संसार की सबसे प्राचीन नगरी काशी की अलौकिक कथा

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*काशी की कथा*
श्री पाताल भुवनेश्वर जी की महिमा के साथ ही पवित्र तीर्थ काशी की महिमा भी जुड़ी हुई है। पुराणों के अनुसार इस महातीर्थ की महिमा का न तो कोई आदि है और न ही कोई अन्त। पाताल भुवनेश्वर से काशी को जाने वाला मार्ग आज भी रहस्यों की अबूझ पहेली है। जनश्रुतियों के अनुसार प्राचीन काल में ऋषि-महर्षि तथा सिद्ध योगी जन यात्रा हेतु इस मार्ग का प्रयोग किया करते थे। पुराणों में भी ऐसे वृतान्त मिलते हैं। पाताल भुवनेश्वर में आज भी काशी को जाने वाले इस सूक्ष्म मार्ग के दर्शन किये जा सकते हैं। कलियुग में मनुष्यों को इसमें प्रवेश की अनुमति नहीं है, क्योंकि यह मार्ग बहुत ही सूक्ष्म है। ऐसा माना जाता है कि पुरातन काल में जब पाताल के भीतर भगवती भुवनेश्वरी व भगवान भुवनेश्वर को समर्पित कोई यज्ञ अनुष्ठान कार्य होता था, तो काशी से सिद्ध योगियों को आमंत्रण देने के लिए इस मार्ग का उपयोग किया जाता था। काशी नाथ व भुवनेश्वर नाथ भिन्न स्वरूप होने के बाद भी विराट रूप में एकाकार हैं। कहा जाता है कि पाताल भुवनेश्वर के दर्शन के पश्चात काशी दर्शन का फल महान पुण्यदायक है। भृगु ऋषि ने श्री पाताल भुवनेश्वर, कोटेश्वर व भृगतम्ब क्षेत्र में तपस्या करके शिव कृपा से भगवान विष्णु को गुरु रूप में प्राप्त किया। उन्होंने काशी क्षेत्र की महिमा का वर्णन करते हुए कहा है – भगवान श्री विश्वनाथ के दर्शन से नि:सन्देह मुक्ति पद प्राप्त होता है। यहां तक कहा गया है कि संसार में वे मनुष्य धन्य हैं, जो निरन्तर काशी धाम में वास करते हैं। काशी धाम में भगवान विश्वनाथ के शरणागत होने का सीधा अर्थ है, भगवान भुवनेश्वर की शरणागत हो जाना।विभिन्न पुराणों में काशी की अद्भुत महिमा को लेकर वृतान्त भरे पड़े है। कहा जाता है, कि-सतयुग में भूरीद्युम्न नाम के एक शूरवीर राजा हुए, उनकी सैकड़ों रानियॉ थी, जिनमें विभावरी नाम की रानी उन्हें अत्यधिक प्रिय थी। भोग विलास में डूबे रहने से उस काम पीडित राजा का सारा राज्य शत्रुओं के अधीन हो गया था। उसका शौर्य भी जाता रहा, लेकिन इस सबके बाद भी उसकी रानी विभावरी अपने धर्म पर अटल रही। मजबूर होकर राजा-रानी दोनों जंगल की ओर निकल गये। एक दिन राजा भूख से इतना व्याकुल हो गया कि उसके मन में अपनी प्रिय रानी का ही भक्षण करने का ख्याल आ गया। धर्मपरायण रानी, राजा की मनोदशा को समझ गयी और स्वयम् ही कहने लगी- महाराज आप भूख से परेशान हो, आप मेरी हत्या करके अपने प्राणों की रक्षा कर लो। राजा ने रानी को मार दिया और उसका मांश भक्षण करने बैठ गया। इतने में ही दो शेर खेलते हुए