*ताः सर्वाः पूजिताः पृथ्व्यां पुण्यक्षेत्रे च भारते।*
*पूजिता सुरथेना दौ दुर्गा दुर्गार्तिनाशिनी।।*
*ततः श्री रामचन्द्रेण रावणस्य वधार्थिना।*
*तत्पश्जाज्जगता। माता त्रिषु लोकेषु पूजिता*।।
भगवती प्रकृति के वे सभी रूप पृथ्वी पर पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में पूजित है। सर्वप्रथम राजा सुरथ ने दुर्गति का नाश करने वाली दुर्गा देवी का पूजन किया था।
तत्पश्चात रावण का वध करने की इच्छा से भी रामचन्द्र ने उनका पूजन किया था तभी से जगत जननी दुर्गा तीनों लोकों में पूजित है। दूनागिरी की दुर्गा माता का विराट स्वरूप अनन्त व अगोचर है। इनकी महिमा को शब्दों में समेट पाने की क्षमता किसी में भी नहीं है।
हिमालय की वसुंधरा में बसे जनपद अल्मोड़ा का दूनागिरी क्षेत्र सदियों से आराधना का प्रसिद्ध केन्द्र रहा है। एक बार जो यहां पहुंच जाए, बार-बार यहां के दर्शनों की इच्छा रखता है। द्वाराहाट नगर से 14 किमी. दूर समुद्र सतह से 1650 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह क्षेत्र समूचे उत्तराखण्ड में अपना विशिष्ट स्थान रखता है और रामायणकाल की ऐतिहासिकता की गवाही भी देता है। द्रोण पर्वत की चोटी पर आदिशक्ति महामाया दो पिण्डी के शिलाओं के रूप में दर्शन देकर भक्तों को निहाल करती है।
जानकार महात्मा इस शिखर को संजीवनी शिखर के नाम से भी पुकारते हैं। इन्हीं की कृपा से लक्ष्मण को संजीवनी प्राप्त हुई। रामायण काल की यादों को अपने आंचल में समेटे इस मंदिर के बारे में कहावत है कि त्रेता युग में राम-रावण युद्ध के दौरान जब लक्ष्मण को मेघनाथ के साथ युद्ध करते हुए शक्ति लग गई, तब लक्ष्मण को मूर्छा से जगाने के लिए सुषेन वैद्य ने हनुमान जी को द्रोर्णांचल पर्वत पर संजीवनी लेने भेजा। काफी प्रयासों के बाद भी वे संजीवनी को नहीं ढूंढ पाये तो उन्होंने समूचा द्रोणांचल पर्वत अपनी हथेली पर उठा लिया। कहा जाता है कि जब वे द्रोणांचल पर्वत को उठाकर लंका की ओर ले जा रहे थे तब पर्वत का एक हिस्सा टूटकर इस क्षेत्र में गिर गया और तब से यह क्षेत्र द्रोणागिरी के नाम से प्रसिद्ध हो गया और कालांन्तर में दूनागिरी के नाम से जाना जाने लगा। दूनागिरी पर्वत के आसपास धार्मिक महत्व के अनेकों पौराणिक स्थल मौजूद हैं। यह क्षेत्र प्राकृतिक दृष्टि से काफी मनमोहक है। बनवास काल के दौरान पाण्डवों ने भी अपना काफी समय मां दूनागिरी के सानिध्य में व्यतीत किया।
दूनागिरी से आगे पाण्डवखोली काफी प्रसिद्ध व रमणीक स्थान है। भटकोट नामक पवित्र स्थल भी दूनागिरी के सामने ही स्थित है। इसकी ऊंचाई 7066 मीटर है। यह इस क्षेत्र की सबसे ऊंची चोटी मानी जाती है।
मान्यता है कि यहां के जंगलों में पारस पत्थर भी उपलब्ध है। इस विषय में एक दन्त कथा भी प्रचलित है। वर्षों पहले एक बार एक महिला लोहे की दराती से यहां के जंगलों में घास काट रही थी कि घास काटते-काटते ही उस महिला की दराती पत्थर से टकराने के कारण सोने की हो गयी।
दूनागिरी मंदिर में स्थित दो शिला विग्रहों को शिव व शक्ति के रूप में भी पूजा जाता है। काली व दुर्गा के रूप में भी इनकी स्तुति होती है। श्रद्धावान भक्तजन बताते हैं कि पूर्व काल में राजा सुधारदेव ने दूनागिरी मंदिर में मूर्तियों की स्थापना की। जगतगुरू शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में इस स्थान पर आकर देवी का पूजन किया।
चैत्र व आश्विन माह की नवरात्रि में यहां विशेष धार्मिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं। इस क्षेत्र में जड़ी-बूटियों के अपार भण्डार बताया जाता है। यदि जड़ी-बूटियों के संरक्षण के लिए सार्थक प्रयास हो तो यह तमाम जड़ी-बूटियां लोगों को नवजीवन प्रदान करने में सहायक सिद्ध होंगी।
अभीष्ट सिद्धि की प्राप्ति के लिए यह शिखर अतुलनीय है, ‘‘ते सिद्धि यान्ति वै विप्राः प्रार्थितां सिद्धिनायकै।’’ इस पर्वत पर कालिका का पूजन करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। इनका पूजन काली के रूप में भी किया जाता है।
‘‘कालिका देवी द्रोणाद्रिकुक्षिसंस्थिताम्’’ माना जाता है कि माता दूनागिरी के आंचल में विशल्यकरणी, सावर्ण्यकरिणी, सजीवकरणी तथा सन्धानी नामक महाऔषधियों का दिव्य भण्डार है। इन्हीं औषधियों से लक्ष्मा की मूर्छा भंग हुई। महर्षि भारद्वाज पुत्र द्रोणाचार्य की तपोभूमि के रूप में इस पर्वत की पुराणों में विशेष ख्याति है। समीपस्थ पर्वत लोध का जिसे भटकोट कहते हैं, उस पर्वत की महिमा भी आलौकिक है। दूर्नागिरी पर्वत पर महान युग संत भटकोटी के दर्शन होते हैं। जगत के कल्याण के लिए इन्होंने अपना जीवन माता दूनागिरी के चरणों में अर्पित कर दिया है।
कहा जाता है कि महा प्रतापी योगी बाबा लाहिड़ी व महावतार बाबा बाबा हैड़ाखान नीम करोली बाबा, माँ पीताम्बरी के उपासक नानतिन बाबा, आदि ने इसी पर्वत पर तपस्या करके अलौकिक सिद्धियां प्राप्त की











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