बिहार के लोकजीवन में महीनों पूर्व से जिस व्रत को लेकर काफी उत्साह व उमंग छायी रहती है, जिसकी तैयारी पूर्ण मनोयोग के साथ शुद्धता एवं निर्मलता के साथ की जाती है, चार दिनों की त्याग, तपस्या,श्रद्धा व भक्ति के साथ जिसे मनाया जाता है वह है ‘छठ व्रत’। यह पर्व पर्व उत्तराखण्ड के अनेक क्षेत्रों में भी अब धीरे-धीरे धूमधाम से मनाया जाने लगा है*। कुमाऊं के प्रवेश द्वार लालकुआं, हल्द्वानी ,व गढ़वाल के प्रवेश द्वार देहरादून में तो छठ मेला आकर्षण का केन्द्र रहता है।हरिद्धार में भी इस पर्व की धूम काफी बढी है भगवान सूर्य नारायण को अर्पित छठ व्रत व उसकी पूजा के प्रति यहां निवास करने वाले पूर्वांचल के लोगों में बेहद उत्साह देखने को मिलता है। साथ ही यह उत्साह धीरे-धीरे क्षेत्रवासियों, पर्वतवासियों को भी श्रद्धा व भक्ति की डोर से जोड़ने लगा है।
बिहार की प्रादेशिकता की सीमा से बाहर भी यह पर्व धीरे-धीरे आस्था का रूप ले रहा है। सम्पूर्ण बिहार के अलावा देश के अनेक हिस्सों में यह लोक पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है। इस पर्व में सृष्टि के आदि देव भगवान भाष्कर की पूजा अर्चना की जाती है। यह पूजा काफी व्यापक तौर पर होती है। इसे सभी जाति के लोग श्रद्धा व भक्ति के साथ सम्पन्न करते हैं। इसकी व्यापकता इस कदम बड़ी है कि उत्तराखण्ड के हल्द्वानी, देहरादून, हरिद्वार, ऋषिकेश, लालकुआं, शक्तिफार्म सहित अनेकों दूरस्थ पर्वतीय हिस्सों में छठ पूजा होती है*। भगवान सूर्य देव को समर्पित छठ पूजा उत्तर प्रदेश, बंगाल, मध्य प्रदेश में भी धूमधाम से होती है। अमीर-गरीब, जाति-पांति के बंधन से यह पर्व मुक्त होता है। इसलिए हिन्दू समाज में इस व्रत बड़ा स्थान प्राप्त है।
छठ व्रत का प्रारंभ कब और कैसे हुआ, इस बारे में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। मान्यता है कि इसका प्रारंभ महाभारत काल से हुआ था। कहा जाता है कि जब पाण्डव जुए में अपना समूचा राजपाठ हार गये तो उन्होने हिमालय की कन्दराओं में आकर अपने दिन बिताये इस भारी विपत्ति में उन्होंने भगवान शंकर की शरण ली। शंकर की प्रेरणा से द्रोपदी ने छठ का व्रत यही से प्रारंभ किया। इस व्रत के प्रभाव से पाण्डवों की समस्त मनोकामनाएं पूरी हुई। उनका खोया हुआ राजपाठ उन्हें पुनः प्राप्त हुआ। कुछ लोगों में यह भी मान्यता है कि इस व्रत के प्रारंभकर्ता महाभारत के प्रमुख पात्र महादानवीर कर्ण थे। गढवाल का कर्णप्रयाग अंगराज कर्ण की महान भक्ति की सौगात है
दंतकथाओं के अनुसार माता सीता ने भी इस व्रत को किया है छठ माता को भगवान सूर्य की बहन, कार्तिकेय की पत्नी अर्थात् भगवान शिव की बहू व मातृकाओं के रूप में भी पूजा जाता है
वर्ष में एक बार यह पर्व चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की षष्टी को मनाया जाता है इसे चैती छठ कहते हैंं। दूसरी बार यह व्रत कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की षष्टी को मनाया जाता है। इसे कतकी छठ कहते हैं। डाला छठ के नाम से प्रसिद्ध कतकी छठ ज्यादा लोकप्रिय है। इस पूजा की विधि या प्रक्रिया में अमीर-गरीब का कोई भेदभाव नहीं होता। गरीब मजदूर से लेकर धनाढ्य व्यवसायी व अधिकारी तक प्रत्येक व्यक्ति इस पर्व की तैयारी में काफी पूर्व से तन-मन-धन से जुट जाते हैं। देश के अनेक भागों में बसे बिहार के निवासी इस लोकपर्व को मनाने के लिए अपनी जन्मभूमि में लौटने का प्रयास करते हैं। लेकिन समय की कमी के चलते जो लोग अपनी जन्मभूमि नहीं लौट पाते हैं वे श्रद्धा के साथ अपनी कर्म भूमि में इस त्यौहार को मनाते हैं।
