व्यंग्य :नमक मिर्च के तड़के वाली अभिव्यक्ति

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रहिमन देखिन बड़ेन को लघु न दीजिए डारि,
जहाँ काम आवे सुईं काह करै तलवारि।
रहीम दास जी ने व्यावहारिक दोहा रचकर संसार को सीख दी, कि औजारों का प्रयोग उपयोगिता के अनुसार करना ही समझदारी है, किंतु इस सत्य को समझने के लिए दीर्घकालीन अनुभव की आवश्यकता होती है। फ्लैट कल्चर में पले बढ़े खेत खलिहान और प्रकृति के बारे में क्या जानें। बंद कमरों में रहने वाले लोगों का संसार भी सीमित रहता है। वे धरती से जुड़े सवाल पूछने का हुनर नहीं रखते। वे अपनी हर समस्या का समाधान वास्तविकता में नहीं अपितु कल्पनाओं में ही ढूंढते हैं। सो समस्याएं अपनी जगह खड़ी ही रहती हैं। अपने यहाँ का चलन ही अजीब है। जिसे देखो वही अपने आपको औरों से अधिक बुद्धिमान और शक्तिशाली सिद्ध करने में जुटा है।

यदि किसी को तनिक सी कलम पकड़नी आ गई, तो अपने से बड़ा लिक्खाड़ किसी को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होता। किसी के द्वारा किसी की लच्छेदार भाषा में बुराई कर दी गई और उस बुराई को सोशल मीडिया में कुछ लाइक और कमेन्ट मिल गए, तो वह समझने लगता है कि वह रातोंरात देश का सुपर स्टार बन गया। अब वह किसी को बेख़ौफ़ होकर गरिया सकता है। किसी को भी सवालों के घेरे में खड़ा कर सकता है। लोकतंत्र में शब्दों की मर्यादा का ख्याल किये बिना वह शत्रुओं के साथ मिलकर अपने घर के मुखिया पर ही प्रहार कर सकता है। वह किसी को कुछ भी कहे, किन्तु कोई उसे कुछ न कहे। वह यह समझना नहीं चाहता, कि अभियक्ति की जितनी स्वतंत्रता उसे प्राप्त है, उतनी ही औरों को भी है। यदि उसे किसी पर शाब्दिक प्रहार करने का अधिकार है, तो किसी और को भी उसका प्रतिकार करने का उतना ही अधिकार है, जितना कि उसे है। बहरहाल बात यहीं समाप्त नहीं होती, यहाँ से शुरू होती है। तथाकथित बुद्धिजीवी समझे जाने वाले लोग न जाने किस धुन में रहते हैं। उनके विचार भले ही किसी तथ्य या तर्क पर आधारित न हों, किन्तु उन्हें लगता हैं, न खाता न बही, जो वे कह दें, वही है सही। उन्हें किसी को अपने विचारों का प्रमाणिक आधार देने की आवश्यकता नहीं है।

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जो उनकी मंशा पर सवाल उठाए, उसे ही गलत ठहराया जाए। कहने का आशय यह है, कि चींटियाँ भी अपनी शक्ति पर गुमान करने लगी हैं। पर्वत से टकराने में अपनी शान समझने लगी हैं। सोशल मीडिया पर अपनी क्षमता से अधिक ऊँचे बोल बोलना फैशन बन चुका है। चींटियों की भी खेमेबंदी हैं। वह अपने अपने खेमे में रहकर दूसरे खेमे के विरुद्ध मोर्चाबंदी में जुटी हैं। उन्हें अपने अस्तित्व की चिंता न होकर अपनी रेटिंग और फैन फालोइंग की फ़िक्र है। अपने प्रशंसकों की बढ़ोत्तरी के लिए वे किसी भी हद तक बकवास कर सकती हैं। उन्हें इस तथ्य से कोई सरोकार नहीं, कि उनकी हरकतों से शत्रुओं को घर के मुखिया पर ऊँगली उठाने का सुअवसर प्राप्त हो रहा है।

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उनके बोल वचन शत्रुओं की पीठ थपथपाने में विशेष भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। उनकी प्रेरणा से मनगढ़ंत विमर्श निर्मित किये जा रहे हैं। विमर्श गढ़ने वाले भी बेख़ौफ़ हैं, कि जनता का शासन जनता के द्वारा जनता के लिए है, सो उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, क्योंकि वे जनता हैं यानि नागरिक हैं और नागरिक अधिकारों में अभिव्यक्ति की आजादी उन्हें मिली हुई है। वह अपने अधिकार बखूबी जानते हैं, मगर उन्हें दायित्वों का भान नहीं है, कि गंभीर मसलों पर मजाक नहीं किया जाता। आतंकियों का समर्थन नहीं किया जाता। जब बडबोली चींटियों के विरुद्ध कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाने लगती हैं, तो उनके समर्थन में उन जैसे तत्व झंडाबरदार बन जाते हैं। वह भूल जाते हैं, कि घर में शांति बनाने के लिए घर की छोटी छोटी बातों को नमक मिर्च लगाकर छौंक नहीं लगाया जाता। 

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(सुधाकर आशावादी-विनायक फीचर्स)

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