दुर्लभ जानकारी : कुमाऊँ की धरती में यहाँ होती है पंच केदारनाथ की एक साथ पूजा, यहां के दर्शन ‘केदार’ से सहस्रगुणित और वैद्यनाथ से भी कोटिगुणित फल प्राप्त होता है।

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दुर्लभ जानकारी : कुमाऊँ की धरती में यहाँ होती है पंच केदारनाथ की एक साथ पूजा, यहां के दर्शन ‘केदार’ से सहस्रगुणित और वैद्यनाथ से भी कोटिगुणित फल प्राप्त होता है।

भगवान केदारनाथ जी की महिमा अपरंपार है उत्तराखंड की धरती में श्री केदारनाथ के अलावा केदारनाथ जी की लीला यहाँ की भूमि में अनेक भूभाग में पूज्यनीय है यहाँ यह बतातें चलें कि केदारनाथ जी के दर्शन पाताल में भी होते है।
अयोध्या के राजा त्रतुपर्ण सौभाग्यशाली राजा हुए, जिन्हें पाताल भुवनेश्वर के भीतर केदारमण्डल के दर्शन हुए। शेषनाग जी की कृपा से केदारमण्डल के पाताल भुवनेश्वर में दर्शन कर राजा ऋतुपर्ण कृतार्थ हुए थे।
पुराणपुरुषं विष्णु प्रणभ्य स पुनः पुनः।
शेष नागागुनो राजा यमौ केदारमण्डलम्।।
स ददर्शाय केदारं शेषनागेन दर्शितम्।
तथैव च महाध्वानं यमौ शिवपुरं प्रति।।
434-435 ;मानसखण्ड 103 अध्याय
यहां उन्होंने केदारनाथ के पास भक्त राजा ‘केदार’ के भी दर्शन किए। ‘सम्पूज्य तत्र केदारं’। पाताल भुवनेश्वर महात्म्य में केदारमण्डल का जिक्र बड़े ही श्रद्वा भाव से आता है। पाताल भुवनेश्वर महिमा का जिक्र पुराणों में भूतल के सबसे पवित्र क्षेत्र के रूप में आता है। भुवनेश्वर का पूजन कर अश्वमेघ से हजार गुना फल प्राप्त होता है। भारतवर्ष के खण्डों में जो अनेक शिवलिंग हैं वे सब पाताल भुवनेश्वर के समीप विद्यमान हैं। यहां के दर्शन ‘केदार’ से सहस्रगुणित और वैद्यनाथ से भी कोटिगुणित फल प्राप्त होता है।
‘सहस्रगुणितं पुण्य केदारन्मुनिसत्तमाः।’
वैद्यनाथ कोटिगुन कैलाससदृशं फलम्।।
(स्कंद पुराण मानसखण्ड अध्याय 103
भूमण्डल के इस सर्वप्रधान क्षेत्र में बद्री व केदार दोनों के ही दर्शन होते हैं। भगवान शिव की लीला अवर्णनीय है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। बाबा केदारनाथ जी की महिमा के प्रसंग में संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत है पाताल भुवनेश्वर गुफा का वर्णन।
इस संसार में जब-जब भी भुवनेश्वर नाथ जी की कथा प्रसारित होगी तब-तब भुवनेश्वर भक्ता राजा ऋतुपर्ण याद किए जाते रहेंगे। महर्षि भृगु के अनुसार पताल भुवनेश्वर क्षेत्र सब क्षेत्रों में प्रमुख हैं।
पाताल भुवनेशस्य क्षेत्रमेतत् प्रतिष्ठितम्।
सर्वेभ्यः क्षेत्रमुख्येभ्यः क्षेत्रमेतद् विशिष्यते।।
(श्लोक 6 भुवनेश्वर महात्म्य मानस खण्ड)
