सतयुग के प्रसिद्ध राजा सत्य केतु की कर्म भूमि रहा उत्तराखण्ड़ का यह क्षेत्र

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हिमालय भूमि की आध्यात्मिक संस्कृति जितनी समृद्ध है उतनी ही विराट व अनन्त भी। इसलिए हिमालय के बारे में पुराणों में कथन है कि “देवात्मा हिमालयो नाम नगधिराज।”। वास्तव में महाशक्ति ही परम ब्रह्मा के रूप में हिमालय भूमि के कदम-कदम पर प्रतिष्ठित है। आदि शक्ति जगत जननी जगदम्बा की महिमा से यह भूधरा धन्य है। इसी धरा पर अलौकिक महिमा का पावन क्षेत्र है श्रीनगर।

देवभूमि गढ़वाल में स्थित श्रीनगर की महिमा बड़ी अनन्त है। इस क्षेत्र में बारे में कहा जाता है कि मनुष्य तो क्या बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, त्यागी – तपस्वी, सुर-असुर कोई भी श्री क्षेत्र की महिमा का बखान करने में पूर्णतः समर्थ नहीं है। महर्षि सूत जी ने इस क्षेत्र का महात्म्य स्कंद पुराण के केदारखण्ड में विस्तार से कहा है। श्री सूत जी और श्री नारद जी के अलौकिक संवाद में श्री क्षेत्र महात्म्य का वर्णन बडा ही रोचक है। आध्यात्म की यह रोचकता मानव हृदय को परम शान्ति प्रदान करती है। केदार खण्ड के 176वें अध्याय में कहा गया है कि हिमालय के दक्षिण भाग में स्थित श्रीनगर, श्री क्षेत्र ही नहीं बल्कि क्षेत्रराज है। जहां परम पावनी अलकनन्दा नदी प्रवाहित होती है। श्री क्षेत्र नामक पवित्र पीठ महादेवी की निवास भूमि है। ‘नाम्ना श्री क्षेत्रकं पुण्यं महादेव्या निवासम्: ईश्वर की सर्वव्यापकता के साथ यहां श्रेष्ठ नदियां हैं। यह परम गुप्त क्षेत्र पावन व पूज्यनीय है। इसी भूमि पर कुबेर ने तपस्या करके परम समृद्धि को प्राप्त किया और लोकपाल बने
महाप्रतापी राजा महुष ने यहीं पर तपस्या करके परम दुर्लभ समृद्धि को प्राप्त किया था। श्रीनगर ही वह पावन भूमि है जहां पाण्डु पुत्र अर्जुन ने महेश्वर की घोर आराधना करके पशुपतास्त्र प्राप्त किया व अजेय हो गया था। श्रीनगर में ही माता दुर्गा ने चण्ड और मुंड नामक महासुरों को निहत किया। इस अलौकिक भूमि के चारों ओर धार्मिक आस्था को रेखांकित करते भव्य देव स्थल श्रद्धा व भक्ति का महासंग माने जाते हैं। पुराणों के अनुसार श्री क्षेत्र का रोचक वर्णन करते हुए स्कंद जी ने देवर्षि नारद को गूढ़ रहस्या बतलाते हुए कहा है- कोल के शिर लेकर जहां तक कोल का शरीर है वहां तक श्री क्षेत्र चार योजन के प्रमाण है। तीन योजन तिरछा व लम्बा है। वह अत्यन्त पुण्यतम क्षेत्र सभी शास्त्रों गोपित है।
परम धर्मवाला परम प्रतापी राजा धर्मनेत्र ने माता जगत जननी जगदम्बा की आराधना के फल से भगवान विष्णु के सदृश पुत्र प्राप्त किया। श्री क्षेत्र की भूमि का यह गूढ़ रहस्या का उद्घाटन स्वयं भगवान शिव ने स्कन्द को बताकर किया। इस विषय पर केदारखण्डके 177वें अध्याय में विस्तार से वर्णन आता है।भगवान शिव स्कन्द से कहते हैं “हेहय का पुत्र धर्मनेत्र हुआ वह राजा परम धर्मज्ञ तथा राज्य पालन में तत्पर रहता था लेकिन उसकी कोई सन्तान नहीं थी। तपस्या के लिए उसने हिमालय की ओर कदम बढ़ाया। इस महाक्षेत्र में राजा ने खुद को कृतकृत्य महसूस किया और यहां उनकी भेंट महामुनि उल्फालक से हुई। पुत्र रहित राजा धर्मनेत्र ने अपनी व्यथा महामुनि को बताई। उल्फालक बोले हे राजन! तुम भाग्यवान हो जो इस श्रेष्ठ क्षेत्र में आये हो। यहां सभी देवता निवास करते हैं। यहां साक्षात महादेव उमा के साथ रहते हैं। महापापी भी यहां परम गति को प्राप्त हुए हैं। फिर धर्म में आरूढ़ ब्राह्मणों का तो कहना ही क्या। तारकासुर के द्वारा स्वर्ग से निष्कासित इन्द्र आदि देवताओं ने यहीं शरण ली। इसी महास्थान को देवताओं ने निवास के लिए चुना। इन तमाम क्षेत्रों का दर्शन शिवत्व को प्राप्त कराने वाला है।
सतयुग के प्रसिद्ध राजा सत्य केतु की भी यही कर्म भूमि रही है। इनके पुत्र सत्यसंध ने महादेवी की कृपा को प्राप्त करके महादुष्ट राक्षस कोलासुर का वध किया। यह क्षेत्र जगतमाता राज राजेश्वरी के नाम से पूजित है क्योंकि इसी भूमि क्षेत्र में महाप्रतापी राजा राजेश्वर ने माँ भगवती की तपस्या करके विपुल सम्पति प्राप्त की। श्री क्षेत्र का वैभव पुण्यदायक सकल पापनाशक है। यह पवित्र भूमि में कंकालेश्वर नाम से महादेव भक्तों को अभयता प्रदान करती हैं। किलकिलेश्वर महादेव का दर्शन पापनाशकारी, भिल्लेश्वर महादेव के दर्शन परम विश्रांति का पैगाम है। इसी भूमि पर भिल्लराज भेषधारी भगवान शिव व अर्जुन का युद्ध हुआ। प्रसन्न भोलेनाथ ने अर्जुन को पाशुपात शस्त्र प्रदान किया। इस क्षेत्र से होकर बहने वाली महानदी खाण्डवा, सकल कामनादायिनी नदी श्रेष्ठ कालिका में स्नान करके पुराणों के अनुसार मनुष्य सौ यज्ञों का फल प्राप्त करता है। वत्सजा, नारायणी नदी, राजिका नदी, दुण्ढिप्रयाग तीर्थ, पुण्यवती, ढौढिकी, निर्मलेश्वर, भैरवी धारा, श्रीकुंड, अश्वतीर्थ, भैरवीपीठ, गौरीपीठ, कमलेश्वर, नागेश्वर, अष्टावक्र महादेव सहित अनेकों पावन तीर्थ इस महाभूमि में शोभित हैं। कंसमर्दिनी और श्री यंत्रपीठ समस्त सिद्धियों के प्रतीक हैं। कहा तो यहां तक जाता है – “मृताः श्री क्षेत्रके ये वे ते नरा मुक्तिभाजन’’ अर्थात श्री क्षेत्र में जो नर मरते हैं वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं। इसी श्री क्षेत्र में परम पूज्यनीय है

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