यादों की महक में : उधाणेश्वर महादेव

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उधाणेश श्री महेश्वर
विद्यासागर पन्त
चिटगल में मल्लागाँव औरमडुवाडी वाले लोग दूर अतीत में सिलंग नामक जलस्रोत से पानी पीते थे जो कि बहुत दूर से हाथ से बनी गूल से आकर एक कुण्ड में जमा होता था। कुण्ड से कुछ आगे इसी पानी से एक तालाब बनाया गया था जिसे भैंसीखाल कहते थे। यहाँ पर भैंस आदि मवेशी पानी पीते थे। यहसब बातें स्मृति में हैं।
मेरी दादी जी अपने दूसरे पुत्र (मेरे ताऊ जी स्व°)श्री हेमचन्द्र, हिमी को लेकर संध्या में सिलंग में सुनिवृत्त होकर,कुछ घासपत्ती संग्रह कर वापस घर आने लगी। बेटे को पुकारा -हिमी,अ-आब जानु–,कोई उत्तर न मिलने पर आशंकित माँ ने यह समझकर कि घर चला गया होगा, तेज कदमघर कीओर बढ़ाये,अंधेरा घिरता देख आसपास पडोस में ढूंढ खोज की, लेकिन कोई सुराग नहीं मिला। आशंका अनहोनी का संकेत देने लगी।
तब सिलंग से ही घोर अरण्य था। बाघ और भालू शाम होते ही गाँव में तक आ जाते थे। फिर भी सभी ग्राम्यजन झुंड बनाकर चीड़ के छिलकों की मशालें जलाकर वन्य क्षेत्र में हिमी को ढूंढने निकल पड़े, मध्यरात्रि तक तलाश करने के उपरांत भी सफलता नहीं मिली, समूचे गाँव की रात
आँखों में कट गई।
प्रातः फिर तलाश शुरू हुई, वन प्रदेश से लेकर आसपास के गांवों तक,हिमी का पता नहीं चल पाया। माँ के करुण क्रंदन ने सबको विचलित कर दिया था। दादा जी की श्रीराम में अटूट भक्ति कहती थी कि कुछ नहीं होगा, इष्टदेव श्री शैमजी सहायता करेंगे। रात्यागमन पर तलाश बन्द कर दी गयी। कुछ लोग मानने लगे कि बच्चे को बाघ भालू आदि ने खा लिया होगा, दादाजी की आस्था और माँ की ममता ने हार नहीं मानी। भोर होते ही दादी सहित सभी लोग गाँव के धुर उत्तर प्रांत में स्थित उच्च पर्वत शिखर पर पहुंच गए, माँ ने आराध्य एवं इष्टदेव का स्मरण कर उच्च स्वर से पुकारा –हिमी,इजा–।
प्रत्युत्तर मिला —इजा,
मु याँ छुँ–।बौराई सी माँ दौड़ पडी उस ओर। शरीर की कोई सुध-बुध नहीं, दुश्प्रवेश्य घोर अरण्य, न काँटों की परवाह न हिंस्र प्राणियों का भय। आह–
शिथिल शरीर वसन विशृंखल, कबरी अधिक अधीर खुली। छिन्नपत्र मकरंद लुटी सी, ज्यों मुरझाई हुई कली।
उस समय सबके नेत्र किस रूप में और कैसे अश्रुपूरित रहे होंगे, आप कल्पना कर सकते हैं।
माँ ने अपने आँचल में बच्चे को छिपाकर अश्रु कणों से अभिषेक कर दिया।
प्रकृतिस्थ हो जाने पर बच्चे से पूछा गया कि यहाँ कैसे पहुँच गये?बच्चे ने भोलेपन से बताया कि बाबा जी के साथ आया। उन्होंने ने रोज खूब खीर खिलायी। अब बाबा कहाँ हैं, पूछने पर बच्चे ने इधर उधर देखा, कहा–अभी तो यहीं मेरे साथ थे। हाँ,वही तो थे,श्रीरामजी के रामेश्वर उधाणेश महादेव!! अरक्षित को त्राण देनेवाले बाबा!!
सारा गाँव प्रभु की कृपा से पुलकित और रोमांचित था। गाँव की एक वृद्धा महिला परतिमा ने भी मुझे यह सब सुनाया था। कस हैग्यो वी दिन —हाइ।
डा°हरिराम आर्य इण्टर कालेज कनखल (हरिद्वार) की पत्रिका “जाह्नवी” में भी संभवतः 1964-1965केआसपास लेख -पिताजी की कहानी, पिताजी की जबानी,शीर्षक से देवेन्द्र पन्त(ताऊजी के पुत्र)के नाम से यह वृतांत पढ सकते हैं।
उधाणेश महादेव का यह दिव्य स्थल आजतक उपेक्षित है। यदि यहाँ पर सुन्दर मन्दिर का निर्माण कर दिया जाय तो यह पातालभुवनेश्वर मार्ग में दिव्य पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो सकता है। उधाणेश महादेव सब पर कृपालु हों। वि.सा.पन्त,
जय उधाणेश महादेव

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