चित्रशीला घाट : कुमाऊँ का महातीर्थ

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काठगोदाम उतरायणी पर्व वैसे तो सम्पूर्ण भारतवर्ष में मनाया जाता है, परन्तु उत्तराखण्ड में इसका उल्लास देखते ही बनता है। उत्तराखण्ड के संदर्भ में यदि पर्वतीय प्रदेश का अर्थ ‘पर्व प्रदेश’ लिया जाय तो सर्वथा उचित होगा। जहां अनगिनत देवता निवास करते हों, वहां पर्वों की सीमा कौन बांध सकता है।यहां मकर संक्रान्ति में रानीबाग का मेला काफी यादगार रहता है। उत्तरायणी पर्व पर कुमाऊं के प्रवेश द्वारा काठगोदाम के निकट रानीबाग में लगने वाला मेला इस तीर्थ की विराट महत्ता को प्रकट करता है। यह मेला प्राचीन काल से अपनी पहचान के लिए प्रसिद्व रहा है। पौराणिक व धार्मिकता के आधार पर इस क्षेत्र का अपना एक अलग ही विशेष महत्व है। सुंदर घाटी से होकर बहने वाली गार्गी नदी व इसके तट पर स्थित मंदिर, चोटी पर स्थित जियारानी के नाम से प्रसिद्व गुफा पौराणिक गाथाओं को बयां करती है। यहां पधारने वाले तीर्थयात्री जन यहां की अलौकिक महिमा से अभिभूत होकर मन में अमिट छाप लेकर लौटते हैं। इस क्षेत्र की महिमा का वर्णन वेद एवं पुराणों में भरा पड़ा है। जो निराला है, इसी निरोलपन में सर्मइा हुई है एक असीम आत्मिक अनुभूमि पौराणिक ऐतिहासिक महत्व वाला यह तीर्थस्थल अनेकों किवदंतियों को भी अपने आप में समेटे हुए है। पुराणों में इस स्थान व इसके आसपास के क्षेत्रों का बड़ा ही सुंदर वर्णन मिलता है। गर्ग ऋषि की तपस्थली गंर्गाचल की महत्ता में चित्रशीला का वर्णन आता है।
‘‘तत्र चित्रशिला दृष्ट्वाऽऽरुरुहुः पर्वतोत्तमम्’’
रानीबाग के उत्तरी छोर में स्थित गर्गाचल की महिमा के सार में ही चित्रशीला की महिमा समाई हुई है। कहा जाता है कि सनातन धर्म के प्रहरी ऋषि गर्ग ने इस क्षेत्र में भगवान शंकर की घोर तपस्या करके उन्हे प्रकट व प्रसन्न किया रामगढ़ मार्ग पर गागर के समीप स्थित शिवालय भगवान शिव की ओर से गर्ग ऋषि की तपस्या के प्रताप फलस्वरूप देवभूमि के लिए अलौकिक भेंट कहीं जाती है। चित्रक, सत्यसेन, तपस्वी र्गार्य एवं सत्यव्रती सिद्वगण सहित गौरी, पद्मा, शची, मेघा, सावित्री, विजया, जया तुष्टि आदि मातृकाओं की यह वास-भूमि कही गई है। चित्रशिला व उसके आसपास के तमाम पर्वतों से निकलने वाली नदियों को पुराणों में भांति-भांति नाम से पुकारा जाता है। जिनके नाम क्रमशः कान्ता, वेणुभद्र, सुवाहा, देवहा, भद्र, भद्रवती, सुभद्रा, कालभद्रा, काकभद्रा, पुष्पभ्रदा, मानसी, मानसा आदि है।

स्ंकद पुराण के मानसखण्ड के 42-43वें अध्याय में ‘‘भद्रवट-महात्म्य’’ के अन्तर्गत चित्रशिला के पूजन का वर्णन व विधि मिलती है। और भागवत में भी ‘‘पुष्पभद्रा’’ यत्र नदी चित्राख्या’’ च शिला विभो’’ से इस तीर्थ की महिमा पर प्रकाश डाला गया है। महर्षि वेद व्यास जी ने इस पावन तीर्थ का बखान करते हुए कहा है। सब तीर्थों की यात्रा एवं सब प्रकार के दानों को करने से भी अधिक पुण्य इस तीर्थ से मिलता है।

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पापों के विनाशक इस तीर्थराज क्षेत्र को ‘‘भद्रवट’’ नामक क्षेत्र कहते हैं। इस पावन तीर्थ के विषय में महर्षि व्यास जी गोपनीय रहस्य को प्रकट करते हुए ऋषियों के समूह की जिज्ञासा शांत करते हुए मानसखण्ड में कहते हैं। जिसका स्मरण करते ही करोड़ों पाप दूर भाग जाते हैं। जो फल, गोदान, माघ स्नान, तथा चन्द्र सूर्य ग्रहणों में कुरूक्षेत्र तथा पुष्कर में स्नान करने से प्राप्त होता है। वह पुण्य ‘‘भद्रवट’’ में प्राप्त होता है। गया श्रद्वा, काशीवास, तथा मानसरोवर में स्नान करने से जो फल प्राप्त होता है। वह भद्रवट में सहज ही मिल जाता है। भद्रवट क्षेत्र में लोभवश दान लेना नरक मे पड़ना है। इस चेतावनी के साथ महर्षि पराशर पुत्र व्यास जी कहते हैं। भद्रवट के पूजा स्थल से बढ़कर कोई दूसरा क्षेत्र नहीं है। जिसकी छाया में भगवान विष्णु सोये उससे बढ़कर और कौन सा क्षेत्र हो सकता है। उस क्षेत्र में देवताओं से गढ़ी हुई परम पवित्र चित्रशिला है जो त्रिदेव का वास स्थान है।

