ये है राजसत्ता की देवी वर देने वालों को भी वरदान देती है,माँ बगुलामुखी प्रकटोत्सव दिवस15 मई को

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*वर देने वालों को भी वरदान देती है,माँ बगुलामुखी*
*श्री शिव,श्रीविष्णु,श्रीराम,श्री कृष्ण,श्रीश्याम,भगवान परशुराम,गुरु द्रोणाचार्य ने भी किया था,माँ बगलामुखी देवी अर्थात मॉं पीताम्बरी का पूजन*

बगलामुखी देवी को ही पीताम्बरी देवी अथवा पीताम्बरा देवी कहा जाता है। यह देवी सृष्टि की दश महाविद्याओं में से एक मानी जाती हैं। गुप्त नवरात्रीयों को इस देवी का पूजन सभी मनोरथों को पूर्ण करता है,स्वयं प्रभु श्री राम,श्रीकृष्ण,भगवान संकर इस देवी का पूजन करते है,इनकी कृपा से ही राम ने रावण पर विजय पायी थी इसलिए देवी का एक नाम महारावण हारिणी भी है, तंत्रशास्त्र में इस देवी को विशेष महत्व दिया गया है। अपनी उत्पत्ति के समय यह देवी पीले सरोवर के ऊपर पीले वस्त्रों से सुशोभित अद्भुत कांचन आभा से युक्त थी। इसीलिए साधकों ने इस देवी को ‘पीताम्बरी’ अथवा ‘पीताम्बरा’ देवी के नाम से भी सम्बोधित किया है। इस तरह यही बगलामुखी देवी पीताम्बरी देवी के रूप में जगत में पूजित, वन्दित एवं सेवित हैं।
एक पौराणिक प्रसंगानुसार जब दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया तो सती अत्यधिक क्रोधित हो उठी। सती के रौद्र रूप को देख कर भगवान शिव अत्यधिक विचलित हो गये और इधर-उधर भागने लगे। तब सहसा दशों दिशाओं में सती का विराट स्वरूप उद्घाटित हो गया। भगवान शिव ने जब देवी से पूछा कि वे कौन हैं, तो विराट स्वरूपा देवी सती ने दश नामों के साथ अपना परिचय दिया जो दश महाविद्याओं ने रूप में जगत प्रसिद्ध हुई।

एक अन्य पौराणिक कथानुसार ‘कृत’ युग में सहसा एक महाप्रलयंकारी तूफान उत्पन्न हो गया। सारे संसार को ही नष्ट करने में सक्षम उस विनाशकारी तूफान को देख कर जगत के पालन का दायित्व संभालने वाले भगवान विष्णु चिन्तित हो उठे। श्री हरि ने सौराष्ट्र के हरिद्रा नामक सरोवर के किनारे महात्रिपुर सुन्दरी को प्रसन्न करने के लिए घोर तप आरम्भ कर दिया। भगवान के तप से प्रसन्न होकर तब उस श्री विद्या महात्रिपुर सुन्दरी ने बगलामुखी रूप में प्रकट होकर उस वातक्षोभ (विनाशकारी तूफान) को शान्त किया और इस तरह संसार की रक्षा की। ब्रह्मास्त्र रूपा श्री विद्या के अखण्ड तेज से युक्त मंगल चतुर्दशी की मकार कुल नक्षत्रों वाली रात्रि को ‘वीर रात्रि’ कहा गया है, क्योंकि इसी रात्रि के दूसरे पहर में भगवती श्री बगलामुखी देवी का आभिर्भाव बताया जाता है। यथा-
अथ वचामि देवेशि बगलोत्पत्ति कारणम्।
पुराकृत युगे देवि वात क्षोभ उपस्थिते।।
चराचर विनाशाय विष्णुश्चिन्ता परायणः।
तपस्यया च संतुष्टा महात्रिपुर सुन्दरी।।
हरिद्राख्यं सरो दृष्ट्वा जलक्रीड़ा परायणा।
महाप्रीति हृदस्थान्ते सौराष्ट्र बगलाम्बिका।।
श्रीविद्या सम्भवं तेजो विजृम्भति इतस्ततः।
चतुर्दशी भौमयुता मकारेण समन्विता।।
कुलऋक्ष समायुक्ता वीररात्रि प्रकीर्तिता।
तस्या मेषार्धरात्रि तु पीत हृदनिवासिनी।।
ब्रह्मास्त्र विद्याा संजाता त्रैलोक्यस्य च स्तंभिनी।
तत् तेजो विष्णुजं तेजो विधानुविधयोर्गतम्।।

