हिमालय के प्रसिद्व संत व युग पुरुष थे बाल कृष्ण यति महाराज पुण्य तिथि पर किया भावपूर्ण स्मरण

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पुण्य तिथी पर विशेष

बेरीपड़ाव(हल्द्वानी) वरिष्ठ़ महामण्डलेश्वर श्री सोमेश्वर यति महाराज जी ने कहा कि सनातन धर्म में जब जब सत्य व धर्म की रक्षा के लिए संतों के योगदान की चर्चा होती रहेगी, तब तब महान् युग पुरुष तपोनिष्ठ आध्यात्मिक जगत के अलौकिक महापुरुष ब्रहमलीन संत परम पूज्य गुरुदेव महामण्डलेश्वर ब्रम्हलीन बालकृष्ण यति महाराज जी का परम श्रद्वा के साथ स्मरण किया जाता रहेगा और इनका स्मरण भक्तों में आध्यात्मिक ऊर्जा का नया संचार करेगा।और हम सभी का मार्गदर्शन भी अष्टादश भुजा माता महालक्ष्मी मंदिर बेरीपड़ाव पहुंचकर श्रद्वालुजन जब माता के श्रीचरणों में अपने आराधना के श्रद्वा पुष्प अर्पित करेंगे तब सहज में ही याद आऐगे यति महाराज, उनका निर्मल, निष्ठामय, कर्तव्यमय, सादगी भरा जीवन, क्षमा, व दया की प्रतिमूर्ति, मर्यादा के महान् रक्षक, महान् गौ भक्त, एक आत्मनिष्ठ, निष्काम कर्मयोगी, आध्यात्म जगत की जितनी भी उपमाएं है वे सब उनमें झलकती थी, लोग उनसे मिलकर अपने सौभाग्य की सराहना करते थें

उनका दर्शन उनकी वाणी जीवन के कई अनसुलझी गुत्थियों को बरबस ही सुलझा देती थी। जो सच्चे हदय से उनके निकट आकर उनका आशीर्वाद प्राप्त करता था, वह ज्ञान की नई अनुभूतियां पाकर अपने जीवन को धन्य समझता था पूज्य गुरुदेव जी की कृपा का वर्णन शब्दों में नही किया जा सकता है ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर श्री बालकृष्ण यति जी महाराज मूल रूप से जनपद बागेश्वर अन्तर्गत जोशी गांव से सम्बन्ध रखते थे। वर्ष 1918 में एक सुसंस्कृत ब्राह्मण परिवार में जन्मे श्री यति महाराज बाल्यकाल से ही धर्म तथा आध्यात्म में रुचि रखने लगे थे और किशोरावस्था में आते-आते उन्होंने सन्यास ग्रहण कर लिया था। अपने गुरु, स्वामी विश्वनाथ यति महाराज के स्नेहिल सानिध्य में बालकृष्ण यति महाराज ने वेद, वेदांग, उपनिषद, धर्मशास्त्र, दर्शन शास्त्र समेत अनेक सनातन ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। उनकी प्रारभिक शिक्षा तो गांव में तथा बागेश्वर में ही हुई, लेकिन बाद की शिक्षा उज्जैन, मिर्जापुर व बनारस से प्राप्त कीं। ज्ञान के प्रचार के साथ ही उन्होंने देश के अनेक भागों में कई विद्यालय खुलवाए और धर्म व आध्यात्म के प्रचारार्थ अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया

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यति महाराज जी की शिक्षा, दीक्षा एवं साधना बाल्यकाल से ही विलक्षण रही हैं, विलक्षण ज्ञानी होने के कारण श्री महाराज जी ने वेदान्ताचार्य की उपाधि प्राप्त की थी प्रारंभिक शिक्षा उत्तराखण्ड़ की काशी कहे जानें वाली बागेश्वर क्षेत्र में हुई, विद्यार्थी जीवन से ही भगवान शिव के चरणों में प्रीति होने के कारण महाराज जी का स्वभाव बड़ा ही निर्मल रहा बाद की शिक्षा महाकाल की नगरी अवंतिकापुरी उज्जैन मीर्जापुर एवं वाराणसी में हुई, अध्ययन के साथ-साथ योग साधना, ध्यान धारणा एवं राजयोग का भी ज्ञान गुरुदेव ने अपने गुरुओं से पाया

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बाद में शिवजी के त्रिशूल पर बसी काशी के सिद्धपीठ श्री हथियाराम मठ, गाजीपुर, वाराणसी (उ०प्र०) से ज्ञान का प्रकाश देश व दुनियां को दिया।2 दिसम्बर सन् 1954 को आप यहाँ के पीठाधीश्वर बनें थे।उल्लेखनीय है, कि यह मठ काशी का प्रसिद्ध मठ हैं, यह मठ लगभग सौ वर्ष प्राचीन मठ है, और सिद्धों की तपःस्थली भी हैं, इस पीठ में अनेकों सिद्ध महापुरूष हुए हैं जिनकी सिद्धि की कथा यहाँ के भक्तजनों की जुबां पर रहती हैं। इन्हीं सिद्धों की परम्परा में तपोमूर्ति ब्रह्मलीन प्रातः स्मरणीय अनन्त श्री स्वामी विश्वनाथ यति जी महाराज हुए,जिनकी गिनती महान विद्वान सन्तों में होती है विद्यानुरागी होने के कारण आपने अपने मुख्य मठ श्री हथियाराम में श्री विश्वनाथ गुरुकुल संस्कृत महाविद्यालय की सन् 1936में स्थापना की।इसी पीठ में 27 जुलाई 2013 को अपनी जीवन यात्रा को विराम दिया महाराज जी की पुण्य तिथि पर आज उनके भक्तजन निर्मल भावना के साथ उनका स्मरण करके अपनी आध्यात्मिक की यादों को ताजा कर रहे हैं

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जनपद नैनीताल अन्तर्गत हल्द्वानी नगर में महादेव गिरि महाविद्यालय महाराज के प्रयासों का ही प्रतिफल है, जहां से सैकड़ों छात्र संस्कृत भाषा में अनेक उपाधियां लेकर आज समाज व देश की सेवा कर रहे है

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