ओखलकाड़ां।(नैनीताल)देवात्मा हिमालय के महत्व व उसकी महिमां का वर्णन अनन्त है यह पावन भूमि सनातन काल से तपस्पियों की तपस्या का केन्द्र रहा है ऋषि मुनियों ने ही नही बल्कि देवताओं ने भी इस पावन धरा पर तपस्या करके अपने कर्तव्य पथ को सवांरा है।कदम कदम पर देव मंदिरो की श्रृंखला यहां के कण कण में देवत्व का अहसास कराती है। प्राकृतिक सौदर्य की दृष्टि से भारत का ही नही अपितु विश्व का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है यहां के पर्यटक एंव तीर्थ स्थलों का भ्रमण करते हुए जो आध्यात्मिक अनूभूति होती है वह अपने आप में अद्भुत है।पर्यटन की दृष्टि से ही नहीं बल्कि तीर्थाटन की दृष्टि से भी यह पावन भूमि महत्वपूर्ण है इसी कारण यहां का भ्रमण अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा श्रेष्ठ एंव संतोष प्रदान करने वाला है,ऐसे ही परम संतोष का पावन केन्द्र है देवगुरु बृहस्पति मन्दिर।
जनपद नैनीताल में स्थित देवगुरू का यह दरबार ऐसा मन भावन स्थान है जहां पहुचते ही आत्मा दिव्य लोक का अनुभव करती है।समूचे विश्व में यह एक मात्र मन्दिर है जहां देवगुरु साक्षात् रुप से विराजमान माने जाते है।देवताओं के गुरु वृहस्पति महाराज के इस पावन दरबार में मांगी गई मनौती सदा ही पूरी होती है ऐसा इनके भक्तों का अचल विश्वास है।
जनपद नैनीताल के ओखलकांडा क्षेत्रं में स्थित देवगुरू वृहस्पति महाराज का यह एकमात्र मंदिर है जो समूचे हिमालयी भूभाग में परम पूज्यनीय है।इस मंदिर की महिमां के बारे में अनेकों दंतकथाएं प्रचलित है।कहा जाता है कि सत्युग में एक बार देवराज इन्द्र ब्रह्महत्या के पाप से घिर गये थे।इस पाप से व्यथित होकर पाप की मुक्ति के उद्देश्य से वे यहां के वियावान जंगलों की गुफाओं में छिपकर तपस्या करने लगे उनके द्वारा अचानक गुपचुप तरीके से स्वर्गछोड़ देने के कारण समूचा स्वर्ग व वहां के देवता अपने राजा को न पाकर त्राहिमाम हो गये।काफी ढूढ़ खोज के बाद भी जब देवराज इन्द्र का पता नही चला तो सभी देवगण निराश होकर अपने गुरु बृहस्पति महाराज की शरण में गये तथा उन्होनें देवगुरु इन्द्र को खोजनें का अनुरोध किया देवताओं की विनती पर देवगुरु ने इन्द्र की खोज आरम्भ की खोजते खोजते वे धरती लोक में पहुचें एक गुफा में उन्होनें देवराज इन्द्र को भयग्रस्त अवस्था में व्याकुल देखा देवगुरू ने इन्द्र की व्याकुलता दूर कर उन्हें अभयत्व प्रदान कर वापिस भेज दिया तथा इस स्थान के सौदर्य व पर्वतों की रमणीकता देखकर वे मन्त्रमुग्ध हो इस स्थान पर तपस्या में बैठ गये तभी से यह स्थान पृथ्वी पर देवगुरु धाम के नाम से जगत में प्रसिद्व हुआ इस स्थान का महत्व संसार में अतुलनीय है क्योंकिं समूचे विश्व में यही एक ऐसा मंदिर है जहां देवताओं के गुरु साक्षात् रुप से विद्यमान है।देवगुरू के भक्तों के लिए यह स्थान परम पूज्यनीय है। भूमण्डल में यह देवगुरू का सर्वोच्च स्थान है दूर दराज इलाकों से यहां आकर इनके भक्त इन्हें श्रद्वापूर्वक शीष नवाते है।मान्यता है कि इस स्थान पर देवगुरू के प्रति की गई आराधना कभी भी निष्फल नहीं होती है। जो जिस कामना से यहां आता है उसकी मनोकामनां अवश्य पूरी होती है।
