हमारे सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार मिलावट और मुनाफाखोरी का तंत्र किस सीमा तक विकसित हो चुका है यह मध्यप्रदेश और राजस्थान में एक खांसी की दवा के सेवन से 18 बेगुनाह बच्चों की मौत से पता चलता है। यह स्थिति देश में दवाओं के कारोबार में भ्रष्ट सरकारी मशीनरी के संरक्षण में पनपे दवा सिंडिकेट का खुलासा करती है जो अपने मुनाफे और रिश्वतखोरी के लिए आमजन के जीवन से खिलवाड़ करने से भी गुरेज नहीं करते हैं। जांच के नाम पर लीपापोती की कवायद शुरू हो चुकी है। सरकारी मशीनरी अपनी खाल बचाने के लिए जांच का खेल खेल रही है जबकि इस सबके लिए भ्रष्टाचार ही जिम्मेदार है। सरकारी अस्पतालों के हाल किसी से छिपे नहीं हैं। वहां जो व्यवस्थाएं है और जिस तरह से दोयम दर्जे की दवा सप्लाई हो रहीं हैं वह किसी से छिपा नहीं है।
खांसी की दवा के नाम पर जहर पीने के बाद 18 बच्चों की मौत के बाद ‘कोल्डरिफ’ नामक सीरप पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। इस सीरप का प्रिस्क्रिप्शन लिखने वाले डाक्टर को गिरफ्तार कर लिया गया है। वहीं डाक्टर और कम्पनी के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया गया है। ये कफ सीरप तमिलनाडु की श्री सन फार्मास्यूटिकल्स फार्मा कंपनी से बनकर आए थे। मध्यप्रदेश और राजस्थान में बच्चों की मौत के बाद तमिलनाडु, केरल, उत्तर प्रदेश, झारखंड और अन्य राज्यों ने भी इस कफ सीरप की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, 2022 में कफ सिरप पीने के बाद तीन देशों में 300 बच्चों की मौत के मामले सामने आए थे।
इसके पहले मध्यप्रदेश ने नेक्स्ट्रो जीएस और कोल्ड्रिफ सीरप पर रोक लगाई थी। स्थितियों की गम्भीरता को देखते हुए केन्द्र सरकार की ओर से भी दो वर्ष से कम के बच्चों को सीरप देने पर रोक लगा दी गई है । सीरप पीने के बाद हुई बच्चों की मृत्यु के बाद उनकी बायोप्सी रिपोर्ट में सीरप में डायएथिलीन ग्लायकॉल मिलने की पुष्टि हुई। जिससे बच्चों की किडनी फेल हो गई और उनकी मृत्यु हो गई। छिंदवाड़ा में तो 24 अगस्त को यह मामला आया जिसमें 20 दिनों में नौ बच्चों की सीरप पीने से मृत्यु हुई थी। इसके बाद भरतपुर में भी यह प्रकाश में आया कि यही सीरप पीने से वहां भी बच्चों की मृत्यु हुई। छिंदवाड़ा मेडिकल कॉलेज के शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. पवन नांदुलकर की मानें तो उनका कहना है कि ज्यादातर कार के इंजन में डाले जाने वाले कूलेंट, पेंट्स या ग्रीस बनाने में इसका इस्तेमाल किया जाता है।
यह कितना दुखद है कि जीवन रक्षा या उपचार के लिये दी जाने वाली दवा ही मौत का कारण बन गयी। जो दवा की संदिग्ध गुणवत्ता और निर्माता कंपनियों की आपराधिक लापरवाही को ही उजागर करती है। राजस्थान में कुछ बच्चों की मौत की वजह का संबंध उस सिरप से बताया जा रहा है, जो खांसी ठीक करने के लिये दिया गया। ये हादसे इस बात को बयान करते हैं कि दवा की गुणवत्ता में चूक सामान्य उपचार को कितने जानलेवा जोखिम में बदल सकती है। बताया जाता है कि बच्चों को कथित रूप से मुख्यमंत्री की मुफ्त दवा योजना