शांति के अग्रदूत रामकृष्ण परमहंस

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श्री राम कृष्ण परम हंस एक सच्चे त्यागी और सात्विक व्यक्तित्व के स्वामी थे। बंगाल का ग्राम कामारपूकूर धन्य हो गया जब श्री खुदीराम जी के घर एक दिव्य पुंज ने जन्म लिया। मां चंद्रादेवी के पुत्र रत्न रामकृष्ण का बचपन का नाम गदाधर था। सात वर्ष की आयु में पिता का साया उसके सिर से उठ गया था। उनका जीवन संघर्षमय था। सांसरिक सुख और धन दौलत के पीछे वे नहीं फिरे। उनके भक्त हजारों रूपये उनको भेंट के रूप में दे देते थे परन्तु वे स्वीकार न करते थेे।
हिन्दी पंचांग के अनुसार रामकृष्ण परमहंस का जन्म फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि पर हुआ था। अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब से परमहंसजी का जन्म 18 फरवरी 1836 को बंगाल के कामारपुर में हुआ था। उनकी मृत्यु 16 अगस्त 1886 को कोलकाता में हुई थी।
जन्म के 23 वर्ष बाद वे कलकत्ता में रानीरसमणि के मंदिर में पुरोहित पद पर आसीन हुये। रामकृष्ण जी काली मां की आराधना एवं पूजा अर्चना में संलग्न रहते। मंदिर की सेवा करते और सादा जीवन उच्च विचार रखते। उनका मानना था कि जब ईश्वर कृपा हो जाए तो दुनिया के दुख नहीं रहते।

यदि हम ईश्वर की दी हुई शक्तियों का दुरूपयोग करेंगे तो वह हमसे शक्तियां छीन लेगा। पुरूषार्थ से ईश्वर कृपा का पात्र बना जा सकता है। सिर्फ राजहंस ही दूध में से दूध का दूध और पानी का पानी कर पाता है परन्तु दूसरे पक्षी ऐसा नहीं कर सकते। इसी प्रकार साधारण पुरूष माया के जाल में फंस कर परमात्मा को नहीं देख सकते। चिंताओं और दुखों का रूक जाना ही ईश्वर पर पूर्ण निर्भर रहने का सच्चा स्वरूप है। मात्र ईश्वर ही विश्व का पथ प्रदर्शक और सच्चा गुरू है। जिसने आध्यात्मिक ज्ञानप्राप्त कर लिया उस पर क्राम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार का विष प्रभाव नहीं करता। इन्हीं गुणों एवं उपदेशोंं के फलस्वरूप स्वामी विवेकानंद उनके परम शिष्य बन गए। श्री रामकृष्ण परमहंस के परलोकगमन के बाद उनकी संस्थाओं की गद्दी पर स्वामी विवेकानंद बैठे।
1886 को स्वामी रामकृष्ण परमहंस गले के रोग के कारण मृत्यु शैया पर पड़ गए। 16 अगस्त 1886 वे नश्वर शरीर को त्याग कर इस भवसागर को पार कर गए। उनका अंतिम संस्कार काशीपुर घाट पर किया गया। चन्दन की चिता पर श्री राम कृष्ण परमहंस के शरीर के तत्व धरा और वायुमंडल में समा गए और हमें आत्मज्ञान आत्म गौरव का पाठ पढ़ा गए। 

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(बिजेन्द्र कोहली-विभूति फीचर्स)

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