नागाधिराज हिमालय की रमणीक वादियों में ऊंचे पर्वत की चोटी पर इस देवालय में स्त्रियों का प्रवेश व उनकी पूजा अस्वीकार्य है।इस संदर्भ में यह दंतकथा लोक में काफी प्रसिद्ध है।कहा जाता है कि पहले यहां पूजा का दायित्व स्त्री सभांलती थी वर्ष पूर्व एक बार पुजारिन पूजा की तैयारियां करके देवगुरू जी को भोग लगानें के उद्देश्य से दूध की खीर बना रही थी।इसी बीच मौसम ने करवट ली खराव मौसम के चलते पुजारीन की अधीरता बढ़ती गई आनन फानन जल्दबाजी में गर्म खीर पुजारिन ने देवगुरू को समर्पित कर दी खीर के पिण्डी में पड़ते ही पिण्डी फट गई कुपित देवगुरू ने उसी दिन से नाराज होकर स्त्रियों को पूजा के अधिकार के साथ साथ दर्शन के अधिकार से भी वंचित कर दिया तब से यहां स्त्रियों के लिए दर्शन व पूजन पर यहां प्रतिबन्ध है।तब से यहां पुजारी का दायित्व पुरुष वर्ग संभाले हुए है।कहते है कि इस घटना के वर्षों के बाद एक दिन देवगुरू ने स्वप्न में अपने भक्त एक पुजारी को दर्शन देते हुए कहा कि तुम हर व हरि की नगरी हरिद्वार जाओं वहां पहुंचकर श्रद्वा व प्रेमपूर्वक गंगानदी में स्नान कर भगवान आशुतोष को प्रणाम करके इस वन में मेरा स्मरण करते हुए अकेले ही आना ध्यान रहे तुम्हे कोई पहचान न सके इसलिए काला कंबल ओढ़ लेना आगे तुम्हे क्या करना है।वह मार्ग दर्शन तुम्हें यहां पहुचनें पर प्राप्त होगा।स्वप्न की आभा में देवगुरू से मिले आदेश के अनुसार पुजारी ने श्रद्वा भक्ति के वशीभूत होकर देवगुरू की आज्ञा को शिरोधार्य मानकर प्रेमपूर्वक हरिद्वार में स्नान करके भगवान शंकर की स्तुति करके यहां के वियावान घनघोर जंगल में प्रवेश किया जंगल में चलते चलते देवगुरु वृहस्पति जी की कृपा से उन्हें शक्ति के अद्भूत स्वरुप के दर्शन हुए जो पिण्डी(लिंग) के रुप में पार्णित होकर उनके कधें पर विराजमान हो गई उस पिण्डी ने दिव्य स्वरुप से अलौकिक वाणी में कहना आरम्भ किया काफी समय वर्षों पूर्व मेरी शक्ति रुपी पिण्डी फट गई थी और इस शक्ति को मेरा साक्षात् रुप समझकर विधिवत पूजन अर्चन कर स्थापित करो अपना जीवन धन्य करो तुम्हारा कल्याण होगा।यही स्थान इस बसुधरा में देवगुरु वृहस्पति धाम के नाम से प्रसिद्ध है।