देवी बगलामुखी की महिमा
आज के भौतिक युग में सर्वत्र द्वन्द एवं संघर्ष का वातावरण व्याप्त है। जीवन में उन्नति करने के लिए स्वस्थ स्पर्धा के स्थान पर ईर्ष्या, रागद्वेष और घृणा का भाव अधिक प्रभावी है। परिणामस्वरूप हर तरफ अशान्ति, अभाव, लड़ाई-झगड़े आपराधिक गतिविधियों तथा पापाचार का बोलबाला है। जनसामान्य में असुरक्षा का भाव घर गया है। अधिकांश लोग परेशान व विचलित हैं। ऐसी परिस्थिति में जो कोई भी सुख व शान्ति की इच्छा रखते हैं, वे अन्ततः भगवान के शरण में जाना ही श्रेयष्कर मानते हैं।
मॉ भगवती बगलामुखी ममतामयी हैं, करुणामयी हैं तथा दयामयी हैं। ऐसी विषम स्थितियों में भगवती बगलामुखी देवी की शरण ही सबसे सरल व प्रभावी मानी गयी है। शास्त्रों में कहा गया है-‘बगलामुखी देवी की शरणागति भक्तों को सहारा व साहस प्रदान करती है तथा सभी प्रकार के संशयों, दुविधाओं एवं खतरों से निर्भय कर देती है। यह एक सर्वविदित मान्यता है कि मनुष्य को तभी शान्ति की अनुभूति होती है, जब वह अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति की यह परम् अभिलाषा होती है कि उसे सामाजिक सुरक्षा, आर्थिक सुरक्षा तथा शत्रुओं से सुरक्षा प्राप्त हो। शास्त्रकारों ने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए, विजय श्री का वरण करने के लिए तथा अपने प्रभाव व पराक्रम में बृद्धि करने के लिए भगवती बगलामुखी देवी की साधना को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि सभी दश महाविद्याओं की सिद्धि के परिणाम अत्यधिक सुखद एवं चमत्कारिक होते हैं। यद्यपि साधना विधि जटिल है और इसीलिए साधारण साधक इस साधना में रुचि नहीं लेते, इसीलिए दुर्लभ एवं चमत्कारिक लाभों से सर्वथा वंचित रहते हैं। अनेकानेक जटिलताओं के बावजूद जो साधक भगवती बगलामुखी की साधना सम्पूर्ण श्रद्धा व विश्वास से करते हैं, वे स्वयम् तो लाभान्वित होते ही हैं,दूसरों को भी लाभ पहुंचाते हैं।

अनेक प्राचीन वैदिक संहिताओं तथा धर्म ग्रन्थों में महाविद्या बगलामुखी देवी के स्वरूप, शक्ति व लीलाओं का अत्यन्त विषद वर्णन मिलता है। उपनिषदों में जिसे ब्रह्म कहा गया है, उसे भी इस शक्ति से अभिन्न माना गया है। यानी ब्रह्म भी शक्ति के साथ संयुक्त होकर ही सृष्टि के समस्त कार्यों को कर पाने में समर्थ हो पाता है। इसीलिए तो शक्ति तत्व की उपासना, वंदना व साधना को मनुष्य मात्र के लिए ही नहीं अपितु देवताओं के लिए भी परम् आवश्यक बताया गया है। इसी शक्ति तत्व में नव दुर्गा तथा सभी दश महाविद्याएं समाहित हैं, जो सृष्टि के कल्याण के लिए अनेकानेक लीलाओं का सृजन करती हैं। दश महाविद्याओं में भगवती बगलामुखी को पंचम शक्ति के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। यथा-
काली तारा महाविद्या षोडसी भुवनेश्वरी।
बाग्ला छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा।।
मातंगी त्रिपुरा चैव विद्या च कमलात्मिका।
एता दश महाविद्या सिद्धिदा प्रकीर्तिता।।
कृष्ण यजुर्वेद अन्तर्गत ‘काठक संहिता’ में मॉ भगवती बगलामुखी का बड़ा ही मोहक तथा सुन्दर वृतान्त मिलता है-
सभी दिशाओं को प्रकाशित करने वाली, मोहक रूप धारण करने वाली ‘विष्णु पत्नी’ वैष्णवी महाशक्ति त्रिलोक की ईश्वरी कही जाती है। इसी को स्तम्भनकारिणी शक्ति, नाम व रूप से व्यक्त एवं अव्यक्त सभी पदार्थों की स्थिति का आधार व पृथ्वी रूपा कहा गया है। भगवती बगलामुखी इसी स्तम्भन शक्ति की अधिष्ठात्री दवी हैं।

बगलामुखी देवी को जन सामान्य ‘बगुला पक्षी’ के मुखाकृति वाली देवी समझ बैठते हैं, जबकि यह बगुला की मुखाकृति वाली देवी नहीं हैं। पुरातन ग्रन्थों में इस देवी को ‘बल्गामुखी’ अर्थात अखण्ड व असीम तेजयुक्त मुखमण्डल वाली देवी कहा गया है। कालान्तरण के साथ साधकों ने अपनी सुविधानुसार देवी को बगलामुखी नाम से पूजना आरम्भ कर दिया तथा बाद के ग्रन्थों में भी इसका इसी नाम से उल्लेख किया जाने लगा और यही नाम जग प्रसिद्ध हो गया। समाज में कई साधक ऐसे भी देखे जाते हैं जो आम व्यवहार में इस देवी को भगवती बगुलामुखी नाम से भी सम्बोधित करते हैं। इसलिए नये भक्त शुरुआत में महामाया बगलामुखी को बगुला नामक पक्षी के रूप वाली देवी समझने की भूल कर बैठते हैं।