वहां पहुंच गये, राजा वहां से भाग खड़ा हुआ और दूर जाकर झाड़ी में छुप गया। इसी बीच उसने देखा कि दो ब्राह्मण अनाज लेकर आ रहे हैं, घात लगाकर उसने उन दोनों को मार दिया और उनका अनाज खाने लगा। इसी बीच उसकी अन्तर आत्मा से आवाज आयी कि अपनी भूख मिटाने के लिए पहले तूने अपनी रानी को मारा और फिर इन दो निर्दोष ब्राह्मणों की हत्या कर डाली। ऐसा घोर पाप करके तुझे नरक में भी जगह नहीं मिलेगी। यह सुनकर वह पश्चाताप की आग में जलने लगा और भटकते हुए शाकल्य मुनि की शरण में जा पहुंचा। मुनि को सारा वृतान्त सुनाकर प्रायश्चित का उपाय पूछने लगा। दयालु मुनि ने क्रोध का प्रदर्शन करते हुए कहा- अरे दुष्ट, अब तू काशी जा और भगवान शंकर की शरण ले ले। यह सुनकर वह सीधे काशी के लिए चल पड़ा। वहां पहुंचते ही उसके ज्ञान चक्षु खुल गये, उसके गन्दे कपड़े शरद् ऋतु की चन्द्रमा के समान उज्जवल हो गये। ऐसी सुखद अनुभूति पा कर वह भगवान विश्वनाथ की भक्ति में तल्लीन हो गया और कई वर्ष तपस्या करने के बाद अन्ततः मुक्ति को प्राप्त हुआ।
काशी में जो भगवान विश्वनाथ जी हैं वह पाताल भुवनेश्वर में भगवान भुवनेश्वर के रूप में विराजमान हैं।* पुराणों में कहा गया है कि काशी नगरी में धर्म का आचरण करने वाला मनुष्य शिव कृपा का भागी बनता है, जबकि धर्म का आचरण न करने वाला सहस्त्रों वर्षों तक पिशाच योनि में पड़ा रहता है। श्री काशी महिमा का वर्णन करते हुए याज्ञवल्क्य ऋषि कहते हैं- श्री काशी में ब्रह्म स्वरूप सहस्त्रों शिव लिंग हैं, जिनमें ज्योतिर्लिंग विश्वनाथ का दर्शन परम् सौभाग्यदायी कहा गया है। भगवान सूर्य नारायण, देवर्षि नारद तथा दुर्वासा ऋषि ने भी काशी की महिमा को अतुलनीय बताया है। काशी भूमि में रह कर पापाचार करने वाले को भैरवी यातना सहनी पड़ती है। युगों-युगों से काशी की महिमा
का वर्णन अनेकानेक ऋषि- मुनि करते आये हैं। राजा नन्दन, सनत्कुमार व बलिराजा काशीनाथ की कृपा से ही धन्य हुए थे। महाप्रतापी राजा देवीदास को भारद्वाज ऋषि के आशीर्वाद व शिव कृपा से ही पुत्र की प्राप्ति हुई। इस पुत्र ने काशी में लम्बे समय तक राज किया। वाराणसी में नागेश्वर मठ के दर्शन भी परम् कल्याणकारी कहे गये हैं। महायोगी महामण्डलेश्वर बालकृष्ण यति जी महाराज ने इसी क्षेत्र में तपस्या करके भारत समेत सम्पूर्ण विश्व में ज्ञान का प्रकाश फैलाया। यही जागेश्वर मठ में उन्होंने अपनी देह त्याग का किया था। कहा गया है, कि काशी में किया गया धर्माचरण, जप-तप आदि से पाताल भुवनेश्वर में जप-तप जैसा फल प्राप्त हो जाता है। ऋषियों ने पाताल भुवनेश्वर को भगवान विश्वनाथ का ही स्वरूप कहा है। काशी की पावन भूमि में अन्न पूर्णा मन्दिर, मणिकर्णिका घाट व मानस