता है। हिमालय बचाने के नाम पर वातानुकूलित कमरों से निकलकर वास्तविक धरातल पर कार्य करना होगा, जिससे हिमालय बच सकता है। अगर हिमालय बचेगा तो देश भी बचा रहेगा।

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