इस बात पर संशय की जरा भी गुंजाइश नहीं है कि भगवती बगलामुखी देवी की श्रद्धा व विश्वास के साथ आराधना करने वाले साधक अपने विरोधियों तथा प्रतिद्वदियों पर सदैव विजय प्राप्त करने में समर्थ हो जाते हैं और दुखियों के दुःख दूर करने में भी सक्षम हो जाते हैं। आमतौर पर असाध्य रोगों व संकटों से छुटकारा पाने के लिए, दूसरों को अपने अनुकूल बनाने के लिए, हर तरह की विघ्न बाधाएं शान्त करने के लिए तथा नवग्रहों की शान्ति के लिए मॉ भगवती बगलामुखी का विधिपूर्वक किया जाने वाला अनुष्ठान अत्यधिक प्रभावशाली एवं तत्काल फलदायी माना गया है। अनुष्ठान या उपासना मत्र, तंत्र अथवा यंत्र किसी भी माध्यम से सम्पन्न करने पर यह देवी त्वरित व चमत्कारिक फल प्रदान करती हैं। देवी के साधक यह भी कहते हैं कि साधना यदि मंत्र व यंत्र का प्रयोग करते हुए की जाये तो इसमें सर्वाधिक सुखद एवं विशेष प्रभाव की अनुभूति होती है। फिर लोक कल्याण की भावना से की जाने वाली साधना का तो कहना ही क्या, देवी ऐसे साधकों पर शीघ्र ही प्रसन्न होकर मनोवांछित फल प्रदान करती हैं। इस सम्बन्ध में ग्रन्थकार कहते हैं-

‘बगला सर्वसिद्धिदा सर्वान कामानवाप्नुयात’ अर्थात देवी बगलामुखी का पूजन, वन्दन तथा स्तवन करने वाले भक्त की हर मनोकामना पूर्ण हो जाती है।

साधना की पात्रता
महामाया पीताम्बरा देवी (बगलामुखी देवी) की साधना यूं तो कोई भी व्यक्ति कर सकता है,परन्तु इस सच्चाई को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए पात्रता अथवा योग्यता का होना परम आवश्यक है। इसीलिए भगवती पीताम्बरा देवी (बगलामुखी) के साधक में भी साधना करने के लिए न्यूनतम् पात्रता का होना अत्यावश्यक है। इसमें सर्वप्रथम योग्यता है-

अखण्ड विश्वास। महापुरुषों नेकहा है किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए कर्ता के मन में अखण्ड विश्वास का होना बहुत आवश्यक है। शास्त्र कहते है -‘विश्वासम् फलदायकम्’ वास्तव में अखण्ड विश्वास किसी भी साधना के लिए सुन्दर उर्वरा भूमि की तरह है।

साधक को अपनी क्षमता, आवश्यकता, परिस्थिति तथा सांसारिक बंधनों को ध्यान में रखकर ही बगलामुखी देवी की साधना की ओर कदम बढ़ाने चाहिए। किसी भी तरह के संशय, अविश्वास अश्रद्धा या फिर दुविधा की स्थिति में की गयी साधना निष्फल होने के साथ ही कष्टकारी भी हो सकती है। साधना के लिए पात्रता की दृष्टि से वाणी की शुद्धता का भी अपना विशिष्ट महत्व है। साधक को हर परिस्थिति में मधुर भाषी होना चाहिए। कठोर वाणी किसी भी खतरनाक तथा धारदार हथियार से अधिक घाव कर देती है। हथियार से घायल व्यक्ति का उपचार सम्भव है, लेकिन कठोर वाणी तो हृदय का ही छेदन कर डालती है। इसीलिए तो देवी के साधकों के लिए जहां तक सम्भव हो मौन रहने का निर्देश है।