मन्दिर सहित काशी कोतवाल आदि सैकड़ों मन्दिरों के दर्शन हो जाते हैं। महर्षि सूत जी ने काशी नगरी की महिमा का वर्णन करते हुए कहा है- गंगा जी के पावन तट पर मुक्तिदायिनी काशी नगरी भगवान शिव की वास स्थली है। यहां स्थित कृतिवासेश्वर, तिलमाण्डेश्वर, संगमेश्वर, भूतेश्वर नारीश्वर, वटुकेश्वर, पूरेश्वर, सिद्धनाथेश्वर, श्रृंगेश्वर, जप्येश्वर, नागेश्वर, रामेश्वर, , नागेश,कामेश, विमलेश्वर आदि के दर्शनों का अलौकिक महात्म्य है।*

*जय बाबा काशी विश्वनाथ* *अतुलनीय है, बाबा विश्वनाथ की नगरी वाराणसी*
कूर्म पुराण में भगवान वेद व्यास जी ने मुनियों को वाराणसी का महत्व विस्तार के साथ बतलाया है। स्वयं व्यास जी ने अपनें परम शिष्य महामुनि जैमिनी को बताया कि प्राचीन काल में मेरु शिखर पर भगवान शंकर के साथ एक ही आसन पर स्थित महादेवी पार्वती ने त्रिपुरारी देव ईशान महादेव से कहा आप भक्तों के कष्टों को दूर करने वाले हैं। कृपया भक्तों के उद्वार का ऐसा उपाय बताइये जो परम गुप्त एवं परम श्रेष्ठ हो
महादेव ने कहा महादेवी वाराणसी मेरा परम गुप्त एवं श्रेष्ठ क्षेत्र है ,यह नगरी समस्त प्राणियों को संसार सागर से पार उतारने वाली है महादेवी यहां मेरे व्रत को धारण करने वाले भक्त तथा श्रेष्ठ नियम का आश्रय करने वाले महात्मा निवास करते हैं ।यह मेरा अविमुक्त काशी क्षेत्र सभी तीर्थों में उत्तम सभी स्थानों में श्रेष्ठ है। और सभी ज्ञानों में उत्तम ज्ञान रूप है। महाश्मशान भूमि काशी में मरण परम मुक्ति का केन्द्र है। मैं काल रूप होकर यहां इस संसार का संद्यार करता हूं तथा यह पावन स्थान सभी गुप्त स्थान में मेरा सर्वाधिक प्रिय स्थान है मेरे भक्त यहां आते ही मुझ में प्रविष्ट हो जाते हैं
महादेवी प्रयाग, पुण्यदायी नैमिषारण्य, महालय श्रीशैल, केदार, भद्रकर्ण, गया, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, रुद्रकोटि, नर्मदा, आम्रातकेश्वर, शालिग्राम, कुब्जाम्र, श्रेष्ठ कोकामुख, प्रभास, विजयेशान, गोकर्ण तथा भद्रकर्ण-ये सभी पवित्र तीर्थ तीनों लोकों में विख्यात हैं, किंतु जिस प्रकार वाराणसी में मरे हुए व्यक्तियों को परम मोक्ष प्राप्त होता है, वैसा अन्यत्र प्राप्त नहीं होता
वाराणसी में प्रविष्ट त्रिपथगामिनी (स्वर्ग, पाताल एवं भूलोल इस प्रकार तीन पथों में प्रवाहित होनेवाली) गङ्गा सैकड़ों जन्मों में किये हुए पापों को नष्ट करने में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। दूसरे स्थान में योग, ज्ञान, संन्यास अथवा अन्य उपायों से हजारों जन्मों में जो परम पद मोक्ष प्राप्त होता है, किंतु देवदेवेश शंकर के जो भक्त वाराणसी में निवास करते हैं, वे एक ही जन्म में परम पद-मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं
जहाँ एक ही जन्म में योग, ज्ञान अथवा मुक्ति मिल जाती है उस
अविमुक्त (वाराणसी) क्षेत्र में पहुँचकर फिर किसी दूसरे तपोवनमें नहीं जाना चाहिए चूँकि मैं वाराणसी क्षेत्र कभी नहीं छोड़ता, इसलिये वह अविमुक्त (क्षेत्र) कहलाता है, वरुणा और असी के मध्य वाराणसीपुरी है। वहाँ अविमुक्त नामक नित्य तत्त्व स्थित है। जहाँ नारायण देव और महादेव दिवेश्वर (सुरलोक के अधिपति) स्थित हैं, उस वाराणसी से श्रेष्ठ स्थान न कोई हुआ है और न कोई होगा | वहाँ गन्धर्वो, यक्षों, नागों तथा राक्षसों सहित सभी देवता मुझ देवाधिदेव पितामह की सतत उपासना करते है। महादेव ने देवताओं, ऋषियों तथा परमेष्ठियों के समक्ष देवी पार्वती से सभी पापों को विनष्ट करने वाले इस ज्ञान को कहा था। जिस प्रकार देवताओं में पुरुषोत्तम नारायण श्रेष्ठ हैं, जिस प्रकार ईश्वर में गिरिश (महादेव) श्रेष्ठ हैं, वैसे ही सभी स्थानोंमें यह (अविमुक्त क्षेत्र) श्रेष्ठ है। जिन्होंने पूर्वजन्म में रुद्र की उपासना की है, वे ही परम अविमुक्त क्षेत्र नामक शिव के निवास स्थान को प्राप्त करते हैं।
वाराणसी की भूमि में स्थित कपदीश्वर महादेव का पूजन पिशाचमोचन व पितरों के उद्वार का पावन केन्द्र कहा गया है। जैमिनी आदि प्रमुख मुनियों को व्यास जी ने यहां की महिमां बताते हुए कहा है, यहाँ के दर्शन से पापों का समूह नष्ट हो जाता है
वाराणसी में निवास करनेवाले लोगों के काम, क्रोध आदि दोष और सभी विघ्न कपर्दीश्वर की पूजा करने से विनष्ट हो जाते हैं। इसलिये श्रेष्ठ कपर्दीश्वरका सदा ही |दर्शन करना चाहिये, व प्रयत्नपूर्वक पूजन भी करना चाहिये और वैदिक स्तोत्र से उनकी स्तुति करनी चाहिये
शंकुकर्ण नाम के प्रसिद्ध तपस्वी की गाथा भी महान् शिव भक्तों के साथ इस पावन स्थल से जुड़ी है।
कपदीश्वर के समीप ही मध्यमहेश्वर की महिमां भी अथाह है। यही वह स्थान है। जहां योगेश्वर प्रभु श्री कृष्ण ने शंकर जी की आराधना की। और अनेकों उत्तम वर प्राप्त किये
भगवान विश्वनाथ जी की नगरी काशी की महिमां अतुलनीय, अलौकिक, व अद्भूत है। निराली महिमां की निराली गाथा काशी के कण- कण में समायी हुई है।* संसार की सबसे प्राचीन नगरी काशी ही मानी जाती है। काशी, वाराणसी, अविमुक्त, आनन्दकानन, महाश्मशान, रुद्रावास, काशिका, तपः स्थली,मुक्तिभूमि, श्री शिवपुरी, सहित अनेक नामों से पूजनीय काशी का स्मरण अक्षय फल प्रदान करने वाला गया है।