इस क्षेत्र के दर्शन का सौभाग्य पुराणों के अनुसार, सर्वप्रथम राजा ऋतुपर्ण को प्राप्त हुआ। सूर्यवंशी राजाओं मंें ऋतुपर्ण 50वें राजा थे। ये श्री रामचन्द्र जी के वंशज, महान् धर्मात्मा राजा सुदास के दादा, सर्वकाम के पिता, सिन्धुदीप के पौत्र राजा अयुतायुस के पुत्र थे। इनका चरित्र सुनने व पढ़ने वाला व्यक्ति इस लोक में कीर्ति पाकर शिवलोक प्राप्त करते हैं। कलियुग में तो इसका श्रवण समस्त पापों से छुटकारा दिलाने वाला है। स्वयं महर्षि व्यास जी कहते हैं, ‘‘ऋतुपर्णस्य राजर्षेः कीर्तनं कलिनाशनम्।’’
पाताल भुवनेश्वर की कथा के सार में कहा जाता है, भगवान श्री भुवनेश्वर की पूर्ण श्रद्वा भाव से पूजा-आराधना करने से बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, त्यागी-तपस्वी, यक्ष, गन्धव तथा देवतागण तो धन्य हुए ही थे, अनेकानेक राजा-महाराजा भी भुवनेश्वर की कृपा से मुक्तिधाम के अधिकारी बन गये। पौराणिक ग्रंथों में उक्त सभी के त्याग, तप, भक्ति तथा मुक्ति के अनेक प्रसंग आते हैं। ऐसा ही एक प्रसंग महाराजा नल को लेकर आता है। कथा प्रसंग के अनुसार राजस्थान स्थित पुष्कर नरेश, नल चौपड़ खेलने के अत्यधिक शौकीन थे। वह अयोध्या नरेश तथा भगवान श्री राम चन्द्र के वंशज ऋतुपर्ण के साथ अक्सर चौपड़ खेला करते थे। दोनों के बीच गहरे आत्मीय सम्बन्ध थे। व्यक्तिगत समस्याओं के साथ-साथ राज-काज के मामलों में भी दोनों परस्पर विचार-मंथन कर एक-दूसरे को सहयोग करते थे।
कहा जाता है कि एक बार राजा नल ने अपने राज्य में चौपड़ के खेल का विशाल आयोजन कराया जिसमें देश भर के बड़े-बड़े राजाओं ने हिस्सा लिया। परन्तु अपने राज्य के कार्यों में व्यस्तता के कारण राजा ऋतुपर्ण इस आयोजन में भाग नहीं ले सके। चौपड़ के इस खेल में राजा नल अपनी अकूत धन-सम्पत्ति के पश्चात सारा राजपाट भी हार गये। इतना ही नहीं, अंत में वह अपनी प्रिय पत्नी रानी दमयन्ती को तक हार गये। अपनी इस शर्मनाक हार से राजा नल को अत्यधिक आत्मग्लानि हुई। हर तरफ से वह घोर विपदाओं में घिर गये। पत्नी, धन, वैभव, ऐश्वर्य,राजपाट सब कुछ गंवाने के बाद वह एकदम अकेले हो गये।
मरता क्या नहीं करता, आत्मग्लानि से पीड़ित, दुखी तथा असहाय होकर अन्ततः उन्होंने अपने मित्र राजा ऋतुपर्ण के पास जाने का मन बनाया। फिर क्या था वह महाराज ऋतुपर्ण के पास पहुंचे और अपनी व्यथा का वृतान्त सुनाते हुए निवेदन किया, ‘‘हे राजन! मुझे हिमालय के सघन वनों में ले चलिये, जहां मुझे आत्मिक शांति प्राप्त हो सके। ऐसे घनघोर वन में छोड़ आइये जहां रानी दमयन्ती भी मुझे न ढूंढ सके और मैं अपने पाप का प्रायश्चित कर सकूं। इसके बाद राजा ऋतुपर्ण राजा नल को रथ में बिठाकर हिमालय की ओर चल पड़े। कहा जाता है कि चलते-चलते