के तहत सरकारी अस्पतालों में एक जेनेरिक खांसी की सिरप दी गई थी। अब इस मामले में जांच चल रही है, लेकिन यह त्रासदी भारत की फार्मास्यूटिकल निगरानी तंत्र की कोताही ही उजागर करती है। खासकर हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में, जो फार्मा हब के रूप में प्रमुख रूप से उल्लेखित है। महत्वपूर्ण है कि हिमाचल प्रदेश की 655 फार्मास्यूटिकल इकाइयों में से केवल 122 ही मानकों पर खरी उतरी थी। इसका मतलब यह है कि अधिकांश फार्मा इकाइयां गुणवत्ता मानकों के अनुपालन को प्रमाणित किए बिना काम कर रही हैं। ये जनस्वास्थ्य के प्रति कितनी गैरजिम्मेदार स्थिति है। जबकि हकीकत यह है कि फार्मास्यूटिकल इकाइयों को अपग्रेड करने की समयसीमा कई बार बढ़ाई गई है। यह नियामक तंत्र की कमजोरियों और छोटी फर्मों में सुरक्षित प्रक्रियाओं में निवेश करने की अनिच्छा को ही उजागर करती है। जिन परिवारों ने अपने बच्चों को खोया, उनके लिये कोई भी मुआवजा उनके बच्चों के प्राण नहीं लौटा सकता है। इस घटना के जिम्मेदार सरकारी और दवा निर्माता सभी की लापरवाही अक्षम्य है। इस आपराधिक लापरवाही करने वालों को कठोरतम दंड से दंडित किया जाना चाहिए । स्थिति यह है कि अतीत में भी ऐसी कई त्रासदियां हुई हैं, लेकिन हमारे तंत्र ने इससे कोई सबक नहीं सीखा। हालांकि अब केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को परामर्श जारी किया है कि दो साल से कम उम्र के बच्चों को खांसी और सर्दी की दवाइयां नहीं दी जाएं। वर्ष 2020 में भी एक ऐसी त्रासदी सामने आई थी, लेकिन कुछ दिन के शोर के बाद मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। विडंबना देखिए कि मृत बच्चों के परिजन आज भी न्याय की प्रतीक्षा में आंसू बहा रहे हैं। हकीकत यह है कि ऐसी मौतों की जिम्मेदारी तय करने में लगातार देरी होती रहती है। ऐसे हादसों को या तो कमतर दर्शाया जाता है या फिर पूरी तरह से अस्वीकार कर दिया जाता है। उल्लेखनीय है पिछले साल भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसी ही शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था। भारत की फार्मा कंपनियों में निर्मित सिरप से गाम्बिया और उज्बेकिस्तान में बच्चों की मौत का लिंक पाए जाने के बाद भारतीय दवाओं पर प्रतिबंध लगाए गए थे। निस्संदेह, ऐसे गैर-जिम्मेदार तरीके से तैयार दवाइयों के चलते भारत की ‘विश्व की फार्मेसी’ के रूप में हासिल प्रतिष्ठा को ही नुकसान पहुंचा है। हमारे नियामक तंत्र को और कितने बच्चों के मरने का इंतजार है। जरूरी है इससे पहले गुणवत्ता नियंत्रण सिर्फ कागज पर नहीं व्यवहार में लागू करने की जरूरत है। केंद्र सरकार ने दवाइयों के गुणवत्ता मानकों को तय के लिए सख्त तरीके जीएमपी अनुपालन हेतु समय-समय पर निरीक्षणों के लिये कदम उठाए हैं। लेकिन प्रवर्तन के स्तर पर अभी भी तमाम खामियां बरकरार हैं। विडंबना यह है कि राज्य नियामकों के पास पर्याप्त संसाधनों का अभाव है। साथ ही अकसर दंड के प्रावधान प्रभावी नहीं होते। यह एक कटु सत्य है कि भारत की फार्मा सफलता की कहानी केवल सस्ती जेनेरिक दवाइयों पर आधारित नहीं रह सकती। हमें इसे विश्वसनीय बनाने की जरूरत है। इसके लिए मजबूत ऑडिट, लापरवाही के लिए आपराधिक जिम्मेदारी तय हो और मामलों में पीड़ितों को तीव्र न्याय मिलना चाहिए। अन्यथा, ऐसी हर त्रासदी जन-विश्वास को कमजोर करती है, जो किसी भी दवा में सबसे महत्वपूर्ण घटक है।
