गजब की माया: ये है संसार की सबसे दिव्य, मनोहर, व सुन्दर शिला

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माँ की विराट लीलाओं का वर्णन अद्भुत है इनकी महिमा अपरंपार है जयंती मंगला काली भद्रकाली का एक भव्य स्वरूप काली शीला व कालीमठ में देखने को मिलता है यह वह स्थान है जहां पर देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर मां काली एकशिला से प्रकट हुई यह शिला युगों युगों से पूज्यनीय है मां काली के रूप में प्रकट होकर मां ने इस शीला से ही बाद में भद्रकाली का रूप धारण कर दुष्टों का संहार किया इस शीला की संक्षिप्त कथा का वर्णन इस प्रकार है जनपद रूद्रप्रयाग के दूरस्थ क्षेत्र में स्थित कालीमठ व विहंगम पर्वतों की चोटी में स्थित कालीशिला का महत्व आध्यात्मिक दृष्टि से बडा ही अद्भूत व निराला है,

कालीतीर्थ के इन क्षेत्रों की महिमां का न आदि है और न ही अन्त इन स्थलों में पहुंचकर सांसारिक मायाजाल में जकडे मानव की ब्याधियां यूं शान्त हो जाती है, जैसै अग्नि की लौ पाते ही तिनका भस्म हो जाता है,विराट आध्यात्म की आभा से ये स्थल जितने महत्वपूर्ण है,तीर्थाटन के लिहाज से उतने ही उपेक्षित भी रक्तबीज के वध से सम्बन्धित पुण्यदायक,पवित्र,चिंरजीविता प्रदान करने वाली पुराणों में इस भूभाग की कथा दिव्य एंव मनोहर है,इस क्षेत्र की महिमां का बखान पुराणों के माध्यम से सबसे पहले महर्शि वसिष्ठ़ ने उद्द्याटित की है और माता अरून्धती को इन पावन स्थलों की जानकारी देते हुए बताया है कि प्राचीन काल में शंकुशिरा नाम का महाप्रतापी व अतिबलशाली दैत्य हुआ उसी की भांति उसका पुत्र अस्थिबीज हुआ जिसका बध माता भैरवी के हाथों से हुआ उसी का महातेजस्वी पुत्र रक्तबीज था जिसने घोर तपस्या करके ब्रहमा को प्रकट किया और वरदान मांगा मेरा वध न तो देवताओं के द्वारा हो न दैत्यों के द्वारा न गन्धर्व न मनुष्य यक्ष न पक्षी न पशु न पिशाच और न अन्य जीव जातियां ही मुझे मार सके न दिन में और न ही रात्रि में मेरा बध हो सके और जहां जहां मेरा रक्त भूमि में गिरे वहां मेरे जैसै ही पराक्रमशाली वीर उत्पन्न हो प्रसन्न ब्रहमा ने उसे वर देते हुएं कहा पुरूषोंं के हाथों तुम्हारी मृत्यु नही होगी

