भारतीय संस्कृति की मूल है।गौ माता :डा० पंकज मिश्रा ‘मंयक’

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लालकुआं/ राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ब्यास डा० पंकज मिश्र ‘मयंक’ ने कहा कि गाय प्राचीन काल से ही भारतवर्ष में पूज्य रही है, और इस देश की प्राण मानी जाती रही है, गौ पालन ही इस महान देश का सम्पूर्ण जीवन रहा है। इसीलिए गोवंश का संरक्षण, सम्वर्धन एवं विकास करना प्रत्येक भारतीय अपने जीवन का सर्व प्रधान व परम कर्तव्य समझे। भारतीय संस्कृति की मूल में गौमाता ही रही है। इसके बिना भारत तथा भारतीयता का कोई अर्थ नहीं रह जाता। शैल शक्ति से हुई वार्ता में डा० मिश्न ने कहा कि वैदिक ग्रंथों से लेकर सभी आर्यग्रंथों ने खुलकर गऊ की महिमा गायी है और गोपालन को मनुष्यमात्र के लिए सबसे पवित्र कर्म कहा है। तभी तो राजा से लेकर सन्त-महात्मा एवं सामान्य जन सभी प्राचीन काल में प्राथमिकता के आधार पर गोपालन करते थे। जिनके पास जितनी अधिक गायें होती थीं समाज में, देश में वह उतना ही अधिक सम्मानित समझा जाता था। हर किसी में मानो अधिक से अधिक गौवें पालने तथा गो-वंश को बढ़ाने की होड़ सी लगी रहती थी। गो-सेवा करके हर कोई स्वयं को धन्य मानता था। तभी तो भारत भूमि में सर्वत्र सुख-शांति, स्मृिद्व, संतोष एवं खुशहाली का वातावरण था।उन्होनें कहा गौ माता की रक्षा,सेवा,सबसे बड़ा धर्म है।
वाल्मीकि रामायण से लेकर, महाभारत, श्रीमद् भागवत, पुराण आदि ग्रंथों गाय की महिमां का यशोगान करते है
श्रीमद् भागवत में भी गौ माता का अतुलनीय वर्णन आता है।
श्रीमद् भागवत में भगवान श्री कृष्ण की गौ-भक्ति, गौ-सेवा तथा गऊ दान के बडे ही प्रेरक प्रसंग है-
गर्ग संहिता में कहा गया है-
नन्दः प्रोक्तः स गोपालैर्नवलक्षगवां पतिः।
उपनन्दश्च कथितः पश्चलक्षगवां पतिः।।
वृषभानु स उक्तो यो दशलक्षगवां पतिः।
गवां कोटिर्गृहे यस्य नन्दराजः स एव हि।।
कोटयर्ध च गवां यस्य वृषभानुवरस्तु सहः।। ;गोलोक खण्ड
यानि जिस गौपालक के पास नौ लाख गाएं हों उसे नन्द, जिसके पास पांच लाख गायें हों, उसे वृषभानु, जिसके पास एक करोड़ गायें हों उसे नन्दराज और पचास लाख गाय वाले को वृषभानुवर कहते थे।
श्रीमद् भागवत के दशवें स्कन्ध के पांचवें अध्याय में कहा गया है- स्वर्णजड़ित सींग और चांदी के खुरों से परिशोभित बीस लाख श्रेष्ठ गाएं वृज महेन्द्र नन्दराज ने भगवान श्रीकृष्ण के जन्म महोत्सव पर ब्राह्मणों को दान की थी।
इस तरह शास्त्र सिद्व करते हैं ,कि प्राचीन भारत गायों से भरा हुआ था। तब गायों की गिनती कर पाना संभव नहीं था। जन सामान्य तो दूर स्वयं राजा, राजकुमार, दरबारी, गुरू, आचार्य सभी गायों का संरक्षण करने में अपना सौभाग्य समझते थे।आज गौ माता की सेवा परम आवश्यक है।

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