उत्तराखंड के माणा में एक दुखद आपदा में प्राकृतिक हिमस्खलन से निर्माण कार्य में लगे मजदूर बर्फ में धंस गए। हालांकि 46 जिंदगी बचा ली गई लेकिन दुःखदायी यह रहा कि आठ जिंदगियों को बचाया नहीं जा सकता है। निसंदेह देश के जवानों ने इन जिंदगियों को बचाने में अपनी जान लगा दी। राहत एवं बचाव कार्य में एनडीआरएफ, एसडीआरएफ और सेना सहित 200 से अधिक लोग जुटे रहे।यह अभियान तीन दिन तक चला।
माणा गांव में मजदूर निर्माण कार्य में लगे थे, तभी अचानक ऊपर से बर्फ का पहाड़ आ गिरा और कई मजदूर उसमें दब गए। इस घटना की सूचना मिलते ही प्रशासन ने बिना देरी बचाव कार्य शुरू कर दिया । शुरू में प्रतिकूल मौसम में रास्ते बंद होने के कारण राहत कार्य में मुश्किल आई, लेकिन बचाव अभियान में जुटे जवानों ने अपनी जान की परवाह नहीं करते हुए कई जिंदगियों को बचा लिया। हिमस्खलन स्थल पर करीब 7 फीट तक बर्फ जमा है, जिससे बचाव अभियान में कई दिक्कतें आयी। लेकिन जहां तक भी पहुंचना संभव है, वहां राहत और बचाव कार्य शुरू किया गया।
उत्तराखंड और हिमाचल में प्राकृतिक आपदाओं का आना कोई नई बात नहीं है। अपने नैसर्गिक सौंदर्य, अध्यात्म, और धार्मिक महत्व के लिए यह राज्य प्रसिद्ध है, लेकिन यह राज्य अपनी भौगोलिक संरचना के लिए भी बेहद संवेदनशील है। पूरी दुनिया में कुदरत की सौंदर्यता के लिए जाना जाने वाला राज्य होने के साथ ही उत्तराखंड प्राकृतिक और मानवजनित आपदाओं के लिए भी जाना जाने लगा है, इसे इस राज्य का दुर्भाग्य ही कह सकते हैं।
हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखंड जैसे हिमालयी राज्यों को हाल के वर्षों में कई प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ा है। बीते कुछ महीनों में घटित ऐसी सभी घटनाओं के कारण अब तक 300 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई है और हजारों लोग घायल हुए हैं। लापता होने वाले लोगों की संख्या भी कम नहीं है। बड़े पैमाने पर आर्थिक नुकसान के साथ-साथ सड़कों पर आवाजाही भी बड़े पैमाने पर बाधित हुई। पहाड़ों के दरकने या भूस्खलन जैसी घटनाओं के लिए इन पहाड़ी राज्यों में होने वाली निरंकुश मानवीय गतिविधियों को मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जाता है। आर्थिक क्रियाकलाप, पर्यटन और आधुनिक विकास के नाम पर होने वाले निर्माण इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं।
सरकार आपदा की स्थिति में राहत कार्य पहुंचाती है। पर, आज जरूरत है कि समस्या के जड़ को समझकर उसके प्रभावी समाधान के लिए सही रणनीतियों के विकास और उन पर अमल करने की। ऐसा करके ही पहाड़ों में हो रहे विनाश पर लगाम लगायी जा सकती है और टिकाऊ विकास को सुनिश्चित किया जा सकता है।