वरदान के प्रभाव से उन्मत वह महासुर निरंकुश हो गया और अनितिपूर्वक शुम्भ निशुम्भ के साथ राज्य करने लगा अपने बल के प्रभाव से उसने शंखकालनाभ,वज्रषीर्श,महाहनु,दुर्नेत्र,रक्तवर्ण,तीक्ष्णदंष्ट,वृषाकृति,दर्दुर,कोल,नामक अनेक असुरों सहित महानास्य,वृषतेजा,वृकोदर,आदि दानवों को लेकर देवताओं पर धावा बोल दिया तथा उन्हें युद्व में बुरी तरह प्ररास्त कर डाला भागकर देवताओं ने अलग अलग दिशाओं व गुफाओं में शरण ली इन्द्र भी युद्वभूमि से भाग निकले इस तरह देवताओं के समस्त अधिकार छीनकर उनके अधिकारों का वह स्यंम उपयोग करने लगा दर दर भटकते देवगण आखिर ब्रहमा की शरण में गये उनकी भातिं भाति प्रकार से स्तुति करके उन्हें प्रसन्न किया प्रसन्न ब्रहमदेव रक्तबीज के बध का उपाय जानने के लिए देवताओं को लेकर भगवान विष्णु के पास गये सभी ने मिलकर उनकी स्तुती की प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने देवताओं से कहा हे देवगणों जो परा एंव नित्य प्रकृति है जो चराचर सहित सम्पूर्ण जगत की रचना करती है उसी के अशंभूत हम देवगण है वह न तो देवता है , न गन्धर्व है ,न राक्षक है , न पिशाच है ,न नर है और न पशु आदि है, वह परा महामाया है उसने ही महिषासुर को मारा था उसकी कृपा से ही मेरे दो शत्रु मधु और कैटभ मारे गये उसी की कृपा से आपका मनोरथ भी सिद्व होगा इसलिए तुम भगवान शंंकर की शरण लेकर मां काली की आराधना करों भगवान विष्णु के सुझाव पर देवगणों ने मां जगदम्बा की आराधना आरम्भ की केदार क्षेत्र में मंदाकिनी के दूसरे तट पर और सरस्वती नदी के उत्तरी तट पर देवताओं ने रक्तबीज के बध की इच्छा से मां काली की आराधना प्रारम्भ की स्कंद पुराण में देवताओं की इस सुदंर स्तुति का वर्णन मिलता है ‘‘नता स्म इन्दीवरनीलषोभां रक्ताम्बरां रक्तसुगन्धभूशाम्।रक्ताननां रक्तविवीटिकां च श्रीरक्तदन्तामनिषं भजाम!’’अर्थात् हम लोग नीलकमल की शोभा, रक्त वस्त्र, रक्त सुगन्ध एवं अलंकार धारण करने वाली, लाल मुख वाली, लाल बीडा वाली, लाल दातों वाली देवी को प्रणाम करते है तथा सतत भजन करते है ।इस तरह मां काली को प्रसन्न करने की 16 श्लोकों की सुन्दर स्तुति पुराणों में विस्तार से पढी जा सकती है

इस तरह देवताओं की प्रार्थना से खुश होकर मां दुर्गा देवी काली चोटी पर प्रकट हुई देवी के तेज के सामने करोडों सूर्य का प्रकाश भी निस्तेज था जगत जननी मां जगदम्बा ने देवताओं को अभयता का वरदान देते हुए कहा में आप लोगों की प्रेम भक्ति और स्तुती से संतुष्ट हूं इस स्थान पर आकर जो भी प्राणी अपने आराधना के श्रद्वा पुष्प मेरे चरणों मे अर्पित करेगा वह मेरी कृपा का भागी बनेगा और यह स्थान काली तीर्थ के नाम से जगत में प्रसिद्व होगा में रक्त बीज का बध करूगी आप निश्चिंतं रहिए इस प्रकार ममतामयी माता ने रक्तबीज सहित अनेक दैत्यों को मारकर देवताओं को उसके संताप से मुक्त किया रक्त बीज के मारे जाने से संसार प्रसन्न हुआ इन्द्र आदि देवताओं ने भांति भातिं प्रकार से मां कालिका की स्तुति की समूचा ब्रहमाण्ड निर्मल आभा से युक्त हो गया रक्त बीज के बध का यह क्षेत्र मां कालिका के दुर्लभ महिमां वाला क्षेत्र है इन स्थानों पर काली माता का पूजन करने से अक्षय फल की प्राप्ती होती है, ऐसा पुराणों का कथन है कहा तो यहां तक गया है, जो कोई मानव भक्ति से यहां परम शिवा का पूजन करता है वह प्रलय काल तक रूद्र भवन में वास करता है सत्युग में जो पुण्य करोडों वर्ष में मिलता है वह पुण्य यहां तीन रात में प्राप्त हो जाता है इसमें संदेह नही‘