भगवान शंकर के आनन्द का परम केंद्र काशी में शिवजी के आनन्द भाव से गिरे आसूं की बूदें बिन्दुसरोवर व बिन्दुमाधव के नाम से जाना जाता है। यहाँ स्थित कपालमोचन तीर्थ शिव लीला विराट महिमां की गाथा को अपनें आप में समेटे हुए है। काशी की महिमा के महा विस्तार में कहा गया है, कि जो प्राणी दूर रहकर भी बारंबार काशी, काशी जपता है वह भी दुर्लभ मुक्ति का अधिकारी होता है।काशी काशीति काशीति जपतो यस्य संस्थितिः। अन्यत्रापि सतस्तस्य पुरो मुक्तिः प्रकाशते ॥
काशी की पावन भूमि को बनारस या वाराणसी भी कहा जाता है। शिवमहापुराण व अन्य कई पुराणों के अनुसार यह पुरी भगवान् शङ्कर के त्रिशूल पर बसी है और प्रलयकाल में भी इसका नाश नहीं होता। वरणा और असि नामक नदियों के बीच बसी होने से इसे वाराणसी कहते हैं। जहाँ देह त्यागनेसे प्राणी मुक्त हो जाय, वह अविमुक्त क्षेत्र यही है। यहाँ देह-त्यागके समय भगवान् शङ्कर मरणोन्मुख प्राणीको तारकमन्त्र सुनाते हैं और उससे जीवको तत्त्वज्ञान हो जाता है, और वह परम मुक्ति को प्राप्त होता है।
अयोध्या, मथुरा, माया (कनखल-हरिद्वार), काशी, काञ्ची, अवन्तिका (उज्जैन) तथा द्वारिका-ये सात पुरियाँ हैं। इनमें काशी ही मुख्य मानी जाती है क्योंकि काशी में जो भी प्राणी मरता है वह मुक्त हो जाता है ऐसी स्पष्ट घोषणा शास्त्रों ने की है।**काश्यां हि मरणान्मुक्ति*
बाबा विश्वनाथ जी की यह मुक्त नगरी प्राचीन काल से संस्कृत-विद्या का पावन केन्द्र भी है।धार्मिक व्यवस्था में पूरे देश के लिये काशी के विद्वानोंका निर्णय सदा परम शिरोधार्य रहा है।
द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों में भूतभावन भगवान् भोलेनाथ जी का विश्वनाथनामक ज्योतिर्लिंग काशी में ही स्थित है और ५१ शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ (मणिकर्णिका पर विशालाक्षी) काशी में ही है। माना जाता है, कि यहाँ माता सती का दाहिना कर्णकुण्डल गिरा था। यहाँ क्षेत्रपाल के रुप में काल भैरव की पूजा होती हैं। पुराणों में काशी की अपार महिमा है। श्री शिव पुराण के अनुसार भगवती भागीरथी के बायें तट पर स्थित यह नगर अर्धचन्द्राकार तीन मील तक बसा है काशी मन्दिरों के नगर के नाम से भी प्रसिद्ध है। इसे मन्दिरों का नगर कहा जाता है। चन्द्रग्रहण के समय काशी की रौनक लाजबाब रहती है।स्नानार्थियों की भीड़ से वातावरण की आध्यात्मिकता बड़ी निराली रहती है।
वाराणसी नगरी में अनेकों घाट है, जिनका अपना- अपना पौराणिक महत्व है। पौराणिक महत्व वाले काशी के इन घाटों में भक्तजन श्रद्वा के साथ डुबकी लगातें है।
वरणासंगमघाट-पश्चिमसे आकर वरणा नाम की छोटी नदी यहाँ गङ्गाजीमें मिलती है यह घाट महावारुणी मेले के लिए प्रसिद्व है। इस भूभाग क्षेत्र में वसिष्ठेश्वर तथा ऋतीश्वर नामके शिवमन्दिर पुरातन काल से आस्था व भक्ति का संगम है । वरणासंगमके पास विष्णुपादोदक तीर्थ तथा श्वेतद्वीप-तीर्थ हैं। आदि-केशव का मन्दिर यहाँ की विशेष पहचान है। इस मन्दिरमें भगवान् केशवकी चतुर्भुज श्याम रंगकी खड़ी मूर्ति है। पास ही हरिहरेश्वर शिव मन्दिर हर व हरि की भक्तों के लिए सौगात है। इससे थोड़ी दूरी पर वेदेश्वर, नक्षत्रेश्वर तथा श्वेतद्वीपेश्वर महादेव विराजमान हैं।