2013 में केदारनाथ आपदा उत्तराखंड के इतिहास की सबसे भयावह घटना थी। जल प्रलय ने हजारों लोगों की जान ले ली थी और किसी को संभलने तक का मौका नहीं मिला था। जो जहां था, वही दफन हो गया। कई महीने तक लोगों की खोज में अभियान चलाए गए। 16 से 17 जून, 2013 में लगातार अतिवृष्टि व बादल फटने के परिणामस्वरूप भूस्खलन व नदियों में तीव्र उफान के कारण रुद्रप्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी, पौड़ी, टिहरी व पिथौरागढ़ जिलों में व्यापक जन-धन की हानि हुई। राज्य के ज्ञात इतिहास में यह सबसे बड़ी आपदा थी। इसमें हजारों लोग व मवेशी मलवे में दबकर व जल प्रवाह में बहकर काल के गाल में समा गए। सैकड़ों होटल व धर्मशालाएं व हजारों मोटर गाड़ियां नष्ट हुई। इस आपदा में एक आंकड़े के मुताबिक 3886 लोग या तो मारे गए अथवा लापता हुए, इसमें से मात्र 644 शव मिले हैं। 3242 लोगों का कोई पता नहीं चल पाया। राज्य सरकार द्वारा जारी आकड़ों के अनुसार इस आपदा में लगभग 13000 करोड़ के नुकसान का आंकलन किया गया। इसके बाद भी इस राज्य में लगातार भूस्खलन और हिमस्खलन को घटनाएं सामने आती ही रहती है। कुछ ऐसा ही फरवरी 2021 में तब हुआ था, जब चमोली जिले में ऋषि गंगा कैचमेंट से जल प्रलय निकली थी। तब सात फरवरी की सुबह हैगिंग ग्लेशियर टूट गया था। उस समय इस तरह के खतरों से पहले से ही सचेत रहने के लिए तमाम कसरत की गई थी। यहां तक कि ग्लेशियर क्षेत्रों की सैटेलाइट से निरंतर निगरानी की बात भी सामने आई थी। ताकि समय रहते ग्लेशियर और ग्लेशियर झीलों में आ रहे असामान्य बदलावों की पहचान की जा सके, लेकिन फिर भी हादसा हुआ । इसी तरह बदरीनाथ के माणा क्षेत्र में ग्रेफ के श्रमिक एवलांच जोन में निरंतर बर्फबारी के बीच भी श्रमिक काम करते पाए गए, उससे निगरानी तंत्र को लेकर सवाल भी खड़े होते हैं। इसका कारण है कि हिमनदों का पिघलना, टूट कर नदियों में गिरना, बादल फटने जैसी घटनाएं हिमालय क्षेत्र में सामान्य बात हैं। उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाओं के संकेत करीब चार दशक पहले से ही मिलने लगे थे। भूविज्ञानी पहले ही चेतावनी दे चुके थे कि ऋषिगंगा क्षेत्र में आठ हिमनदों के पिघलने की दर सामान्य से अधिक है। जाहिर है कि जब-जब ये टूटेंगे तो ऋषिगंगा में ही गिरेंगे और कहर बरपाएंगे। ऋषिगंगा नदी पर हिमनदों के टूटने से जो दबाव बनता है, उससे आसपास की नदियों-धौलीगंगा, विष्णुगंगा, अलकनंदा और भागीरथी में जल प्रवाह उग्र रूप धारण कर लेता है। बढ़ते तापमान और हिमालय के भीतर हो रहे परिवर्तन भी हिमनदों की प्रकृति को तेजी से बदल रहे हैं, जिससे इनके टूटने की घटनाएं भी तेजी से बढ़ रही हैं। यह ऐसा प्राकृतिक संकट है जिससे कोई बचा नहीं सकता। इन खतरों को देखते हुए ही नदियों पर बांध बनाने को लेकर चेताया जाता रहा है। चमोली की आपदा में ऋषि गंगा पर बनी तेरह मेगावाट की बिजली परियोजना और धौलीगंगा पर पांच सौ बीस मेगावाट की बिजली परियोजना पूरी तरह से बह गई और इन पर काम कर रहे लोग भी इस आपदा का शिकार हो गए। इसलिए यह सवाल क्यों नहीं उठना चाहिए कि वैज्ञानिकों की चेतावनियों के बावजूद ऐसी परियोजनाएं इन इलाकों में क्यों बनाई जाती हैं? पहाड़ी इलाकों में रहने वाले निवासियों का जीवन बेहद कठिन होता है। प्राकृतिक