साधना में मनःस्थिति का महत्व
मनुष्य के जीवन में किसी भी कार्य को करने से पूर्व उसकी पूरी रूपरेखा उस व्यक्ति विशेष के मन के द्वारा ही निर्धारित होती है और मन के द्वारा ही उस कार्य विशेष का संचालन भी होता है। इसलिए मन का निर्मल व शान्त होना परम् आवश्यक है। मन के विकारग्रस्त होने की स्थिति में शुद्ध सोच विकसित नहीं हो सकती। मन की अपवित्रता मनुष्य को अनैतिक कार्य करने के लिए ही अधिक प्रेरित करती है। अतः मन को विकारों से मुक्त रखते हुए केवल सत्य का सहारा लेना चाहिए। इसी में कार्य की सार्थकता है। फिर साधना कर्म में तो मन की शुद्धता एक अनिवार्य शर्त है। इसलिए भगवती पीताम्बरा देवी (बगलामुखी) के साधक को अपना तन-मन शुद्ध राखते हुए सदैव सत्य का ही चिन्तन करना चाहिए व सत्य का ही अवलम्बन लेना चाहिए। मन को पूरी तरह सत्य में प्रतिष्ठित कर देने से विकार स्वतःही दूर हो जाते हैं।
वस्तुतः सत्य स्वयम् में ही सिद्धियों का सो्रत है। सत्य की महिमा अद्भुत है, इसके सहारे ईश्वर से साक्षात्कार बहुत सहज बताया गया है। महाभारत के एक प्रसंग के अनुसार-
धर्मराज युधिष्ठिर अपने रथ पर सवार होकर जहां कहीं भी जाते थे, उनके रथचक्र भूमि का स्पर्श न करके सदैव भूमि से कुछ ऊपर उठे हुए रहते थे। अर्थात उनका रथ हवा में चलता था और यह सब सत्य की सिद्धि का ही प्रभाव था। महाभारत युद्ध के दौरान महाराज युधिष्ठिर को एक बार परिस्थितिवष कहना पड़ गया-‘ अश्वत्थामा हतो हतः नरो वा कुंजरो वा’ यानी अश्वत्थामा मारा गया, यह ज्ञात नहीं कि वह मनुष्य था या हाथी’। इस तरह का असत्ययुक्त भाषण करते ही उनके रथचक्र भूमि का स्पर्श करते हुए चलने लगे। आंशिक ही सही किन्तु असत्य भाषण करते ही उनकी सिद्धि क्षीण हो गयी। इस ऐतिहासिक घटना के बाद महाराज युधिष्ठिर का सत्य व्रत खण्डित हो गया। इसीलिए तो पीताम्बरा देवी (बगुलामुखी देवी) के साधकों को ‘सत्यादपि हितं वदेत्’ के अनुरूप आचरण करने का निर्देश है। इसी में साधक के साथ-साथ समाज की भी भलाई है। सत्य की अनदेखी करने से सब निरर्थक हो जाता है।

चित्त वृत्ति की स्थिरता
पीताम्बरा देवी (बगलामुखी देवी) के साधक से अपनी चित्त-वृत्ति स्थिर रखते हुए केवल साधना पर ध्यान केन्द्रित करने की अपेक्षा की गयी है। चित्त की चंचलता साधना में सबसे बड़ी बाधा मानी गयी है। चित्त को स्थिर रखने के लिए सभी तरह के सांसारिक भोगों तथा विषयों से ध्यान हटाना नितान्त आवश्यक है। मॉ भगवती के साधक को यह बात भली-भांति स्वीकार कर लेनी चाहिए कि क्षणिक सुख देने वाली वासनाएं न तो कभी शान्त हो पाती हैं और न ही कभी तृप्त हो पाती हैं। जिस तरह अग्नि में घी डालने से अग्नि देव की ज्वाला अधिक प्रचंड हो जाती है, ठीक उसी तरह सांसारिक भोगों के चिन्तन करने से तथा उनका भोग करते रहने से उन भोगों के प्रति आकर्षण भी प्रचंड रूप धारण कर लेता है, जो अन्ततः विनाश का कारण बनता है।

भयमुक्त रहना और क्रोध पर
नियंत्रण आवश्यक
भगवती बगलामुखी देवी के साधक के लिए भयमुक्त रहना जितना आवश्यक है, क्रोध पर नियंत्रण रखना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। भयग्रस्त रहने से साधना में कई तरह के व्यवधान पैदा हो जाते हैं, क्योंकि ऐसी स्थितियों में साधक की चित्त-वित्तियां स्थिर नहीं रह पाती, फिर क्रोध को तो पाप और बुराइयों की जड़ कहा गया है। क्रोध से झगड़े-फसाद होते हैं, बड़े-बड़े युद्ध तक हो जाते हैं, दाम्पत्य जीवन विखर जाता है, परिवार टूट जाते हैं और कई बार भयावह नर संहार तक हो जाते हैं। क्रोध के रहते यदि साधना की बात की जाये तो यह अग्नि से शीतलता की आशा करने जैसा पागलपन ही माना जायेगा। इस खतरनाक दुर्गुण का मिटाने का एकमात्र उपाय है-मन में शान्ति और क्षमाभाव। जिस साधक के हृदय में क्षमाभाव होता है, वह गम्भीर से गम्भीर विवाद को शान्त करने का ही प्रयास करता है। उसका यही पवित्र भाव आत्मोन्नति के साथ ही व्यापक लोक कल्याण में भी सहायक होता है।

