अद्भुत रहस्यों की गाथाओं को समेटे है उत्तराखंड का यह नाग मंदिर

ख़बर शेयर करें

धौलीनाग/उत्तराखण्ड के अनेक भागों में लोग अपने ईष्ट देव नाग देवता के पूजन के बाद ही अन्य कार्य को आरम्भ करते है, किसी भी उत्सव से पूर्व नाग पूजा की परम्परा सदियों से चली आ रही है आदिकाल से ही सम्पूूॅूर्ण उत्तराखण्ड क्षेत्र देवभूमि के नाम से जगप्रसिद्व रहा है। माना जाता है कि यहां कण-कण में तैंतीस कोटि देवी-देवताओं का निवास है। युगों-युगों से यह पावन भूमि तपस्वी सन्तों एवं ऋषि-मुनियों की तपोस्थली रही है। इसीलिए इसे आज भी देवभूमि कहा जाता है। यहां की पवित्र भूमि में आज भी ऐसे अनेक गुप्त एवं रहस्यमय देवस्थल हैं, जहां वास्तव में साक्षात देवताओं की उपस्थिति की अनुभूति होती है। ।

इन्हीं गुप्त देवस्थलों में से ऐक देवस्थल है ‘धौली नाग’। नागाधिराज के नाम से जाने जाने वाले इन धौली नाग देवता को धवलनाग या सफेदनाग के नाम से भी जाना जाता है

धौलीनाग देवता का मन्दिर कुमाऊं मण्डल के बागेश्वर जनपद अन्तर्गत विजयपुर नामक स्थान से मात्र डेढ़ किमी. की दूरी पर ऊंचाई पर स्थित है। यहां के स्थानीय लोग इस नाग देवता को अपने आराध्य देव के रूप में पूजते हैं। क्षेत्रभर के लोगों में धौलीनाग देवता के प्रति गहरी आस्था है और विश्वास तो उनके दिलों में जैसे कूट-कूट कर भरा है।
मंदिर के आस्थावान भक्तों  के अनुसार धौलीनाग देवता के इस मन्दिर की स्थापना लगभग 400 वर्ष पूर्व की गयी थी। उससे पहले धौलीनाग देवता यहां स्थित एक बांज के एक विशालकाय पेड़ पर निवास करते थे, जो आज भी यहां मौजूद है। यहां के स्थानीय लोगों का कहना है कि एक बार रात्रि के समय इस क्षेत्र के जंगल में अचानक भयंकर आग लग गयी। तब बांज के विशाल पेड़ पर विराजित धौलीनाग देवता ने ग्रामवासियों को आवाज लगा कर बताया कि जंगल में आग लग गयी, इसे बुझाने के लिए आओ, लेकिन कहा जाता है कि वह दिव्य आवाज किसी को नहीं सुनाई दी। देवता के बार-बार आवाज लगाये जाने पर सहसा वह आवाज क्षेत्र में ही निवास करने वाले अनुसूचित जाति के ‘भूल’ लोगों ने सुनी तो वे 22 हाथ लम्बी मशाल जलाकर रात्रि में ही आग बुझाने को निकल पड़े। देवता के जयकारे की आवाज जब यहीं के धपोला लोगों ने सुनी तो वे घरों से बाहर निकले और भूल लोगों से सारा वृतान्त सुनकर वे भी जलती मशाल लेकर उनके साथ चल दिये। देखते ही देखते चन्दोला वंशज के लोग भी मशाल हाथ में लेकर निकल पड़े और छुरमल देवता के मंदिर में सभी एकत्र हो गये। वहां से एक साथ जंगल की आग बुझाने निकले। मशाल लेकर चलने की परम्परा आज भी विभिन्न मेलों के अवसर पर चली आ रही है।
साल में तीन बार यहां भव्य मेलों का आयोजन होता है, जिसमें धपोला व भूल लोग मिलकर बाईस हाथ लम्बी जलती मशाल लाते हैं। यह भव्य मंदिर हिमालय की तलहटी में चारों ओर बांज, बुरांश, चीड़, काफल, देवदार आदि के वनों से आच्छादित है। इस क्षेत्र में अनेक जाति के क्षत्रिय, ब्राह्मण एवं अनुसूचित जाति के लोग निवास करते हैं। चन्दोला, धपोला, धामी, राणा, पन्त, पाण्डे, काण्डपाल, कर्म्याल, भूल आदि मिलाकर लगभग डेढ़ हजार परिवार धौली नाग देवता को अपना आराध्य देव मानते हैं।

यह भी पढ़ें 👉  कालाढूंगी का प्राचीन हनुमान मंदिर : हनुमान भक्तों के लिए प्रकृति की अद्भुत सौगात,वृक्ष पर उभरी हनुमान जी की आकृति के दर्शन से धन्य होते है श्रद्धालु

वर्ष में ऋषि पंचमी, नाग पंचमी और प्रत्येक नवरात्रि की पंचमी की रात्रि को यहां भव्य मेले लगते हैं, जिनमें हजारों लोग भाग लेते हैं। परम्परा के अनुसार इस मंदिर में विधि-विधान से पूजा-अर्चना होती है। यहां के पुजारी धामी वंशज होते हैं।  मंदिर में हमेशा दो पुजारी रहते हैं- एक गर्भ गृह पास ऊपर की ओर तथा दूसरा नीचे की ओर।
धौलीनाग देवता के मंदिर में प्राचीन काल से सात्विक पूजा-अर्चना का विधान है