मध्य प्रदेश और राजस्थान में कथित रूप से जहरीले कफ सिरप से बच्चों की मौत के बाद केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन ने छह राज्यों में दवा निर्माण इकाइयों की जांच हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में चल रही हैं, जहां से कुल 19 दवाओं जिनमें खांसी की दवाएं, एंटीबायोटिक्स और बुखार की दवाएं शामिल हैं के सैंपल लिए गए। इस जांच का उद्देश्य दवा निर्माण प्रक्रिया में संभावित खामियों की पहचान करना और भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के उपाय सुझाना है। तमिलनाडु के कांचीपुरम स्थित निर्माण इकाई से लिए गए कफ सिरप के सैंपलों की जांच में केमिकल की मात्रा अनुमेय सीमा से अधिक पाई गई। इसके बाद तमिलनाडु सरकार ने इस खांसी की दवा की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया और बाजार से स्टॉक हटाने का आदेश जारी किया। इसके साथ ही कंपनी के कांचीपुरम स्थित संयंत्र पर निरीक्षण कर उत्पादन भी रोका गया। मध्य प्रदेश सरकार ने भी इसकी बिक्री पर राज्यव्यापी प्रतिबंध लगा दिया। कफ सीरप पीने से बच्चों की मौत के मामले सामने आने के बाद हिमाचल प्रदेश के नालागढ़ जिले में स्थित फार्मा कंपनियों पर कफ सिरप के प्रोडक्शन पर रोक लगा दी गई है। मध्य प्रदेश की घटना के बाद हिमाचल प्रदेश में छापेमारी की कार्रवाई शुरू की गई। इस दौरान 5 यूनिट्स का परमिशन खत्म कर दिया गया है। मध्य प्रदेश में बच्चों की मौत का कारण ‘कोल्ड्रिफ’ सिरप बनी है।
अफ्रीकी देश गाम्बिया में जिस भारतीय कंपनी का कफ सिरप पीने से 66 बच्चों की मौत हुई है, वह काफी लंबे समय से विवादों में चली आ रही है। हरियाणा के सोनीपत में स्थित मेडेन फार्मास्युटिकल्स लिमिटेड नाम की इस कंपनी को कई राज्यों में संदिग्ध मानकर कार्रवाई की जा चुकी है। मेडेन फार्मास्युटिकल्स उन भारतीय 39 दवा निर्माता कंपनियों में शामिल है, जिन्हें वियतनाम ने दवा नियंत्रक मानकों के उल्लंघन में ब्लैकलिस्ट कर दिया था। गुजरात, केरल, बिहार, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में भी यह दवा निर्माता कंपनी विवादित रह चुकी है। केरल, गुजरात और बिहार की राज्य सरकारें तो मेडेन फार्मास्युटिकल्स पर कार्रवाई कर चुकी हैं।
दोषी सिर्फ दवा निर्माता कंपनियां ही नहीं हैं, सरकारी मशीनरी में रिश्वत खा कर गैर मानक दवाओं के इस्तेमाल की छूट देने वाले अफसर ऐसी वारदातों के लिए सफेदपोश हत्यारे हैं। इन पर सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। सरकार मुआवजा देकर या जांच का नाटक कर अपनी जबावदेही से नहीं बच सकती है। कोई भी मुआवजा बच्चों का जीवन नहीं लौटा सकता है।
(मनोज कुमार अग्रवाल-विभूति फीचर्स)











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