ब्रह्मचर्य के प्रति सजग
मॉ भगवती बगलामुखी की साधना के लिए साधक को ब्रह्मचर्य के प्रति सजग रहना भी नितान्त आवश्यक है। इस व्रत का पालन न हो पाने पर उसका आत्मबल क्षीण हो जाता है और शारीरिक शक्ति का भी हृास हो जाता है। इसके लिए कामोत्तेजक वातावरण से दूर रहने व वासना बढ़ाने वाले पदार्थों का सेवन न करने के कड़े निर्देश हैं। भोगों का त्याग करने से धीरे-धीरे उनका आकर्षण समाप्त हो जाता है जबकि उन्हें भोगे जाते रहने से वासना व तृष्णा उत्तरोत्तर बढ़ती ही चली जाती है। भोगों की अधिकता से साधक की शारीरिक, मानसिक, वाचिक व आत्मिक शक्तियां क्षीण होकर नष्ट हो जाती हैैं। साधक यदि गृहस्थ हो तो गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का पालन भी आवश्यक हो जाता है। ऐसे में सांसारिक भोगों से बचने के लिए मर्यादित तथा संयमित जीवन जीने का विधान बताया गया है। सृष्टि कर्म को आगे बढ़ाने के लिए संतानोत्पत्ति के महत्व को कमतर नहीं आंका जा सकता। शास्त्रों में सहधर्मिणी के साथ संयमित जीवन जीने को ब्रह्मचर्य की श्रेणी में रखा गया है।
ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा के लिए स्वस्थ मानसिक चिन्तन के साथ ही वाणी की शुद्धता भी आवश्यक है। परस्त्री के बारे में सोचने, उस पर चर्चा करने अथवा अवांछित हाव-भाव व्यक्त कर कामोत्तेजक वातावरण निर्मित करने के प्रयास ब्रह्मचर्य को खण्डित कर डालते हैं। विद्वतजनों के अनुसार मनुष्य जैसा सोचता है, उसका व्यक्तित्व वैसा ही आकार ले लेता है, क्योंकि भाव सम्प्रेषण की तरंगें अत्यधिक प्रबल होती हैं। शुद्ध भाव से आत्मविश्वास तथा संकल्प शक्ति में चमत्कारिक रूप से बृद्धि होती है और जटिल से जटिल कार्य सिद्ध हो जाते हैं।

साधना में मौन का महत्व
साधना में मौन का महत्व सर्वमान्य है। मौन व्रत में शुद्ध भाव के साथ शुद्ध चिन्तन की अपेक्षा की जाती है। इस व्रत के पालन से साधक वाचिक अपराधों से पूरी तरह मुक्त रहता है। उसकी इच्छाशक्ति एवं मनोबल में दिव्य शक्ति का संचरण होने से लक्ष्य सुनिश्चित हो जाता है। मॉ बगलामुखी की साधना में मौन को अत्यधिक सुखद एवं त्वरित फलदायी माना गया है।

ध्यान की महिमा
किसी भी कार्य की सफलता के लिए ध्यान का एक विशिष्ट महत्व है। ध्यान के बिना किसी भी विषय की गहराई तक नहीं पहुंचा जा सकता। फिर चाहे वह सांसारिक कार्य हो अथवा आध्यात्मिक साधना। इसीलिए तो प्राचीन महर्षियों ने साधकों के मन को एकाग्र करने के लिए ध्यान की महत्ता को स्वीकारा और इसके लिए विविध सिद्धान्त प्रतिपादित किये। महर्षियों ने यह स्पष्ट कर दिया कि किसी भी वस्तु के मूल स्वरूप को पहचानने के लिए निश्चित विधान के अनुरूप ध्यान परम् आवश्यक है। इसके लिए साधक को तमस व रजस गुणों का दमन कर सत्व गुणों के विकास के निर्देश दिये गये हैं। भगवत गीता में कहा गया है- शुद्ध आहार-विचार से सत्व गुणों में वृद्धि होती है, जो स्मृति को पुष्ट करते हैं और मन को एकाग्र करने में सहायक होते हैं।
श्रद्धा व विश्वास को साधना की रीढ़ कहा गया है और यही साधना के प्रथम सोपान भी माने गये हैं। जो साधक भगवती बगलामुखी देवी की सिद्धि प्राप्त करने का अभिलाषी हो तो उसे किसी भी तरह की शंका व संशय से मुक्त होकर पूर्ण श्रद्धा,संयम ,धैर्य व विश्वास के साथ देवी की उपासना करनी चाहिए। देवी के करुणामयी स्वरूप पर ध्यान केन्द्रित कर शुभ, सुखद व अनुकूल भाव की अनुभूति का अभ्यास करना चाहिए। इससे साधक का अचेतन मन जाग्रत हो उठता है और उसके चारों ओर एक दिव्य वातावरण निर्मित होने लगता है। फलस्वरूप सिद्धि का मार्ग प्रशस्त होने लगता है।
भारतीय मनीषियों न इस संसार को कर्म प्रधान कहा है। सिद्धि भी कठोर परिश्रम से ही प्राप्त हो सकती है। परिश्रम का धार्मिक भाव ही तप कहलाता है। प्रारब्ध का फल सुख अथवा दुःख के रूप में भोगना ही पड़ता है, किन्तु भाग्य का निर्माण कर्म से ही होता है। इसलिए साधक को यह बात भली-भांति गांठ बांध लेनी चाहिए कि सिद्धि प्राप्ति के लिए भूख, प्यास, निद्रा, आराम, मनोरंजन आदि विषयों का त्याग कर तपस्वी आचरण नितान्त आवश्यक है।