काशी का राजघाट जो काशी स्टेशन के समीप ही है।इस से आगें कल – कल धुन में नृत्य करती गङ्गातट के ऊपर स्वलीनेश्वर तथा वरद-विनायक देव जी के मन्दिर हैं।
प्रह्लादघाट में प्रह्लादेश्वर-शिवमन्दिर है। यहां से त्रिलोचन- घाट के मध्य भृगुकेशव-मन्दिर है। यहाँ प्रचण्ड-विनायक के दर्शन होते हैं।
काशी का त्रिलोचनघाट-यह अक्षयतृतीया को लगनें वाले मेले के लिए प्रसिद्व है। वाराणसी की देवी इसी क्षेत्र में विराजमान है।यहां अरुणादित्य-मन्दिर भी है। उद्दण्ड-मुण्ड विनायक, त्रिलोचन-मन्दिर, आदि महादेव पार्वतीश्वर-महादेव, भैरव देवता यहाँ की शोभा है।
काशी के महताघाट घाट के ऊपर का नर-नारायण मन्दिर पौष-पूर्णिमा के स्नान के लिए काफी प्रसिद्ध है।
गायघाट भी यहाँ का प्रसिद्व तीर्थ है। लालघाट,शीतलाघाट जहाँ माता शीतला भक्तों का कल्याण करती है। बेहद मनोरम है , आध्यात्म की महक को समेटे राजमन्दिरघाट,
की महिमां अदितीय है।ब्रह्मा के ईश्वर भी यहाँ काशी के ब्रह्मघाट में ब्रह्माघाट-इस घाटपर ब्रह्मेश्वर-शिवमन्दिर के नाम से पूजित है।इसी घाट से थोड़ी दूरी पर ऊपर की ओर दत्तात्रेय भगवान का मन्दिर है।
दुर्गाघाट-घाटपर नृसिंहजीकी मूर्ति के लिए दूर- दूर से भक्त यहाँ आते है

पन्चगंगा में पाँच नदियाँ मनोरमता का केन्द्र है। नारायण यहाँ बिन्दुमाधव के रूप में भक्तों को दर्शन देते है। पास ही पञ्चगङ्गेश्वर महादेव का मन्दिर शिव भक्तों के लिए भगवान शिव की दिव्य सौगात है। कार्तिकस्नान के लिए प्रसिद्ध इस घाट का महत्त्व निराला है।आगे लक्ष्मण-बालाघाट-इस घाटके ऊपर लक्ष्मण बालाजी अथवा वेङ्कटेशभगवान्का मन्दिर है। पास गर्भस्तीश्वर महादेवका छोटा मन्दिर है तथा समीपके एक मकानमें मङ्गलगौरीदेवीश्वर मूर्ति है। यहाँ मयूखादित्य तथा मित्रविनायकके मन्दिर भी हैं।
रामनवमी के स्नान के लिए रामतीर्थ के रुप में यह घाट प्रसिद्ध है। शिव नगरी काशी की धरती पर

अग्नीश्वरघाट
गङ्गा-महलघाट संकठाघाट जो यमतीर्थ के नाम से जाना जाता है। यहाँ यमेश्वर तथा यमादित्य नाम के दो शिवमन्दिर हैं यहाँ यम द्वितिया को विशाल मेला लगता है।इस घाट पर संकठा देवी का मन्दिर पुरातन काल से पूज्यनीय है।
वाराणसी की धरती पर घाटों की लम्बीं श्रृखला है। इन्हीं घाटों में सिंधियाघाट-घाट जहाँ पर भगवान शिव आत्मवीरेश्वर रुप में स्थित है। इस शिवालय के समीप मङ्गलेश्वर महादेव, अन्य देवताओंकी मूर्तियां है। आसपास देवगुरु बृहस्पति के ईश्वर बृहस्पतीश्वर, माँ पार्वती के नाथ पार्वतीश्वर, सिद्धेश्वरीदेवी सिद्धेश्वर, कलियुगेश्वर और चन्द्रेश्वर नामक लिङ्ग इसी घाट के आसपास विराजमान हैं, अन्य घाटों में चन्द्रकूप