जब वे दारुका वन क्षेत्र में पहुंचे तो भरी दुपहरी में उन्हें एक अलौकिक हिरन दिखायी दिया। उन्होंने सैनिकों को हिरन घेरने का आदेश देते हुए कहा कि जिसकी ओर से हिरन भाग निकलेगा, उसे मृत्युदंड दिया जायेगा। संयोगवश हिरन राजा की ओर से ही भाग निकला। लाचार राजा ने सैनिकों के साथ हिरन का पीछा किया। रात्रि होने को आ गयी, हिरन को नहीं ढूंढ सके। अन्त में थक-हार कर राज ऋतुपर्ण वापस आ गये और सो गये। स्वप्न में वही हिरन अद्भुत आभा के साथ प्रकट हुआ और बोला, ‘‘हे राजन! मेरा पीछा करना छोड़ दो। मैं कोई मामूली हिरन नहीं हूं।’’ एकायक राजा चेतन हो गये और बोले आप जो भी हैं मुझे दर्शन देकर कृतार्थ करें। मैं सूर्यवंशी हूं अन्यथा मैं अपने प्राण त्याग दूंगा।’’ तब उनके कानों में दिव्य स्वर गूंजे- ‘‘हे राजन! यदि आप मुझ तक पहुंचना चाहते हो तो सर्वप्रथम इस क्षेत्र के क्षेत्रपाल की अराधना करो। वही मुझ तक पहुंचने का मार्ग बता सकते हैं। प्रातःकाल होते ही राजा ऋतुपर्ण ने सैनिकों को वापस भेज दिया और राजा नल के साथ क्षेत्रपाल की आराधना आरंभ कर दी। छह माह की घोर तपस्या के बाद क्षेत्रपाल प्रकट हुए और प्रसन्न होकर बोले- ‘‘इस घनघोर वन में एक अलौकिक गुफा है जहां भगवान शिव तैंतीस कोटि देवी-देवताओं सहित विराजमान हैं। स्वयं शेषनाग वहां के रक्षक हैं। हे राजन! जिस अद्भुत हिरन को आपने देखा, वह स्वयं भगवान शंकर थे। मैं आप दोनों को शेषनाग तक पहुंचा देता हूं। वह मनुष्य देहधारी को गुफा के भीतर प्रवेश नहीं करने देते हैं। आपको सर्वप्रथम वहां विनयपूर्वक शेषनाग की अनुमति लेनी होगी।
ऋतुपर्ण के साथ राजा नल ने गुफा के भीतर प्रवेश किया। शेषनाग के सम्मुख पहुंचाकर क्षेत्रपाल अन्तर्ध्यान हो गये। शिव सेवा में तल्लीन शेषनाग से राजा ऋतुपर्ण व राजा नल ने प्रार्थना की किन्तु शेषनाग ने जरा भी ध्यान नहीं दिया। तब दोनों राजाओं ने शेषनाग की आराधना की। कई दिनों की निराहार-निर्जल भक्ति के बाद भगवान शेषनाग प्रसन्न हुए और दोनों राजाआंे को दिव्य चक्षु प्रदान करने के साथ ही अपने फन में बिठाकर पूरे पाताल लोक का भ्रमण कराया और चारों धामों सहित चारों युगों तथा भगवान भुवनेश्वर के दर्शन कराये और अन्त में राजा ऋतुपर्ण को यश-कीर्ति युगों-युगों तक अमर रहने का वरदान दिया तथा राजा नल को अपार सम्पत्ति तथा राज्य पुनः वापस मिलने का वरदान देकर विदा किया। शेषनाग ने यह भी कहा कि यह रहस्य सदैव गोपनीय रहे। इसके भंग होने की स्थिति में तत्काल तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी।