साधना और ब्रह्म मुहूर्त
भगवान श्री कृष्ण ने कहा है- ब्रह्म मुहूर्त में निद्रा त्याग कर नित्य कार्योंे में संलग्न होने वाला व्यक्ति स्वतः ही योगी की श्रेणी में आ जाता है। भगवान की इस वाणी से ब्रह्म मुहूर्त की महिमा का अनुमान लगाया जा सकता है। शास्त्रों में भी कहा गया है-ब्रह्म मुहूर्त में जागने वाला व्यक्ति दैहिक, दैविक व भौतिक तापों से मुक्त होकर अद्वितीय तेज से युक्त हो जाता है।
सामान्यतः प्रातःकाल साढ़े तीन बजे से पांच बजे के मध्य के समय ब्रह्म मुहूर्त कहा गया है। यह समय स्वाध्याय, योगाभ्यास,ध्यान साधना आदि धार्मिक व आध्यात्मिक कार्यों के लिए अत्यधिक उपयोगी माना गया है। इसलिए भगवती बगलामुखी के साधकों के लिए ब्रह्म मुहूर्त के महत्व को समझना तथा निश्चित साधना विधान का पालन करना परम् आवश्यक है।

पीताम्बरी साधना विधान
दश महा विद्याओं में एक भगवती बगलामुखी देवी को ही भगवती पीताम्बरी देवी कहा गया है। पीले सरोवर में प्रकट होने तथा पीले वस्त्र धारण करने के कारण भगवती के भक्तों, साधकों तथा स्वयम् ग्रन्थकारों ने उन्हें पीताम्बरी मॉ कहकर प्रतिष्ठित किया।
पीताम्बरी(बगलामुखी) देवी की साधना का विधान गहरे सागर तल से मोती निकालने के समान अत्यधिक कठिन एवं जोखिमपूर्ण है। जिस प्रकार सागर के लहरों के बीच मोती खोजने में कई बार जान भी गंवानी पड़ जाती है, उसी प्रकार पीताम्बरी(बगलामुखी) साधना में भी निर्धारित क्रम, निर्धारित सिद्धान्त, निश्चित नियम एवं अपेक्षित योग्यता की अनदेखी से साधक का जीवन संकट में पड़ जाता है और कई बार इस सबकी कीमत जान गंवाकर भी चुकानी पड़ती है।
साधक के लिए यह जान लेना बहुत जरूरी है कि तंत्र साधना में प्रयुक्त विद्या को एक रहस्यमय, गोपनीय एवं अलौकिक विज्ञान कहा गया है। इसलिए इसका ज्ञान केवल साहसी, पुरुषार्थी,दृढ़ निश्चयी, धीर-वीर-गम्भीर तथा कुल मिलाकर एक सुयोग्य साधक को ही दिये जाने का विधान है। इन गुणों के अभाव में साधक के पागल हो जाने या फिर प्राण तक खो देने का पूरा-पूरा जोखिम बना रहता है। ऐसे में किसी सुयोग्य गुरु का सानिध्य अनिवार्य हो जाता है। वास्तव में गुरु ही साधक की सही स्थिति का आंकलन कर सकता है और उसी के अनुरूप गुरु ही यह तय करता है कि साधक, सिद्धि प्राप्त करने में सक्षम है अथवा नहीं। गुरु का मार्गदर्शन यूं तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यक है, लेकिन आध्यात्मिक साधना तो गुरु कृपा के बिना सम्भव ही नहीं है। तंत्र साधना में गुरु, साधक के लिए सुरक्षा कवच बनकर किसी भी जोखिम से उसे निर्भय कर देता है तथा साधक अपनी सफलता के लिए भी लगभग आश्वस्त हो जाता है। इसीलिए भारतीय आध्यात्म साधना में गुरु परम्परा का विशेष माहात्म्य है।
जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता के लिए हर कार्य की एक निश्चित प्रक्रिया, निश्चित प्रणाली, निश्चित क्रम व निश्चित नियम होते हैं, जिनका अनुपालन न करने पर सफलता संदिग्ध ही रहती है। अध्यात्म के क्षेत्र में तो निश्चित प्रणाली, सिद्धान्त व नियमों के साथ ही अनेकानेक निषेध भी निर्धारित किये गये हैं।
साधनाकाल में साधक के लिए अत्यधिक शुद्ध व सात्विक रहन-सहन के निर्देश हैं। अर्थात सांसारिक विषयों में रुचि, ,राग-द्वेष,मिथ्याभाषण, अतिवाद,सजने-संवरने का भाव, भोजन की लालसा,अपवित्रता आदि का पूर्णतः निषेध है। नियम विरुद्ध आचरण से साधना स्वतः ही खण्डित हो जाती है।
साधना में दृढ़ इच्छा शक्ति का तो अपना ही महत्व है। इसी को संकल्प कहा गया है। संसार के महान लोगों ने संकल्प शक्ति के बल पर ही चमत्कारिक सफलताएं अर्जित की हैं। दृढ़ संकल्प शक्ति वाले लोग देश,काल व परिस्थितियों की प्रतिकूलता में भी अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होते। इसीलिए पीताम्बरी देवी के साधक को भी दृढ़ संकल्पी होना चाहिए।