चित्रशिला के इस तहर व्यास जी के मुख से महात्म्य को सुनकर ऋषियों ने उनसे पूछा प्रभो यह चित्रशिला क्यों पवित्र है। मृत्युलोक में इसका पता किसने लगाया तब ब्यास जी कहते हैं। मुनिश्रेष्ठों! पुष्पभद्रा के शुद्व जल में स्नान कर सुतपा नामक मौनी तपस्वी के आश्रम में जाय। उस मुनि ने वट वृक्ष की छाया में रहकर कठोर तप किया है। वह मुनि वहां पर 36 वर्ष पर्यन्त हाथ ऊपर उठाये तथा सूखे पत्तों को खाते हुए साधना करता रहा इस प्रकार समय व्यतीत होने पर सुतपा नामक ऋषि के अनुग्रहार्थ, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि देव भद्रवट पहुंचे। वहां उन्होंने उस मौनी तपस्वी को चित्रशिला पर बैठकर अलौकिक ज्ञान प्रदान किया जिसके प्रताप से वह बैकुण्ठवासी हो गया कहा गया है जो मनुष्य इस शिला का श्रद्वा एवं भक्ति के साथ पूजन करता है। वह लोक भ्रमण के चक्र से मुक्त हो जाता है। इस नदी के जल में स्नान करना और भी दुलर्भ है। जो पुष्पभद्रा के जल में स्नान कर इस दिव्य शिला का पूजन करते है। उन्हें फिर गर्भवास का कष्ट नहीं उठाना पड़ता है। ‘‘मातुर्जठरं विप्रा न पश्चन्ति पुनः पुनः’’ भद्रवट तीर्थ के बारे में अनेकों किवदंतियां प्रचलित हैं। पुराणों में भी इस संदर्भ में कथाएं आती है। जिनमें से एक कथा का वर्णन इस प्रकार है। खस देश का एक व्याध इस बड़े वन में मृगों हेतु विचरण करने लगा इस वन में उस दुरात्म ने सूअर, मृग, हिरन आदि पशुओं का संहार किया एक दिन उसने तपस्या में लीन गर्ग ऋषि को देखा ऋषि दर्शन से समस्त पापों का हरण हो जाता है। तब व्याध को भद्रवत व चित्रशिला की महिमा से अवगत कराते हुए गर्ग ऋशि ने कहा कि हिमालय के प्रदेश में पवित्र गर्गाचल से गार्गी नदी निकलती है। जो पुष्पभद्रा नदी का भी उद्गम स्थल है। पास ही पर्वत के एक छोर से सुभद्रा नदी निकलती है। उन दोनों के संगम में चिताभस्म-विभूषित-भगवान शंकर जागरूक है। उन दोनों संगमस्थली के बाहर तट पर चित्रशिला है। उन दोनों नदियों के जल से सेवित एवं देव तथा ऋषियों से पूजित शिला में ब्रह्म, विष्णु तथा महेश तीनों देवताओं का वास है। उसका दर्शन कर महापापी भी पवित्र हो जाता है। पुष्पभद्रा के जल में श्रद्वापूर्वक स्नान करने से जन्म-जन्मातरों के पापों का नाश हो जाता है। पुष्पभद्रा के दक्षिण में ‘‘भद्रवट’’ के दर्शन भी परम फलदायी हैं। शिला और वट के मध्य ऋषियों के पवित्र आश्रमों से विभूषित ‘‘भद्रवट-क्षेत्र’’ है। गर्ग ऋषि ने व्याध से कहा निष्पाप होकर तुम उस क्षेत्र में जाओं चित्रशिला के दर्शन से तुम्हारा कल्याण होगा। इस स्थान के पूजन से वह सत्यलोक पहुंचा महर्षि गर्ग ने कहा है। इस स्थान की कथा को पढ़ने व सुनने से सत्यलोक में मनुष्य सम्मानित होता है। मकर सक्रांति पर इस नदी में स्नान व इस क्षेत्र के मंदिरों के दर्शन करना बड़ा ही सौभाग्य माना गया है।

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चित्रशिला घाट के संदर्भ में अनेकों किवदंतियों में से एक किवदंती यह भी है, जो अक्सर जन मानस में काफी प्रसिद्व है। प्रसिद्व आख्यान के अनुसार इस स्थान पर कत्यूर वंश की राजमाता देवी जियारानी ने भगवान शिव की घोर तपस्या व आराधना की यहां जियारानी की पौराणिक गुफा भी विद्यमान है। माना जाता है कि सुरंगनुमा इस गुफा से हरिद्वार तक का मार्ग जाता है। यह दंत कथा है सत्य कथा यह तो खोज का विषय है। माना जाता है कि पुष्पभद्रा नदी में स्नान करने के पश्चत जब जियारानी एक बार अपने बालों को सूखा रही थी तब वहां से गुजरते दानवों का दिल जियारानी को देखकर मोहित हो गया रानी को पाने की लालसा से वे उसके पीछे लग गये। शिव कृपा व आशीर्वाद से रानी इस गुफा से सुरक्षित हरिद्वार निकल गई। जियारानी की कहानी उत्तराखण्ड के इतिहास में काफी पौराणिक है।

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