मणिकर्णिकाघाट घाट जो वीरतीर्थ के नाम से भी जाना जाता हैं, इस मुक्तधाम की महिमां अपरम्पार है। पास ही तारकेश्वर शिव मन्दिर तथा दूसरे अन्य मन्दिर हैं। यहाँ वीरेश्वर-मन्दिर के दर्शन से लोग धन्य होते है। इससे पूर्व वीरतीर्थ में स्नान का विधान है। चिताघाट-मणिकर्णिका के दक्षिण-पश्चिम यह काशीका श्मशान घाट है।
इन तमाम घाटों में राजराजेश्वरीघाट जहाँ पर माँ राजराजेश्वरी जी का मन्दिर है। ललिताघाट पर माँ ललितादेवी के दर्शन होते है।इसी मन्दिर में काशीदेवी की मूर्ति तथा गङ्गाकेशव, गङ्गादित्य, मोक्षेश्वर एवं करुणेश्वर शिवलिङ्ग हैं।
मीरघाट-यहाँ का विशाल-तीर्थ है। जिसके पास विश्वबाहुदेवीका मन्दिर है। इसमें दिवोदासेश्वर शिवलिङ्ग है। कूप के दक्षिण में धर्मेश्वर मन्दिर है। पास ही विशालाक्षी नामक पार्वती मन्दिर है मानमन्दिरघाट , मानमन्दिर यहीं है,
बालमुकुन्द-मन्दिर काशी की अदितीय शोभा है। उसके समीप ब्रह्मेश्वर तथा सिद्धतुण्ड गणेश विराज मान हैं। राणामहलघाट
बाईघाट एवं मुंशीघाट के साथ- साथ चौसट्ठीघाट-इस घाटपर चौसठ योगिनियों मूर्तियाँ शुसोभित है। पास ही मण्डप में भद्रकाली- मूर्ति के रुप में विराजमान है। काशी नगरी की यह भद्रकाली परम कल्याण स्वरुपा कही गई है।
सर्वेश्वर घाट, मानसरोवर घाट-इस पर मानसरोवर-कुण्ड है। पास में हंसेश्वर नामक शिवमन्दिर है। जहाँ भक्ति भाव के साथ लोग शिव पूजन करते है। यहाँ से थोड़ी दूर रुक्माङ्गदेश्वर शिव तथा चित्रग्रीवा देवीका मन्दिर है आगे. चौकीघाट है।फिर नारद घाट-पर पारदेश्वर महादेव दर्शन देते है। क्षेमेश्वरघाट पर क्षेमेश्वर महादेव के दर्शन होते है।
केदारघाट-इसके ऊपर गौरीकुण्ड है, जिस पार केदारेश्वर-मन्दिर है। इस मन्दिरमें पार्वती, स्वामिकार्ति गणपति, दण्डपाणि भैरव, नन्दी आदि अनेक मूर्तियाँ यहाँ लक्ष्मीनारायण मन्दिर तथा मीनाक्षीदेवी का मनिन्दर भी है। केदारेश्वर-मन्दिरके बाहर नीलकण्ठेश्वर महादेव विराजमान है, जिसके सम्मुख संगमेश्वर शिव हैं। अन्य घाटों में ललीघाट-यहाँ चिन्तामणि-विनायक हैं। फिर श्मशानघाट यहाँ पहले मुर्दे जलाये जाते थे। यहाँ श्मशानेश्वर शिव हैं। इसी का दूसरा नाम हरिश्चन्द्रघाट भी है। महाराज हरिश्चन्द्र यहीं चाण्डालके हाथ बिककर श्मशान का कर वसूल किया करते थे।
हनुमान्घाट, दण्डीघाट है। के बाद शिवालाघाट है। यहाँ शिवजी स्वप्नेश्वर शिवलिङ्ग तथा माता पार्वती स्वप्नेश्वरी देवी के रुप में हैं। इसके दक्षिण हयग्रीवकुण्ड तथा