भगवती पीताम्बरी देवी(बगलामुखी) का पूजन-वन्दन,ध्यान आदि यूॅ तो कभी भी किया जा सकता है, परन्तु सिद्धि प्राप्त करने के निमित्त की जाने वाली साधना के लिए शुभ-अशुभ योग पर भी विचार करना जरूरी बताया गया है। प्रायः वैसाख, श्रावण,आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष तथा फाल्गुन मास साधना के लिए शुभ बताये गये है, जबकि भाद्रपद और पौष मास के साथ ही मलमास(अधिमास) में साधना निषेध कही गयी है। इसके अलावा पक्ष का भी ध्यान रखा जाताहै। प्रायः शुक्ल पक्ष में की गयी साधना उत्तम मानी जाती है। इसी तरह दिन-वार का भी महत्व माना गया है। मंगलवार व शनिवार के दिन साधना का निषेध बताया गया है। तिथियों के निर्धारण में भी सावधानी वरतने की अपेक्षा की गयी है। सामान्यतया द्वितिया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, त्रयोदशी और पूर्णमासी को साधना आरम्भ करना अत्यधिक शुभ माना जाता है। कुल मिलाकर देवी भगवती पीताम्बरी(बगलामुखी) का सामान्य पूजन-वन्दन तो कभी भी किया जा सकता है लेकिन सिद्धि के लिए की जाने वाली साधना में सावधानी बहुत आवश्यक है, लाभ के स्थान पर हानि की सम्भावना अधिक रहती है,जबकि अन्य किसी आध्यात्मिक साधना लापरवाही वरतने पर लाभ तो नहीं मिलेगा किन्तु किसी तरह के नुकसान का भय नहीं रहता है।
भगवती पीताम्बरी के सिद्धपीठ

महामाया भगवती पीताम्बरी देवी(बगलामुखी) के प्राचीन सिद्धपीठ केवल तीन हैं, जो द्वापरयुग के बताये जाते हैं। इनमें पहला नलखेड़ा में, दूसरा नेपाल में और तीसरा विहार में स्थित है। इनके अतिरिक्त देश के अनेक भागों में भी भगवती महामाया पीताम्बरी(बगलामुखी) के मन्दिर हैं। तांत्रिक साधना की दृष्टि से मध्य प्रदेश में उज्जैन व दतिया के बाद नलखेड़ा स्थित सिद्ध बगलामुखी मन्दिर देशभर में प्रसिद्ध है।

नलखेड़ा का बगलामुखी(पीताम्बरा देवी) मन्दिर
पीताम्बरा देवी का यह मन्दिर मॉ भगवती की अराधना व सिद्धिके लिए भारत भर में प्रसिद्ध है। नलखेड़ा के इस बगलामुखी मन्दिर की बहुत बड़ी महत्ता है। कहा जाता है कि यहां बगलामुखी देवी की मूर्ति महाभारतकालीन है। महाभारत के एक प्रसंग के अनुसार-योगेश्वर श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध से पूर्व धर्मराज युधिष्ठिर से कौरवों पर विजय सुनिचित करने के लिए मॉ बगलामुखी की अराधना करने व मॉ की आकर्षक मूर्ति प्रतिष्ठापित कराने के लिए कहा। युधिष्ठिर ने सभी पाण्डवों के साथ मिलकर ऐसा ही किया और अन्ततः पाण्डवों को विजयश्री प्राप्त हुई।

सदियों से ही यहां बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा, साधक, साधना करते आये है। आज भी यहां एक से बढ़ कर एक चमत्कार होते रहते हैं। देश के कोने-कोने से अनेक साधु सन्त यहां तंत्र साधना के लिए आते हैं। शास्त्रों का मत है कि देवी पीताम्बरा यानी बगलामुखी दश महाविद्याओं में से एक प्रमुख महाविद्या है और ऐसी शक्ति है जो रोग-शोक से तथा शत्रुओं द्वारा कराये गये अभिचार को दूर कर देती है।
आमतौर पर बगलामुखी देवी के साधक तंत्र सिद्धि के लिए मॉ की साधना करते हैं, लेकिन नलखेड़ा के निवासी मॉ की पूजा, अर्चना,अराधना, अनुष्ठान आदि भगवती के पीताम्बरा स्वरूप की ही करते आये हैं। मन्दिर के बाहर सोलह खम्बों से निर्मित एक सुन्दर सभा मण्डप है। बताया जाता है कि इस मण्डप का निर्माण सम्वत् 1810 में नलखेड़ा के तत्कालीन सूबेदार पण्डित ईबुजी द्वारा करवाया गया था। निर्माण कार्य में दक्षिण भारतीय कारीगर तुलाराम का शिल्प कौशल देखते ही बनता है। मन्दिर के ठीक सामने अस्सी फिट ऊंचा दीप स्तम्भ निर्मित है, जो काफी सुन्दर लगता है। उसके ठीक सामने मन्दिर का मुख्य द्वार है। सिंहमुखी आकार का यह द्वार अत्यधिक आकर्षक और भव्य है। मन्दिर परिसर में ही बजरंगबली हनुमान जी तथा श्री गोपाल जी के भव्य मन्दिर स्थित हैं, जहां स्थानीय लोग नित्य पूजा-अर्चना को पहुंचते हैं।

