आजकल योग, वह योग नहीं रहा जो कभी गुफाओं और तपोवनों की निजी साधना थी। वह तो अब ‘योगा’ बन गया है एक विदेशी ‘ए’ की छाप लगाकर इसे विशिष्टता का अंतर्राष्ट्रीय स्टेटस सिंबल बना दिया गया है! देखिए न, आधुनिक योगी जब सुबह चटाई बिछाते हैं, तो उसके साथ स्मार्टफोन का ट्राइपॉड लगाना उतना ही अनिवार्य हो गया है जितना कपालभाति में सांस लेना। क्यों? ताकि ‘डाउनवर्ड डॉग’ की उल्टी मुद्रा में भी उनका ‘अपवर्ड लाइक्स’ काउंट बढ़ सके। ये साधु नहीं, ये तो नए युग के डिजिटल तपस्वी हैं, जिनका तप है हैश टैग योगा और मंत्र है ‘सेल्फी’। गुरु जी ऑनलाइन आसन सिखाते हैं, बीच-बीच में विज्ञापन डालकर ‘स्पॉन्सर्ड सिद्धि’ पाते हैं। शिष्य जी सामर्थ्य भर फ़िल्टर लगाकर, पोज़ बनाकर फेसबुक लाइव करते हैं। क्योंकि स्टेटस अपडेट करना अब समय की पाबंदी से ज्यादा ज़रूरी हो गया है। कपालभाति से पहले कैमरा एंगल ठीक करना प्राथमिकता है – सांस तो बाद में भी ले लेंगे! आखिर, सांस रोकना और छोड़ना तो भागम-भाग वाले शहरी जीवन की रोज़मर्रा की कवायद है, जो मेट्रो की भीड़ में अपने आप ही गतिशील हो जाती है। ‘वृक्षासन’ में खड़े होना आसान हो सकता है, पर एक सबर्बन ट्रेन से दूसरी तक ‘लटकासन’ करना बड़ी साधना है!
जिस देश में सदियों तक योग एक आध्यात्मिक, गोपनीय साधना मानी जाती थी, आज वहीं ‘योग फेस्टिवल’ के टिकट ऑनलाइन बुक होते हैं। पतंजलि के योगसूत्रों पर चर्चा कम, पतंजलि ब्रांड के शैंपू और टूथपेस्ट की चर्चा ज्यादा होती है। लोग शरीर को मोड़ने से पहले अपने विचारों और पूर्वाग्रहों की जकड़न तोड़ने को तैयार नहीं, पर महीने के दस-पंद्रह हज़ार रुपये ‘प्रीमियम एयर-कंडीशन्ड स्टूडियो’ को सहर्ष चढ़ा आते हैं। वहाँ जाकर वे सीखते हैं कि सांस कैसे रोकनी है (कुंभक), जबकि घर वापस आते ही रिश्तेदारों के उधार, बच्चों की फीस और बॉस की डांट से सांस तो अपने आप ही रुक जाती है! सासों की ही नहीं सालों , सालियों की तो घर-घर में महाभारत चलती ही रहती है। गुरु जी गंभीर मुद्रा में उपदेश देते हैं, “प्राणायाम से मन शांत होता है।” मगर जिस समाज में हर सांस के साथ जीएसटी का बोझ महसूस होता हो, ट्रैफिक जाम में सांस लेने पर प्रदूषण का अदृश्य टैक्स काटा जाता हो, वहाँ ‘कुंभक’ करना तो आत्म-मंथन नहीं, आत्म-उत्सर्ग जैसा कठिन प्रयास लगता है! लोग ऑफिस में बॉस की डांट सहकर घर आते हैं और ‘अनुलोम-विलोम’ करते हैं एक तरफ नाक से सांस ली, दूसरी तरफ से नौकरी का तनाव छोड़ा। यही है आधुनिक युग का ‘स्ट्रेस मैनेजमेंट योग’!