देवभूमि उत्तराखण्ड़ में तीर्थाटन विकास की असीमित संभावनाएं है।एक से बढ़कर एक मनोरम तीर्थ स्थल सौदर्य का समूह की पहाड़िया कल कल धुन में नृत्य करती नदियां ऐतिहासिक मंदिर हर प्रकार से तीर्थयात्रियों व पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है।लेकिन देवगुरु धाम इन सबसे बढ़कर अवर्णनीय यहां मिलने वाली अकूत शांति को शब्दों में नही समेटा जा सकता है।अनन्त महिमा से सम्पन इस धाम के प्रति लोगों की आस्था का जबाब नही आज भी देवगुरु की कृपा से यहां भातिं भांति के चमत्कार देखने को मिलते है।पुरातन काल से पूज्यनीय पावन आस्था का यह केन्द्र ऋषि मुनियों की आराधना तपस्या व साधना स्थली रही है।बड़े बड़े ऋषि मुनियों ने देवगुरू के दरवार में साधाना करके अलौकिक सिद्धियां प्राप्त कर संसार में ज्ञान का प्रकाश फैलाया अनन्त रहस्यों को अपने आप में समेटे इस दरवार के प्रति अग्रेजों की भी गहरी आस्था थी वे भी देवगुरु के चमत्कार से वाकिफ थे।इस मदिरं की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि देवगुरु की इच्छा से यह मंदिर खुले आकाश के नीचे है।अनेक भक्तों ने यहां मंदिर निर्माण की बात सोची लेकिन सभी की इच्छाये धरी की धरी रह गई क्योंकि देवगुरु की इच्छा खुले आकाश के तल पर विराजमान रहने की है।बताते है कि कई लोगों ने पूर्व में यहां पर भव्य मंदिर निर्माण की बात सोची व प्रयास भी किये परन्तु देवगुरु की इच्छा के आगे सभी के प्रयास धरे के धरे रह गये।देवगुरु के प्रति श्रद्वा रखने वाले स्थानीय श्रद्वालु बताते है कि एक बार पूर्व में मंदिर के पुजारी स्व० केशव दत्त जी ने मंदिर को बड़ा बढ़ाने के उद्वेश्य से कुछ दूरी पर पत्थर का खुदान करवाया इस खुदाई में हर पत्थर के नीचे सापों का झुण्ड निकला पत्थर इतने वजनदार हो गये कि उन्हें कोई उठा तक नहीं पाया देवगुरु के सभी भक्त प्रभु के संकेत को समझ गये कि उनका मंदिर खुला रहेगा।यहां की मनोरम पहाडियों में अतीत के अनेक अनसुलझे रहस्य है।बताते है कि रात्रि में विधिपूर्वक यहां देवगुरु जी का ध्यान लगाने पर पहाड़ियों से कानों में संगीत के स्वर गूजतें है।प्रसिद्व संत हैड़ाखान महाराज,सोमवारी बाबा,दशहरा गिरी, बर्फानी बाबा,सहित अनेक आधुनिक व पौराणिक संतों ने देवगुरु की महिमां का अपने अपने शब्दों में बखान किया है।
जनपद नैनीताल के ओखलकाण्डा विकास खण्ड़ की ऊंची चोटी पर स्थित देवगुरु के इस दरवार की ऊंचाई लगभग आठ हजार फीट है।आसपास के गांवों में कोटली,करायल,देवली,पुटपुड़ी,तुषराड़ आदि है।जिनकी दूरी मंदिर से क्रमशः पाँचकिमी,सातकिमी,चार किमी,पाँच किमी,व छह किमी के लगभग हैं। इस स्थान तक पहुंचने के लिए धानाचूली से ओखलकाड़ा व करायल होते हुए लम्बा पैदल मार्ग तय करके यहां तक पहुचां जा सकता है।एक अन्य मार्ग ओखलकांड़ा से करायल देवली व देवली से पैदल चलकर देवगुरु के दर्शन किये जा सकते है।धानाचूली से पहाड़पानी होते हुए शहरफाटक को पार कर भीड़ापानी नाई कोटली होकर भी लोग यहां आते है।लेकिन यह रास्ता काफी लम्बा व जटिल है।