कारण इसे और जोखिमभरा बना देते हैं। ऐसे में प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि आपदाओं के लिहाज से जो इलाके संवेदनशील और बेहद खतरनाक हैं और जिन इलाकों में ऐसी आपदाओं के बारे में वैज्ञानिक सचेत करते रहे हैं, उन इलाकों में ऐसी सुविधाएं विकसित करने पर जोर दिया जाए जो बेहद गंभीर संकट में भी लोगों को बचा सकें। हालांकि केदारनाथ के हादसे से सबक लेकर आपदा प्रबंधन के स्तर पर काफी सुधार देखने को मिला है। यह हादसा एक बार फिर चेता रहा है कि प्रकृति के साथ संतुलन बनाया जाए, न कि उस पर अतिक्रमण हो। हकीकत यह है कि पिछले कुछ समय से हिमस्खलन की घटनाओं में बढ़ोतरी की एक वजह प्राकृतिक है, तो दूसरी वजह असंतुलित विकास और पर्यावरण की उपेक्षा। उपभोक्तावादी संस्कृति को प्रोत्साहित कर जिस तरह वैश्विक तापमान को बढ़ाया गया है, उससे न केवल जल,जंगल और जमीन पर दुष्प्रभाव पड़ा है, बल्कि समुद्र तथा पहाड़ भी इससे अछूते नहीं रहे। प्रकृति की प्रतिक्रिया हम जलवायु परिवर्तन के रूप में देख सकते हैं। कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ और कहीं जंगलों में आग से लेकर हिमस्खलन की बढ़ती घटनाएं इसी का संकेत दे रही हैं। जरूरत है कि ऐसी घटनाओं से सबक लिया जाए। हर तरह की प्राकृतिक आपदा के लिहाज से उत्तराखंड संवेदनशील है। इसके बाद भी अभी तक प्रदेश में समुचित आपदा निगरानी तंत्र विकसित नहीं हो पाया है। खासकर उच्च हिमालयी क्षेत्रों में एवलांच और ग्लेशियर झीलों से निकलने वाली तबाही को लेकर मशीनरी के हाथ बंधे हुए हैं। हिमस्खलन जैसी घटनाओं के प्रति सावधानी और जनजागरूकता से कुछ हद तक जानमाल के नुकसान को कम किया जा सकता है। मगर पहाड़ी इलाकों में जिस तरह मनुष्यों का बेतहाशा हस्तक्षेप बढ़ा है, उसमें सड़क से लेकर अन्य अनियोजित निर्माण कार्यों के गंभीर नतीजे अब सामने आ रहे हैं। एक तरफ दुनिया जलवायु परिवर्तन से जूझ रही है, तो दूसरी ओर संवेदनशील क्षेत्रों में प्रकृति से छेड़छाड़ किए जाने के कारण पर्यावरणीय विध्वंस बढ़ रहा है। यह बदलाव मानव को आपदाओं के प्रति अधिक संवेदनशील बना रहा है। हाल के वर्षों में, विभिन्न प्रकार की परियोजनाएं जैसे- सड़कों का निर्माण, पर्यटन एवं पिकनिक स्पॉट्स आदि में अनियंत्रित वृद्धि हुई है। इसने पहाड़ों को अधिक नाज़ुक एवं असुरक्षित बना दिया है।
मूल रूप से वर्तमान समय में यह धारणा बन चुकी है कि विकास जरूरी है, जिससे लोगों को रोजगार मिलेगा, क्षेत्र की तरक्की होगी, लोगों में खुशहाली आएगी लेकिन तब भी
जरूरत है कि ऐसे हादसों से सबक लिया जाए और पहाड़ पर अनियंत्रित विकास को विराम देते हुए पहाड़ के संवेदनशील स्वरूप के अनुरूप मानव व्यवहार व योजनाओं को मूर्त रूप दिया जाए। विकास के नाम पर पहाड़ का विनाश आखिर पहाड़ कब तक सहन कर सकता है? आखिर कब तक हमारे पहाड़ विकास के नाम पर विनाश का गरल पीते रहेगें?
(मनोज कुमार अग्रवाल-विभूति फीचर्स)



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