छठ के बारे में एक मान्यता यह भी है कि छठ माता की जो भी प्राणी निष्ठापूर्वक आराधना करता है वह परम कल्याण का भागी बनता है। पुत्रहीन पुत्र की इच्छा से धनहीन धन की इच्छा से* लोक कल्याण को चाहने वाला लोक हित से इस व्रत को करता है। आध्यात्म के भीतर यह व्रत सर्वसंकट हरण व्रत कहा जाता है। हिन्दू समाज का यह सांस्कृतिक पर्व का व्रत ज्यादातर महिलाओं द्वारा ही किया जाता है। छठ का व्रत सूर्य उपासना का व्रत है। इसलिए सूर्य मंदिरों के निकट व सूर्यकुण्डों में भी इस व्रत को सम्पन्न किया जाता है। कुमाऊं के कटारमल का सूर्य मंदिर व गुणादित्य का सूर्य मन्दिर गंगोलीहाट के निकट पाभै के सूर्य मंदिर में इस व्रत की सम्पन्नता पूर्ण फलदायी कही गयी है। बिहार में औरंगाबाद जिला स्थित देव नामक स्थान में स्थित प्राचीन सूर्य मंदिर राजगीर के निकट बड़गांव स्थित सूर्य मंदिर पटना के उलार एवं पण्डारक सहित तमाम मंदिरों में छठ की धूम छायी रहती है। इस व्रत को सम्पन्न करने में किसी ब्राह्मण की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह एकमात्र ऐसा व्रत है जिसमें पहले अस्त होते सूर्य की उपासना के बाद दूसरे दिन उगते सूर्य की आराधना की जाती है। इसे सूर्य षष्ठी नामक व्रत भी कहा जाता है। छठ के दिन शाम को ही स्त्रियां फलफूल मीठे पकवान एवं दीप जलाकर डाला तैयार करती हैं। घर के पुरुष सदस्य उन डालों को सिर पर उठाकर घाट की तरफ चलते हैं* और डालों के पीछे-पीछे स्त्रियां मधुर लोकगीत गाते हुए चलती हैं। ‘‘कांच की बांस के बहंगिया बहगी लचकत जाए, बाट के पूछैला बटोहिलया बहकी केकर जाए, तू चान्हर हवे रे बटोहिया बहंगी सूरज की जाए।
छठ पर्व का अनुष्ठान कार्तिक और चैत में शुल्क पक्ष की चतुर्थी से प्रारंभ हो जाता है चतुर्थी के बाद सप्तमी तक सर्वत्र चहल-पहल व समाप्ति तक लोकगीत गाये जाते हैं। चतुर्थी को व्रती स्नान पूजा करते हैं और दिन में कवेल एक बार शुद्ध भोजन किया जाता है। जिसे आंचलिक भाषा में नहायखाय फिर नहाय कहा जाता है। व्रत का आरंभ इसी दिन से माना जाता है। पंचमी के व्रत को खरना कहते हैं। इस दिन खीर व रोटी का सेवन किया जाता है। षष्ठी के दिन निराहार रह कर सप्तमी तक व्रत रखा जाता है
कुल मिलाकर बिहार का यह लोकपर्व उत्तराखण्ड के कई हिस्सों में धूमधाम से मनाया जाने लगा है। पूर्वांचल समुदाय के अलावा हिन्दू देवी-देवताओं में आस्था रखने वाले लोगों में भी छठ मईया व भगवान सूर्य के प्रति गहरी आस्था बढ़ती जा रही है।छ्ठ व्रत के उपासक बिहार के मूगिला पटना निवासी आर.डी सिह बताते है।इस व्रत के पूजन से समस्त मनोकामनाएं पूरी होती है यह पर्व श्रद्वा व भक्ति का संगम है।उलार के सूर्य मन्दिर में इस व्रत पर किये जाने वाला पूजन समस्त मनोरथों को पूर्ण करता है श्री इस मन्दिर में प्रत्येक रविवार को सूर्य पूजन के साथ मेले का आयोजन होता है।यह मन्दिर भव्यता का अलौकिक केन्द्र है।
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