वियावान जगंलों की चोटी में स्थित देवगुरु के एक ओर माँ बाराही का ज्वलंत दरबार तो दूसरी ओर की पर्वत श्रृंखलाओं में अनेक धार्मिक धरोहरों की भरमार है।पौराणिक धार्मिक कथाओं को समेटे दयोथल की गुफा सहित अनेक गुफाएं शोधकर्त्ताओं के लिए गहन शोध का विषय है।चारों ओर घनघोर वनों में चीड़,देवदार,बांज, काफल सहित अनेक प्रजातियों के बृक्षों की भरमार है।वैसै तो यहां भक्तों का यदा कदा आना जाना लगा रहता है।लेकिन सावन व मंगसिर के महीनों में भक्तों की आवाजाही बढ़ जाती है।गांव वाले मिलकर समय समय पर सामूहिक पूजा का आयोजन भी करते रहते है। यहां सबसे गौरतलब बात यह है,कि भारतभूमि में देवगुरू के गिने चुने ही मंदिर है।लेकिन जहां वे पिण्ड़ी रुप में विराजमान है।वह एकमात्र मंदिर समूचे विश्व में यही माना गया है।जो ओखलकांडा ब्लॉक में काठगोदाम से लगभग 93 किमी की दूरी पर स्थित है।देवगुरू बृहस्पति महाराज एक मंदिर काशी विश्वनाथ जी के निकट भी है।और इनका एक पावन पौराणिक धाम उज्जैन में भी है।लेकिन पिण्डी के रुप में इनका पूजन समूची बसुधरा में यही होता है। देवगुरु बृहस्पति का पुराणों में अनेक स्थानों में सुन्दर उल्लेख मिलता है।इन्हें महातपस्वी व पराक्रमी ऋषि के रुप में भी जाना जाता है। धनुष बाण और सोने का परशु इनके हाथों की शोभा है जो भक्तों को अभयत्व प्रदान करती है।युद्व में विजय प्राप्त करने के लिए भी योद्वा इनकी स्तुति करते है। परोपकारी स्वभाव के होने के नाते इन्हें गृहपुरोहित भी कहा गया है, इनकी कृपा से ही यज्ञ का फल सफल होता है।
देवताओं के गुरू के रुप में पूजित बृहस्पति देव महर्षि अंगिरा ऋषि की सुरूपा नाम की पत्नी से पैदा हुए थे। तारा और शुभा तारका इनकी तीन पत्नियाँ थीं। महाभारत के अनुसार बृहस्पति के संवर्त और उतथ्य नाम के दो भाई थे।
बृहस्पति को देवताओं के गुरु की पदवी प्रदान की गई है। ये स्वर्ण मुकुट तथा गले में सुंदर माला धारण किये रहते हैं। ये पीले वस्त्र पहने हुए कमल आसन पर आसीन रहते हैं तथा चार हाथों वाले हैं। इनके चार हाथों में स्वर्ण निर्मित दण्ड, रुद्राक्ष माला, पात्र और वरदमुद्रा शोभा पाती है। शुभा से इनके सात कन्याएं उत्पन्न हुईं हैं, जिनके नाम इस प्रकार से हैं – भानुमती, राका, अर्चिष्मती, महामती, महिष्मती, सिनीवाली और हविष्मती। इसके उपरांत तारका से सात पुत्र और एक कन्या उत्पन्न हुईं। उनकी तीसरी पत्नी से भारद्वाज और कच नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। इन्होंने प्रभास तीर्थ में भगवान शंकर की कठोर तपस्या की थी जिससे प्रसन्न होकर प्रभु ने उन्हें देवगुरु का पद प्राप्त करने का वरदान दिया था इनके प्रमुख मन्त्र इस प्रकार है। ॐ ऐं श्रीं बृहस्पतये नम:।
ॐ गुं गुरवे नम:।
ॐ बृं बृहस्पतये नम:।
ॐ क्लीं बृहस्पतये नम:।
कुल मिलाकर देवगुरु का यह स्थान जितना अलौकिक व अतुलनीय है।तीर्थाटन की दृष्टि से उतना ही उपेक्षित भी।
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