विकास की राह देखते गंगावली के गौरवशाली गाँव

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गंगाओं का प्रदेश अर्थात गंगावली क्षेत्र पर्यटन एवं तीर्थाटन की दृष्टि से काफी समृद्ध है। सिद्ध शक्तिपीठ श्री महाकाली दरबार विश्व प्रसिद्ध गुफा पाताल भुवनेश्वर, चण्डमुण्ड विनाशिनी चामुण्डा मन्दिर, श्री राम की शिव शक्ति का प्रतीक रामेश्वर मन्दिर सहित हटकेश्वर, कृतेश्वर, भृगुतम्ब आदि अनेक पौराणिक व ऐतिहासिक स्थल इस भूभाग में सदियों से पूज्यनीय है। इसी क्षेत्र में लगभग साढ़े आठ हजार फिट की ऊंचाई पर स्थित त्रयम्बकेश्वर शिखर जिसे लमकेश्वर के नाम से पुकारा जाता है। इसके उत्तर-पश्चिम भाग में अट्ठी गांव पट्टी के अनेक गांवों के समूह को वौराणी के नाम से जाना जाता है। बौराणी क्षेत्र में स्थित चाक गांव पुरातन काल से अपार श्रद्धा व भक्ति का केन्द्र रहा है। कारण यहां स्थित सैम दरबार जो आकर्षक नयनाभिराम दृश्य को अपने आप में समेटे हुए है। इस मंदिर में कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर बड़ा विशाल मेला लगता है। यह मेला समूचे उत्तराखण्ड में खासा प्रसिद्ध है। प्रति वर्ष राष्ट्रीय व क्षेत्रीय समाचार पत्रों में इस मेले की व्यापक चर्चा होती है।

आजादी के लम्बित वर्षों बाद भी इस क्षेत्र के अनेकों गांव यातायात की समस्या से जूझ रहे हैं। यदि अतीत के झरोखों में झांके तो लमकेश्वर शिखर के ठीक नीचे अंग्रेजों के जमाने में स्थापित प्रसिद्ध झलतोला टी स्टेट प्रसिद्ध है। यहां की चाय भी विश्व प्रसिद्ध चायों में है। सन् 1940 में इसी झलतोला के राजनीतिक सम्मेलन में डा. राममनोहर लोहिया ने शिरकत कर आजादी के आंदोलन का बिगुल बजाया था।
यह उस जमाने की बात है जब अल्मोड़ा से आगे मोटर मार्ग का अभाव था। अल्मोड़ा से बेरीनाग-राईआगर तक लगभग 50 मील का पैदल सफर उस दौर में कैसे तय किया होगा, इस कठिनता को सहज ही महसूस किया जा सकता है। जबकि आज आधुनिकता की चकाचौंध में नेता जन गाड़ी से उतरकर पैदल चलना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। वर्ष 1940 में राम मंदिर में हुए राजनीतिक सम्मेलन में डा. लोहिया ने दी। यहां राम मंदिर का उद्घाटन किया था। बाद में क्षेत्र के जागरूक सामाजिक कार्यकर्ता दुर्गासिंह रावत के असामयिक निधन के बाद क्षेत्रीय विकास को झटका लगा और स्थितियां आज भी जस की तस हैं।
यह इलाका विशेष रूप से तराशे गये मजबूत पत्थरों के लिए भी जाना जाता है। इन पत्थरों से घराट, जतरा व दलनी का निर्माण किया जाता था। दूर-दूर से लोग इन्हें खरीदने भी आते थे। कालांतर में अनेक बदलावों के कारण यह उद्योग यहां शून्य हो गया। यह क्षेत्र भांग के पेड़ों के रेसों से बने कुथलों व बुदलों के लिए भी जाना जाता था। वक्त की मार ने इसे भी बंद कर दिया। क्षेत्र में गाड़-गधेरों की प्रचुरता है तो पानी की भी कोई कमी नहीं है। फलोत्पादन के साथ धान की खेती और पशुपालन से क्षेत्र समृद्ध है, लेकिन आवागन की परेशानी के कारण सब व्यर्थ हो जाता है।
क्षेत्र के कई गांव अभी भी बिजली व सड़क सुविधाओं से वंचित हैं। कई सड़कें आधी-अधूरी बनकर अधर में लटकी हैं। क्षेत्र से पलायन भी बड़ी संख्या में हो रहा है। कई लोग गांव छोड़कर तराई भावर में बस गये हैं। क्षेत्र में सुविधा उपलब्ध कराकर इस फिर से खुशहाल बनाया जा सकता है।

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