विश्वकर्मा जी का है विशाल परिवार, जानिये कौन – कौन है सदस्य

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अनन्त कोटी ब्रहमाण्ड के नायक है,भगवान श्री विश्वकर्मा बाबा श्री विश्वकर्मा जी की लीलाओं तथा कथाओं का वर्णन अनन्त है,अनन्तकोटी ब्रह्माण्ड के नायक के रुप में इनकी माहिमां का बखान भी अनन्त है।समुद्र मंथन की कथा का सार भी इन्ही की लीला का पावन कार्य माना जाता है, समुद्र मंथन में निकले चौदह रत्न लक्ष्मी,परिजातवृक्ष,कौस्तुभमणि,मदिरा,वैधधन्वन्तरी,चन्द्रमां,कामधेनु गाय,ऐरावत हाथी,अप्सराएं,सप्तमुखी अश्व,धनुष,शंख,विष,अमृत सभी इनकी लीला व कृपा का फल माना जाता है।

इन सभी रत्नों में लक्ष्मी माता श्रेष्ठ थी,बाबा की कृपा से उन्होंने भगवान विष्णु से विवाह किया,कौस्तुभमणि एवं शखं भी श्री विष्णु जी को प्राप्त हुए क्योकिं उनका परिश्रम श्रेष्ठ माना गया देवराज इन्द्र को ऐरावत हाथी,सप्तमुखी अश्व,धनुष व अप्सराएं मिली ऋषियों के हिस्से में कामधेनु गाय,परिजात वृक्ष सर्वग को,तथा चन्द्रमां को आकाश में स्थापित किया गया,दैत्यो के हिस्से में मदिरा आयी और हलाहल विष को भगवान शंकर ने धारण किया और वे नीलकंठ कहलाये।वैधधन्वन्तरी जी को देवताओं का वैद्य नियुक्त किया गया।दैत्यजन तो मदिरापान कर मस्त हो गये जिस अमृत को पाने के लिए समुद्र को मथा गया था,वह अमृतकलश जब बाहर आया तो उसे पाने के लिए छीना झपटी का खेल शुरू हो गया।भगवान विष्णु ने मोहिनी रुप धारण कर अपनी माया से देवताओं और दैत्यों को अमृत बाटनें की लीला रची इस लीला में उन्होनें देवताओं को अमृत का पान कराया और राहु भी धोखे से अमृत का पान कर गया जिसका शीष काटकर भगवान विष्णु ने उसे ग्रहों में स्थान दिया यह समस्त लीला भगवान विश्वकर्मा की मानी जाती है,

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इस तरह से विश्वकर्मा जी की लीलाओं का कोई पार नही है।भगवान विष्णु का वामन अवतार भी इन्हीं की लीला का हिस्सा कही जाती है।इनके पुत्र वास्तुदेव की पूजा का भी परम पावन महत्व है,भगवान शिव और अधकं के युद्ध के प्रसंग में उनके पसीने से उत्पन्न वास्तुदेव की कथा का वर्णन पुराणों में विस्तार के साथ पढ़ा जा सकता है,भगवान विश्वकर्मा जी की लीलाएं विचित्र है,

लोक कल्याण के लिए श्री विश्वकर्मा जी ने अपने पाचँ मुख से पाचँ पुत्र उत्पन किये।उनके प्रथम मुख संद्योजात से मनु तथा सानग की उत्पति हुई, सनातन नामक दूसरे पुत्र की उत्पत्ति उनके दूसरे मुख वामदेव से हुई,अघोर नामक तीसरे मुख से त्वष्टा का जन्म हुआं शिल्पीनामक चौथा पुत्र उनके चौथे मुख तत्पुरुष से उत्पन हुआ ,इशान नामक पाचवें मुख जिस पुत्र का जन्म हुआ वह जगत में देवज्ञ नाम से प्रसिद्व हुआ।श्री विश्वकर्मा जी के ये पाचों पुत्र शिल्पकला में पारगंत थे।जिनकी प्रसिद्वि संसार में ब्रह्मऋषि के नाम से भी हुई।कहा जाता है,कि इस भूमण्डल में जितने भी निर्माण कार्य सनातन काल से होते आये है,उनके केन्द्र में ये पाचँ योगी ही रहे है,जिन्हें संसार युगों युगों से पूजता आया है।श्री विश्वकर्मा जी के प्रथम मुख संद्योजात से उत्पन मनु ने आश्वालयन सूत्र का अध्यन करके लौह संहिता का अभ्यास कर लौह विषयक शिल्पी विद्या में निपुर्णता हासिल की ।वामदेव नामक दूसरे मुंह से उत्पन्न पुत्र मय नामक पुत्र ने आपस्तम्ब नामक सूत्र का अध्यन करके काष्ठशिल्प में पारागतां हासिल की ।अद्योर नामक तीसरे मुख से जन्में पुत्र त्वष्टा ने दाक्षायन सूत्र का अध्यन करके गाधर्व वेद का अध्यन किया ये विशेष रुप से सामवेद के ज्ञाता भी थे।ताम्रसंहिता में भीइन्हें सिद्धि प्राप्त थी।उनके चौथे मुख तत्पुरुष से उत्पन्न शिल्पी नामक पुत्र अथर्ववेद के महान ज्ञाता थे,इन्होनें बोधायन सूत्र एंव शिल्पी संहिता को अपनाकर संसार का भांति भाति प्रकार से मंगल किया।श्री विश्वकर्मा जी के इशान नामक पाचवें मुख से देवज्ञ का जन्म हुआ इन्होंने कात्यायन सूत्र तथा स्वर्णसूत्र का अध्यन करके संसार को अलौकिक ज्ञान प्रदान किया।