एक जनश्रुति के अनुसार नलखेड़ा के तत्कालीन सूबेदार की कोई संतान नहीं थी। किसी ज्योतिषी की सलाह पर सूबेदार की पत्नी ने भगवती बगलामुखी के पीताम्बरा स्वरूप की विधि पूर्वक आराधना की। बताते हैं कि मॉ की कृपा से उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और इसी खुशी में उसने श्रद्धा के साथ यहां मन्दिर परिसर में सुन्दर सभा मण्डप का निर्माण करवाया।
बगलामुखी(पीताम्बरी देवी) का यह प्राचीन शक्ति पीठ पूर्व में सूनसान एवं वियावान जंगल के बीच स्थित था, लेकिन समय बदलने के साथ-साथ यहां चारों तरफ बसासत भी होतीे चली गयी। बताया जाता है कि पुरातन कालीन इस शक्तिपीठ में पूजा-अर्चना एक ही परिवार के पुजारियों द्वारा वंश परम्परा के अनुसार सम्पन्न की जाती है। इस मन्दिर में रात्रि विश्राम करना वर्जित है। इसके पीछे अनेक जन श्रुतियां व धारणाएं प्रचलित हैं, जो पूर्व से ही चली आ रही हैं।
एक जनश्रुति के अनुसार शक्ति पीठ के समीप ही एक नाला है, जो वर्षाकाल में अक्सर बहुत उफान पर रहता है। एक दिन यहां का पुजारी, पूजा कर्म सम्पन्न कर घर लौटने को था कि मूसलाधार बारिश हो गयी और लगातार वर्षा के चलते नाला सहसा रौद्र रूप में बहने लगा। पुजारी को रात्रि विश्राम मन्दिर में ही करना पड़ा। रात्रि में अचानक पुजारी को ठंड लगी तो उसकी आंख खुल गयी। उसने देखा कि वह मन्दिर के बाहर अहाते में पड़ा हुआ है। इस घटना से पुजारी को बड़ी हैरानी हुई और अपनी भूल पर पश्चाताप भी। तब से इस मन्दिर में रात्रि काल में ठहरना,विश्राम करना या सोना, सभी के लिए बन्द हो गया।

पीताम्बरा शक्ति पीठ-एक परिचय
दतिया(मध्य प्रदेश)

भारतवर्ष के मध्य प्रदेश राज्य अन्तर्गत दतिया नगर में स्थित पीताम्बरा शक्ति पीठ, भगवती बगलामुखी देवी के प्रमुख शक्ति पीठों में से एक है। इसकी नींव वर्ष 1920 में तत्कालीन महान सन्त पूज्यपाद राष्ट्रगुरु अनन्त श्री स्वामी जी महाराज द्वारा लोक कल्याण के पावन संकल्प के साथ रखी गयी थी। यहीं से बगलामुखी देवी की साधना एवं पूजा-अर्चना पीताम्बरा स्वरूप में आरम्भ हुई और देखते ही देखते इस शक्तिपीठ की कीर्ति पूरे भारतवर्ष में फैल गयी और वर्तमान में तो मॉ का यह प्रसिद्ध शक्तिपीठ दुनिया भर के समर्पित साधकों के लिए एक महातीर्थ के रूप में लोक प्रसिद्ध है।

शक्तिपीठ व आश्रम का पुरातन स्वरूप

    • दतिया स्थित भगवती पीताम्बरी माई के इस शक्तिपीठ का पुरातन स्वरूप बड़ा ही आकर्षक, मनोहारी एवं परम शान्तिदायक था। नैसर्गिक वातावरण के बीच स्थित यह शक्तिपीठ तब चारों ओर से सघन वनों से घिरा हुआ था। आश्रम से लगे वन क्षेत्र में दिन के समय में भी अनेक वन्य जीव यत्र-तत्र निर्भय होकर विचरते रहते थे। ऐसे भी प्रशंग मिलते हैं जब हिंसक वन्य जीव आश्रम परिसर में आ कर शान्त भाव से घंटों बैठे रहते थे और महाराज के सानिध्य में मानो भक्ति का लाभ उठाते थे। हरे-भरे वृक्षों से आच्छादित आश्रम में नाना प्रकार के पक्षियों का मधुर कलरव यहां के दिव्य एवं मनोहारी वातावरण को और भी मोहक बना देता था। मन्द पवन के बीच रंग-विरंगे फूलों पर मंडराते भंवरों की गुंजन समूचे वातावरण में संगीत का अनुभव कराती प्रतीत होती थी। आश्रम में दूर-दूर से आकर सन्त-महात्मा एवं साधकगण नित्य ही शोभा पाते थे और पूज्यपाद अनन्त श्री महाराज जी के स्नेह,सानिध्य एवं मार्गदर्शन में मॉ भगवती पीताम्बरी देवी की कठोर व पवित्र साधना में रत रह कर अनेकानेक सिद्धियां अर्जित करते थे। सभी तरह की सिद्धियों में लोक कल्याण की पुनीत भावना सर्वोपरि रहती थी।
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