यह भी पढ़ें 👉  ठेला, फड, वेंडर्स कल्याण समिति की बैठक जिलाधिकारी कार्यालय में सम्पन, इस विषय पर हुआ विचार विर्मश

इस मंदिर में धौलीनाग जी को घी, खीर, दूध एवं रोट का भोग लगाया जाता है। मंदिर में भोग बनाने का कार्य परम्परा के अनुसार पाण्डे लोगों को सौंपा गया है। इसके अलावा इस मंदिर में समय-समय पर रामायण, महा शिव पुराण, सत्य नारायण कथा, देवी भागवत, श्रीमद् भागवत इत्यादि धार्मिक कार्यों का आयोजन होते रहता है। प्राचीन परम्परानुसार राणा वंशज के लोगों में देवता अवतरित होता है।  धौलीनाग जी की प्रेरणा से ही सारे भक्तों के दुःख-दर्द व कष्टों का निवरण करते हैं। इसके अलावा इस क्षेत्र में हमेशा नई फसल के समय सर्वप्रथम धौलीनाग देवता को नैवेद्य के रूप में प्रथम भोग लगाया जाता है। तत्पश्चात इस क्षेत्र के निवासी उस अन्न का प्रयोग करते हैं। इसके अलावा क्षेत्र में जो भी गाय, भैंस ब्याती हैं उनका दूध बाइसवें दिन में सर्वप्रथम छुरमल देवता एवं धौलीनाग देवता को ही चढ़ाया जाता है।
इस क्षेत्र के बुजुर्गों का कहना है कि धौलीनाग जी की कृपा से आज तक इस इलाके में महामारी, सूखा, अकाल, बाढ़, भूस्खलन, सर्प भय, जंगली जानवरों आदि का कोई भय नहीं रहता है। इनका कहना है कि यह क्षेत्र राजपूत बाहुल्य होने के कारण सबसे ज्यादा यहां के लोग भारतीय सेना में सेवारत रहते हैं। प्रथम विश्व युद्व, द्वितीय विश्व युद्व, 1962 का भारत-चीन यु(, 1965-71 भारत पाक युद्व, 1999 के कारगिल युद्व में यहां के जवानों ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए क्षेत्र का मान-सम्मान बढ़ाया, किन्तु धौलीनाग देवता की कृपा से आज तक इस क्षेत्र का कोई भी जवान हताहत नहीं हुआ।
धौलीनाग मंदिर के चारों ओर अनेक गांव बसे हैं जिनमें विभिन्न जातियों के लोग निवास करते हैं। धौलीनाग मंदिर को स्थानीय भाषा में ‘उधाण’ मंदिर भी कहा जाता है। यह मंदिर तल उधाण में स्थित है। धौलीनाग मंदिर के गर्भ गृह में जो धौलीनाग की आकृति है वह शिव लिंग के रूप में विद्यमान है तथा मंदिर के अन्दर नौ दुर्गाओं की मूर्तियां स्थापित हैं। यह मंदिर सभी नाग देवताओं का केन्द्र है।

यह भी पढ़ें 👉  ठेला, फड, वेंडर्स कल्याण समिति की बैठक जिलाधिकारी कार्यालय में सम्पन, इस विषय पर हुआ विचार विर्मश

ये नाग देवता नौ भाई हैं- धौली नाग, फेणी नाग, वासुकि नाग, पिंगल नाग, काली नाग, सुन्दरी नाग, खरै नाग, बेरी नाग व मूल नाग। इस मंदिर के चारों ओर अनेक स्थानीय देवताओं के मंदिर भी सुशोभित हैं। पूर्व में नौलिंग, पश्चिम में मां भगवती, उत्तर में बंजैंण, मूल नारायण तथा दक्षिण दिशा की ओर छुरमल एवं भूमिया देवता सहित अनेक मंदिर हैं। माँ भगवती के मंदिर को ‘बुढ़ उधाण’ भी कहा जाता है। जब धौलीनाग जी को स्नान कराया जाता तो दूध, जल एवं पुष्प सुरंग के माध्यम से मंदिर से तीन किलोमीटर दूर देलख गांव में दिखायी देता है क्योंकि गर्भ गृह के अंदर से एक छोटी से लंबी सुरंग है जिसका कोई अता-पता नहीं है। इस क्षेत्र में मेले के दौरान अनेक देवी-देवता डंगरियों के शरीर में अवतरित होते हैं जो देश-विदेश से आये हुए यहां के श्रद्वालु भक्तजनों की मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं। इस क्षेत्र के समस्त लोगों का धौलीनाग देवता पर अटूट आस्था व विश्वास है। यहां के लोग कोई भी शुभ कार्य करने से पूर्व धौलीनाग देवता का आशीर्वाद लेना नहीं भूलते हैं। इनकी कृपा से यहां लोग काफी खुशहाल हैं।

Ad
Ad Ad Ad Ad
Ad