‘काली प्रत्यक्ष फलदा पूजनात्स्मरणादपिं।य..कशि्चिन्मानवो भकत्या पूजयेत्परमां शिवाम्स याति रूद्रभवनं यावदाभूतसम्प्लवम्।।3।के.ख.अ.88ष्लोक3 काली तार्थ का दर्शन मोक्ष को देने वाला कहा गया है जो एक उडद के बराबर सोना कालिका को सर्मपित करता है वह कोटी फल को पाता है जो अशं मात्र भूमि भी कालिका को दान करता है उसका विष्णु लोक से कभी पतन नही होता है कुल मिलाकर इस स्थान पर दान का बडा महात्म्य है इस अलौकिक स्थल की सबसे बडी बात यह है जो गन्ध ,अक्षत , पुष्प तथा भांति भाति प्रकार के नैवैधों से कुमारी का पूजन करता है वह समस्त सिदियों को पाता है यह क्षेत्र परम गोपनीय क्षेत्र कहा गया है यही वह स्थान है जहां ब्रहमा आदि देवता सिद्वि को प्राप्त हुए थे जो इस पावन भाग में पितरों ,देव ऋषियों का तर्पण करता है वह चराचर सहित सम्पूर्ण जगत का तर्पण कर लेता है यहां की महामहिमा यह है जो देवगणों से घिरे हुए इस क्षेत्र में प्राणों को छोडता है उसके मरने पर काशी या गया में श्राद्व की आवश्यकता नही है

‘‘योअत्रप्राणान्विमुच्येत क्षेत्रे देवगणावृते। मरणेन हि किं काष्यां किं गयायां हि श्राद्वत..’’श्लोक 19 के.ख.अ.89 वह मुक्त हो जाता है उसका पुर्नजन्म नही होता है सरस्वती व इन्दीवर नदी के तट पर किया जाने वाला स्नान सनातन मुक्ति को प्रदान करता है कालीक्षेत्र में स्थित महालिंग केदारनाथ से भी अधिक पुण्यदायक माना गया है यहां पर शिव का पूजन करने वाला परम पद को पाता है यह लिंग कालीश्वर नाम से प्रसिद्व है पुराणों में काली क्षेत्र की अद्भुत महिमा गायी गयी है यह प्रत्यक्ष फलदायक स्थान माना गया है यहां आज भी शंंख ढोल मृदंग के शब्द सुनाई पडते है माता अरून्धती को काली क्षेत्र की महिमा बताते हुए प्रभु श्री रामचन्द्र के गुरू वषिश्ठ कहते है कलियुग में मोक्षदायिनी काली के बिना मनुष्य को सर्वथा भोग और मोक्ष देने वाली कोई नही है ,जो मनुश्य एकाग्रचित होकर देवी का यहा लम्बे प्रवास में ध्यान लगाता है उसके सामने वरदायिनी देवी प्रत्यक्ष हो जाती है यहां की मतंग नामक शिला पर मंतग मुनी ने कठोर तपस्या की इस पावन स्थान पर दूर पर्वत पर रणमण्डनामहादेवी विराजमान है तपस्या की सिद्वी देने वाला इससे उत्तम स्थान संसार में दूसरा नही है इस पर्वत पर सिद्व, गन्धर्व, और किन्नर देवी के साथ सुखपूर्वक विचरण करते है ,जिन्हें कोई भाग्यषाली मनुष्य आज भी देखते है । इसके उत्तर भाग में खौनू गांव में कोटिमाहेश्वरी माता का मन्दिर सकल पापों का हरण करने के लिए जगत में प्रसिद्व है।

कालीशिला के आगे मनणा माई के मनिदर के दर्शन सकल पापों का हरण करने वाला कहा गया है कालीमठ से कालीशिला को जाते समय रास्ते में स्थित भीम का चूला पाण्डवकालीन याद को दर्शाता है कुण्जेठी का शिवालय शिव भक्तों के लिए अलौकिक सौगात है कालीमठ पहुंचने के लिए देहरादून से श्रीनगर होते हुए रूद्रप्रयाग मार्ग से अगस्त्यमुनि गुप्तकाषी के दर्शनकर इस स्थान पर पहुचां जा सकता है कालीमठ से कालीशिला तक पहुंचने के लिए 7 किलोमीटर की जटिल पैदल यात्रा करनी पडती है

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