दोनों राजा प्रसन्नचित्त वापस अपने राज्य में चले आये। सच्ची मित्रता के लिए किये गये त्याग से राजा ऋतुपर्ण व राजा नल अपने राज्य को एक कल्याणकारी व खुशहाल राज्य बनाने में मगन हो गये। दिव्य चक्षुओं से युक्त होने के कारण वह अक्सर चमत्कारिक क्रिया-कलाप कर दिया करते थे जो महारानी के लिए अत्यधिक अचंभित करने करने वाली घटनाएं थीं। नित्य प्रति असंभव को संभव कर देने वाली क्रियाओं से रानी इस रहस्य को लेकर हमेशा सोचती रहती थी।
इतने लम्बे समय तक राजा कहां-कहां रहे, यह चमत्कारिक सिद्वि कैसे प्राप्त की, यह अकूत धन सम्पत्ति कहां से आयी, इस तरह के न जाने कितने ही प्रश्न उसके मन-मस्तिष्क में कौंधते रहते थे। कई बार रानी ने जानने की कोशिश की परन्तु राजा सदैव टालते रहे। राजा ने रानी को सिर्फ इतना बताया कि रहस्य उजागर करने की स्थिति में तत्काल मेरी मृत्यु हो जोयगी। रानी इसे एक परिहास समझती रही। एक दिन रानी रहस्य जानने को बहुत अधिक हठ कर बैठी। अन्ततः राजा को रानी के समक्ष झुकना ही पड़ा। उन्होंने सम्पूर्ण वृतान्त सुना दिया, इसी के साथ राजा नल के प्राण उड़ गये। रानी को अपनी जिद पर बड़ा पछतावा हुआ। राजा की अन्तिम क्रियादि कर्म के पश्चात वह अपने पुत्र आशुतोष के साथ उस स्थान की खोज में निकल पड़ी।
महिनों की खोज के बाद आखिर रानी दमयन्ती श्री पाताल भुवनेश्वर की इस अलौकिक गुफा तक पहुंच गयीं। देवदार के घने वन में कंटीली झाड़ियों से घिरे इस गुफा के भीतर रानी किसी तरह प्रवेश कर गयी और यहां की दिव्य आभा से आनंदित हो उठी। पाताल के दुर्गम व दुर्जयी मार्ग होने से रानी यहां अधिक समय तक नहीं ठहर सकीं और भगवान भुवनेश्वर को कोटि-कोटि नमन कर राजधानी वापस लौट आयी। रानी ने सारा वृतान्त वेद व्यास जी को सुनाया जिसका वर्णन उन्होंने पुराणों में किया।
यद्यपि पौराणिक काल के बाद दीर्घकाल तक यह स्थान गोपनीय रहा, पुराणों के गहन अध्ययन के पश्चात आदि जगद्गुरू शंकराचार्य ने इस गुफा को खोजा और यहां विद्यमान शिव शक्ति को तांबे से नवाज कर कीलित किया। कालान्तर में चंद राजवंश के राजा लक्ष्मी चंद ने इस गुफा का महिमागान कर आम लोगों में इसे प्रसिद्वि दिलायी। शंकराचार्य द्वारा बनायी गयी एक ठोस व्यवस्था के अनुरूप इस पवित्र गुफा में पूजन-हवन-यज्ञादि धार्मिक अनुष्ठान होने लगे तथा अध्यात्म पथ के अनुरागी यहां भुवनेश्वर के दर्शन कर स्वयं का जीवन सार्थक करते आये हैं। यह पुनीत परम्परा आज भी चल रही है। कहा जाता है कि आदि शक्ति भगवती काली तथा देवाधिदेव महादेव की प्रेरणा व कृपा से ही श्री भुवनेश्वर के दर्शन का सौभाग्य मनुष्य को प्राप्त होता है। पाताल भुवनेश्वर की इसी गुफा में राजा ऋतुपर्ण ने केदारनाथ जी के दर्शन भी किये।

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