सबसे मजेदार है योग के नाम पर चलने वाली यह ‘अघोरीपन’ की साधना। लोग सुबह ग्रीन टी या शंखपुष्पी का काढ़ा पीकर ‘शीर्षासन’ करते हैं, फिर ऑफिस जाकर उसकी धूमधाम से चर्चा करते हैं, सोशल मीडिया पर स्टेटस बनाते हैं। योग स्टूडियो में घंटों पसीना बहाने के बाद ‘तनाव कम करने’ के लिए सिगरेट पीते हुए कहते हैं, “गुरु जी ने कहा था न, जीवन में संतुलन ज़रूरी है!” उनका संध्यावंदन तो कब का खत्म हो गया, अब वे ‘सैलरी क्रेडिट’ नोटिफिकेशन के मंत्र जपते हैं। ‘भ्रामरी’ करते समय मधुमक्खी का गुंजन नहीं, क्रेडिट कार्ड के बिल की कर्कश आवाज़ सुनाई देती है। जो लोग जोर-शोर से ‘वीगन योगा’ का ढिंढोरा पीटते हैं, वे ही दिवाली पर आसमान फाड़ने वाले पटाखे छोड़कर ‘पर्यावरण योग’ के सिद्धांत भूल जाते हैं। सोमवार को कट्टर शाकाहारी, मंगलवार को मुगलई बिरयानी के भक्त। ‘अहिंसा’ और ‘शांति’ का पाठ पढ़ाने वाले गुरु जब सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग करते हैं तो ‘वीरभद्रासन’ (योद्धा की मुद्रा) की सार्थकता सिद्ध होती है। गीता पर भव्य सेमिनार देने वाला जब अपने स्टूडियो का किराया बेतहाशा बढ़ाता है, तो ‘अपरिग्रह’ (असंग्रह) का अध्याय अचानक पाठ्यक्रम से गायब हो जाता है!
अब तो योग सीधे-सीधे व्यापार की साधना बन गया है। शॉपिंग ऐप्स पर अध्यात्म को ‘लाइफस्टाइल एक्सेसरी’ बनाकर पेश किया जाता है – डिटॉक्स टी, ऑर्गेनिक योगा मैट्स, बांस के बने ‘इको-फ्रेंडली’ पहनावे, क्रिस्टल्स वाली माला, सब कुछ ‘एड टू कार्ट’ के लिए तैयार है। मानो योग का सार अब उसके ‘एक्सेसरीज’ में समा गया हो। मंत्र बदल गया है: “ॐ नमः ब्रांडेभ्यः”। पर असली योग तो वह है, जो इस सबके बावजूद जीवन की आपाधापी में टिके रहने की कला है। अब भीड़ भरी मेट्रो में खड़े-खड़े, बिना किसी को धक्का दिए, संतुलन बनाए रखना ही सच्चा ‘ताड़ासन’ है। पत्नी के ताने सुनकर गहरी सांस लेना और चुप रह जाना ही वास्तविक ‘शवासन’ है। जेब हल्की हो तो ‘पद्मासन’ में बैठकर मन को समझाना कि “ध्यान ही धन है, भौतिकता माया है” यही तो कर्मयोग है। ये है नए युग का योग ,जहाँ शरीर को सीधा या उल्टा करने से कहीं ज्यादा ज़रूरी है दिमाग़ का संतुलन बनाए रखना। जीवन के झंझावातों में अडिग रहना ही परम आसन है।
सच्चा योगी वही है जो ‘लाइक’, ‘शेयर’ और ‘कमेंट’ के बिना भी ‘सुखासन’ में बैठकर शांति अनुभव कर सके। वरना तो, हे गुरुदेव! ये जो हम कर रहे हैं, ये ‘शीर्षासन’ नहीं, ये तो ‘समाजासन’ है एक ऐसी जटिल मुद्रा जहाँ सिर के बल खड़े रहकर भी पत्नी की प्रसन्नता, बच्चों की ज़िद और बॉस की खुशामद के बीच संतुलन बनाए रखना सबसे दुष्कर साधना है। और इस साधना में ‘फ़िल्टर’ लगाने का कोई विकल्प नहीं होता!
(विवेक रंजन श्रीवास्तव-विभूति फीचर्स)



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