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आगे चलकर श्री विश्वकर्मा जी के पांचो पुत्रों का विवाह बड़े ही धूमधाम के साथ सम्पन हुआ मनु की पत्नीकाचं मय की पत्नी सुलोचना,त्वष्टा की पत्नी जयतीं ,शिल्पी की पत्नी करुणा,दैवज्ञ की पत्नीचनिद्रका से अनेकों संतानों का संसार में विस्तार हुआ इनके प्रथम पुत्र सानग गोत्रीय कहलाये पुराणों के अनुसार मनु के वंशजो के पच्चीस उपगोत्रों का विस्तार हुआ जो इस प्रकार है।मन्युपति,सीमन्त,उपस्तानग,लजन,सत्यक,मामन्यु,श्रेतागद,विभ्राज,भास्तन्त,सुतप,भूबल,पुरन्जय,कश्यप,मधु,प्रबोधक,संतर्त,भानुमाति,मुनि विश्वकर्मा,सर्वभद्र,सुलोचन,विश्वपेन्ट,जयतकुमार,विश्वात्वा,चितवसु,चित्रधर्म।दूसरे पुत्र मयवशजों में मानुष,सनतकुमार,धार्मिणक,विद्यातृ,द्विजधर्म,वर्धक,भावबोध,तक्षक,शांतमाति,आदिशयन,उपसनातन,वामदेव,विश्वचक्षु,प्रतितक्ष,सुतक्ष,विश्वतोमुख,विश्वदक्ष,विश्रुत,सुमेध,पन्नग,रैवत,प्रहर्ष,जयद,परिषगं,वितन्त तीसरे पुत्र अहभून गोत्रीय त्वष्टा के पच्चीस पुत्रों के पच्चीस गोत्र संवर्त,यज्ञपाल,प्रतिवक्ष,कुशधर्म,अतिधातृ,लोकेश,पदमपक्ष,वितक्ष,मोदमति,विश्वभय,उपाधमून,भद्रदक्ष,काण्डव,विश्वरुप,त्रिमुख,बौधायन,जातरुप,चित्रसेन,जयसेन,विधनस,प्रमोन्नत,देवल,विनय,ब्रह्मादीक्षित,हरीधर्मा,चौथे पुत्र शिल्पी के वशंजों में भी पच्चीस उपगोत्र प्रचलित है ।जिनमे प्रहर्षण,वास्तुक,उपप्रत्न,विश्वभद्र,शक्कट,लोकवेत्ता,इन्द्रसेन,रुचिदत्त,झानभद्र,राजधर्म,चित्रक,गिरिधर्म,वास्तुभ,देवभद्र,वेदपाल,सहत्रबाहु,वसुधर्म,इन्द्रसेनव्यजंक,भोक्तमनु,देशिक,वज्रजीत,सनाभस,प्रबोधमनु,पज्ञोमति बाबा विश्वकर्मा जी के पाचवें पुत्र सुवर्ण गोत्रीय महर्षि देवज्ञ के उपगोत्र इस प्रकार कहे गये है

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मणिभद्र,आदिस्यसेन,सुपर्ण,मैत्रेय,बोधक,मनुसुव्रत,अर्वत,विश्वज्ञ,तेजोधर्म,देवसेन,तिवर्धन,आर्चित,परित,सुदर्शन,आदित्य,याज्ञिक,अच्युत,सौरसेन,उपगोय,निगम,संज्ञिक,कर्दम,सांख्यायन,सातकं,उपयक्ष भगवान विश्वकर्मा से प्रेरित ये सभी महार्षिजन संसार में विराट शिल्पीविशेषज्ञ हुए इनके वंशज समूचे संसार में फैले हुए है।

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