हम तो है खास गंगोली के

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ऐसा माना जाता है ब्रज प्रदेश के बाद होली और कहीं होती है तो कुमाऊं में।यहां भी गंगोली की होली का जबाब नही माता महाकाली के आगन में गायी जाने वाली होली का रंग तो भक्ती के उत्साह से परिपूर्ण रहता ही है समूची गंगोली का नजारा भी होली के उत्सव में लाजबाब रहता है…….इसलिए यू ही नही कहते है….हम तो है खास गंगोली के….लेकिन पलायन ने अब पुरानी रंगत को फीका कर डाला है फिर भी उमंग में कोई कमी नही
उत्तराखण्ड में होली से बड़ा त्यौहार या उत्सव कोई और नहीं है। यूं तो पौष माह के पहले रविवार से ही बैठक होली यानि हारमोनियम, तबला, ढोलक की संगीत राग-रागिनी आधारित होलियां गाने का सिलसिला शुरू हो जाता है, लेकिन होली की असली शुरूआत बसंत पंचमी से होती है, जब घर-घर पीले रंग में रुमाल रंग जाते हैं। घर की खोली या दरवाजे की चौखट पर गाय के गोबर के सहारे जौ के पौंधे की झालर बांधी जाती है और कुरकुरे सुरचादु पुए पकाकर चाव से मिल बांट कर खाये जाते हैं। इस दिन से वातावरण में फागुनी गंध धुलनी शुरू हो जाती है।
बसंत पंचमी से गांव-कस्बों में जगह-जगह होली की रात्रि बैठकें जमनी शुरू हो जाती हैं, जिनमें काफी सहाना, पीलू, धमार आदि रागों पर आधारित होली गीत हारमोनियम, तबले, ढोलक की संगीत में झूम-झूम कर गाये जाते हैं। इस होली गीत को ‘मसिणि होली’ कहा जाता है। इन होलियों के गायक जरूरी नहीं कि संगीत के बाकायदा जानकार ही हों, बस हारमोनियम बजाना और होलियों की तर्ज आना ही काफी होता है। राग की शुद्धता के बजाय सुर-ताल का ख्याल रखते हुए मिलजुल कर भाग तुकंदी लगाकर गाने और उसका आनंद उठाने का ही महत्व दिया जाता है। शिवरात्रि तक ‘मसिणि होली’ वाली बैठकों की धूम रहती है।
शिव रात्रि से ‘मसिणि होली’ के अलावा असली पहाड़ी होली गीत, जिन्हें बैठ होली कहा जाता है, गाने का भी सिलसिला शुरू हो जाता है। घर बाखली के पटांगण या मंदिर प्रांगण में धूनी जला कर उसके चारो ओर बैठकर देर रात तक बैठ होलियां गायी जाती हैं। इसमें होली गाने वाले ‘होलारों’ के दो समूह बंट जाते हैं। एक समूह मुख्य होली गायक जिसे जिलार कहते हैं, के साथ होली की शुरूआत करता है और दूसरा समूह उन्हीं को दोहराता जाता है। होली गायन के साथ ढोलक मजीरों को बजाया जाता है। पहली मीटर होली, सिद्ध विनायक गणपति की महिमा में गायी जाती है एक दंज गजो लम्बोद है।
सिद्ध करत विघ्न हरत, पूजो गणप ित देवा।
उसके बाद शिव, राम, कृष्ण आदि देवताओं, देवियों के जीवन चरित्र व लीला पर आधारित होली गीतों का गायन होता है। ढोलकों की ढम-ढम और मंजीरों की छम-छम के साथ जाने वाली बैठक होलियों से समा बंध जाता है। बैठ होली में गांवों के सारे उपस्थित व्यक्ति गाने में सहभागिता करता है, जबकि मसिणि होली में गाने बजाने का शौकीन या गा सकने वाले ही भाग लेते हैं।
फाल्गुन शुक्ल पक्ष की एकादशी से होली की वास्तविकता रंगमय दौर शुरू होता है, जिसमें गांव के सभी लोग सफेद कपड़े पहन कर उसमें रंग के छीटे डाल कर ही होली में भाग लेते हैं। एकादशी या कहीं-कहीं दशमी को निश्चित मुहूर्त पर लाल व सफेद रंग के ‘निसाण’ (ध्वज) बांधे जाते हैं। जिनके शीर्ष पर मोरपंख, चवर, पुच्छ तथा रंग-बिरंगे रेशमी चीर भी टाके जाते हैं। यह कार्य गांव के प्रधान या मुखिया के आंगन या किसी मंदिर प्रांगण में होता है। निसाण बांधने के बाद होली के सफेद कपड़े पहन खड़े होकर चलते हुए ठाड़ि होली की खास व आकर्षक विधायें हैं। खड़ी होकर नाचते झूमते हुए गायी व खेली जाने वाली इन होलियों का वास्तविक आनंद प्रत्यक्ष देखकर ही प्राप्त हो सकता है।
एकादशी से रात्रि के अलावा दिन भर की होली खेलने गाने का अंतिम चरण शुरू हो जाता है, जिसमें पूरे गांव के होलारों का दल एकादश से पूर्णमासी तक एक पूर्व निर्धारित क्रम के साथ प्रतिदिन बारी-बारी गांव की हर बाखली, हर घर, गांव बिरादरी के छोटो तोकों तथा सभी देवी-देवताओं के मंदिरों में जाकर होली खेलता है और इसी तरह पांच रातों को भी अलग-अलग बाखलियों के प्रांगणों या कहीं-कहीं मंदिर परिसर में भी होली की रात्रि बैठकें जमती हैं। हर घर या बाखली में पहले ‘ठाड़ि होली’ गायी जाती है। फिर गोल वृत्त में बंजर होता है तथा बैठकर होली गायी जाती है। हर घर में होली के निसाणों की आरती भेंट होती है, होलारों पर रंग छिड़का जाता है। अबीर गुलाल लगाया जाता है तथा गुड़ की डली, सौंप सुपारी, बीड़ी-सिगरेट से होलारों का सत्कार किया जाता है। एक स्थान से दूसरे स्थान पर होते हुए आगे-आगे लाल, सफेद निसाण, उसके पीछे नगरा, दमुवा, झांझर, तुरही आदि लोक वाद्य बजाने वालों के साथ छोलिया नृतक और पीछे-पीछे होलयारों का समूह चलता है। दिन की इस रंग में होली के बाद रात की बैठकों में भी बैठ होली और मसिणी होली के गायन के साथ स्वांग भड़ैती के कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। धार्मिक-पौराणिक स्थलों पर संबंधित इलाके, पट्टी, गांवों की होलियों का निर्धारित क्रम से आगमन होता है। उस दिन इन स्थलों पर अद्भुत होली मेले का दृश्य पैदा हो जाता है। इन पांच दिनों में इलाके की हर घाटी ढोल नगाड़ों, ढोलक की और होली गीतों से गुुंजायमान रहती है। पूरे पांच दिन हर व्यक्ति दुःख-सुख भुलाकर होली के रंग में मगन हो जाता है।
पूर्णमासी की रात्रि की निश्चिम मुहूर्त पर होली के निसांण खोल दिये जाते हैं। यह होली की अंतिम रात्रि होती है। विदा और विसर्जन की अंतिम होली और फिर ‘हो-हो होलक रे, आज का बसंता कैसा घरा’ के आशीर्वचनों व बोलों के साथ होली पर्व का समापन होता है।

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