वृक्षराजघाट-यहाँ तीन जैन मन्दिर हैं। जानकीघाट-यहाँ चार मन्दिर हैं। तुलसी घाट-घाट के ऊपर गंगासागर कुंड । है इसी घाटपर *गोस्वामी तुलसीदास जी ने लम्बे समय तक प्रभु की आराधना की यहाँ उनके द्वारा स्थापित हनुमान जी की मूर्ति है। तुलसीघाट से थोड़ी दूर पर लोलार्ककुण्ड है।समीप ही असि-संगमघाट-यह यहाँ असि नामक नदी गङ्गा जी में मिलती है।
अविमुक्त नगरी काशी की भूमि में मन्दिरों की लम्बी श्रृखंला मौजूद है।
जिनमें श्री विश्वनाथ जी-काशी का मन्दिर सर्वप्रधान है। मन्दिर पर स्वर्णकलश चढ़ा है, जिसे इतिहास-प्रसिद्ध पंजाब केसरी महाराज रणजीत सिंह ने अर्पित किया था। इस मन्दिरके सम्मुख सभामण्डप है और मण्डपके पश्चिम दण्डपाणीश्वर-मन्दिर है। सभामण्डप में बड़ा घण्टा तथा अनेक देवमूर्तियाँ हैं। मन्दिरके प्राङ्गण के एक ओर सौभाग्यगौरी तथा गणेश जी और दूसरी ओर शृङ्गारगौरी, अविमुक्तेश्वर तथा सत्यनारायणके मन्दिर हैं। दण्डपाणीश्वर मन्दिर के पश्चिम शनैश्चरेश्वर महादेव हैं। माना जाता है कि काशी विश्वनाथ की स्थापना श्री शनिदेव महाराज जी ने की द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों में यह विश्वेश्वर-लिङ्ग के नाम से जगत में प्रसिद्ध है।
श्रीविश्वनाथ जी काशी के सम्राट् हैं। उनके मन्त्री हरेश्वर, कथावाचक ब्रह्मेश्वर, कोतवाल भैरव, धनाध्यक्ष तारकेश्वर, चोबदार दण्डपाणि, भंडारी वीरेश्वर, अधिकारी ढुण्डिराज तथा काशीके अन्य शिवलिङ्ग प्रजापालक हैं।
विश्वनाथ-मन्दिर के वायव्यकोण में लगभग डेढ़ सौ शिवलिङ्ग हैं। इनमें धर्मराजेश्वर मुख्य हैं। इस मण्डली को शिव की कचहरी कहते हैं। यहाँ मोद-विनायक, प्रमोद विनायक, सुमुख-विनायक और गणनाथ-विनायककी मूर्तियाँ हैं।
अक्षयवट-श्रीविश्वनाथ-मन्दिरके द्वार से निकलकर ढुण्ढिराज गणेश की ओर चलनें पर प्रथम बायीं ओर शनैश्चर का मन्दिर मिलता है। इनका मुख चाँदी का है, शरीर नहीं है। नीचे केवल कपड़ा पहिनाया जाता है । पास एक ओर महावीर जी हैं। एक कोने में एक वटवृक्ष है, जिसे अक्षयवट कहते हैं। यहाँ द्रुपदादित्य तथा नकुलेश्वर महादेव हैं।
देवी के प्रसिद्व मन्दिरों में काशी की भूमि में अन्नपूर्णा-विश्वनाथ-मन्दिर से थोड़ी दूरी पर ही है। चाँदी के सिंहासन पर अन्नपूर्णाकी पीतल को मूर्ति विराजमान है। मन्दिरके सभामण्डप के पूर्व में कुबेर, सूर्य, गणेश, विष्णु तथा हनुमान जी की मूर्तियाँ तथा आचार्य श्री भास्करराय द्वारा स्थापित यन्त्रेश्वर लिङ्ग है, जसपर श्रीयन्त्र खुदा हुआ है। कुल मिलाकर काशी की धरती का वर्णन शब्दों से परे है बाबा विश्वनाथ जी की महिमा को शब्दों में समेटनें में कोई भी समर्थ नहीं है।
बोलिये काशी विश्वनाथ जी की जय, काशी के कोतवाल की जय

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