धौलीनाग सहित तमाम नागों का वास है,यहां के पर्वतों पर

ख़बर शेयर करें

 

 

बागेश्वर ।
धौलीनाग अर्थात् धवल नाग का मंदिर बागेश्वर जनपद अर्न्तगत विजयपुर नामक स्थान से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ की रमणीक छटाओं के मध्य में स्थित है, धवल नाग यानी धौली नाग का पूजन मनुष्य के जीवन को ऐश्वर्यता प्रदान करता है, महर्षि व्यास जीने स्कंद पुराण के मानस खण्ड के 83 वें अध्याय में नाग देवता नाग की महिमा का सुन्दर वर्णन करते हुए लिखा है।
धवल नाग नागेश नागकन्या निषेवितम्।
प्रसादा तस्य सम्पूज्य विभवं प्राप्नुयात्ररः।।
(18/19 मानस खण्ड 83रु0)

नाग पर्वत के अनेक कुलों का पुराणों में बड़े ही विस्तार के साथ वर्णन आता है, इस गोपनीय रहस्य को उद्घाटित करते हुए धवन नाग की महिमा के साथ अनेक नागों की महिमा का विस्तार पूर्वक उल्लेख करते हुए व्यास जीने कहा है, जो प्राणी धवल नाग का पूजन करता है, उस पर अनेक नाग कृपालु होकर अतुल एश्वर्य प्रदान करते है, मानस खण्ड के 79 वें अध्याय में वर्णन आता है, वेद व्यास जीके साथ आध्यात्मिक चर्चा में देवयोग से लोक कल्याण के लिए ऋषियों के मन में नागों की निवास भूमि जानने की इच्छा जागृत हुई अपनी इस व्याकुल इच्छा को जानने के लिए ऋषियों ने व्यास जी से कहा महर्षेः नाग तो पाताल वासी है, पृथ्वी पर उनका आगमन कैसे हुआ, तब व्यास जीने ऋषियों को जानकारी देते हुए समझाया ऋषिवरो! सत्युग के आरम्भ में ब्रहमा ने सारी पृथ्वी को अनेक खण्ड़ो में विभक्त कर दिया था। उन भूभागों में से एक भाग नागों के लिए हिमालय में नागपुर नामक स्थान नियत किया, जो आज भी नाग भूमि के नाम से जानी जाती है, जिसे नागों ने अपना नगर बनाया उसी नगरी के वासी श्री धौलीनाग जी है, माना जाता है, सभी नाग तमाम क्षेत्रों में अदृश्य रहकर भगवान शिव की पूजा अर्चना करते हैं अनन्त, वासुकी, शेष, पदननाभ, शखपाल, धृतराष्ट्र, तक्षक, कालिय कम्बलमू सहित तमाम नागों के प्रति नागपुर वासियों में अगाध श्रद्वा है, अलग अलग नामों से लोग इन्हें अपने ईष्ट देव के रुप में पूजते है* धौलीनाग, बेड़ीनाग, फेडीनाग, हरिनाग, की भी विशेष रुप से यहां पूजा होती है, इन नागों में श्री मूलनारायण जीको नाग प्रमुख की पदवी प्राप्त है, ऐसा वर्णन आता है, कभी आस्तीक ऋषि की अगुवाई में अनेक ऋषियों ने नागों के साथ मिलकर इस क्षेत्र में ब्रहमा जीके दर्शन की अभिलाषा से विराट यज्ञ का आयोजन किया इस यज्ञ को सफल बनाने में फेनिल नामक नाग के महत्वपूर्ण भूमिका निभाई क्षेत्र में बहने वाली भद्रावती नदी का उद्गम इन्हीं के परामर्थ पर ऋषियों ने अपने तपोबल से किया भद्रवती तट पर स्थित गोपीश्वर महादेव नागों के परम आराध्य है, इनकी स्तुति पापों का शमन कर मनुष्य को अभयत्व प्रदान करती है, इतना ही गोपेश्वर भूभाग में पहुचने पर पहुचने वाले पूर्वजों के पापों का हरण हो जाता है सूर्योदय होने पर हिम के पिघलने की तरह यहां पहुचने पर सोने की चोरी करने वाला, अगम्या स्त्री से गमन करने वाला तथा पूर्व में पितरों द्वारा किए गये पापों का भी विलय हो जाता है कहा तो यहां तक गया है, नागों के आश्रय दाता गोपीश्वर का पूजन करने पर सारी पृथ्वी की इक्कीस बार परिक्रमा करने का फल प्राप्त होता है।
त्रिः सप्त कृत्वा सकला धरित्री प्रत्रम्य यद्याति महीतले वै
ततत्र गोपीश्वर पूजनेन सम्पूज्य जाती कुसुमैंः सुशोमनैः
(मानसखण्ड अ0 80/श्लोक 14)

कहा जाता है, इस मंदिर की पूजा खासतौर पर नाग कन्यायें करती है, कुमाऊंॅ के प्रसिद्वनाग मदिर क्षेत्र सनिउडियार भी नाग कन्याओं के ही तपोबल से प्रकाश में आया शाण्डिल ऋषि के प्रसंग में श्री मूल नारायण की कन्या ने इस अपनी सखियों के साथ मिलकर इस स्थान की खोज की इस विषय पर पुराणों में विस्तार के साथ कथा आती है, नाग कन्याओं को गोपियों के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है, इन्हीं की भक्ति से प्रसन्न होकर शिवजी गोपेश्वर के रुप में यहा स्थित हुए और नागों के आराध्य बने इस भाग को गोपीवन भी कहा जाता है भद्रपुर नामक आदि अनेक स्थान गोपीवन के ही भाग है, भद्रपुर में ही कालिय नाग का पुत्र भद्रनाग का वास है। भद्रकाली इनकी ईष्ट है, भद्रापर्वत के दक्षिण की और से इनके पिता कालीय नाग माता कालिका देवी का पूजन करते है।
*ततस्तु पूर्व भागे वै भद्राया दक्षिणे तथा काली सम्पूज्यते विप्राः कालीयने महात्मना।।*
(मानखण्ड अ0 81/श्लोक 11)

भद्रा के मूल में श्री चटक नाग, श्री श्वेतक नाग, का भी पूजन स्थानीय वाशिदों द्वारा किया जाता है, नाग प्रमुख मूल नारायण जी की भी अलौकिक गाथा विष्णु भक्ति का प्रताप इन्हीं क्षेत्रो से जुड़ा हुआ है, सर्वपापहारी त्रिपुर नाग भी फेनिल नाग के ज्येष्ठ पुत्र सुचूड़ नाग का वर्णन भी पुराणों में आता है, कुल मिलाकर नाग पर्वतों में विराजमान नाग मन्दिर सदियों के अटूट आस्था का केन्द्र है, श्रद्वा व भक्ति के संगम में धौली नाग का महात्म्य अतुलनीय है, यह मन्दिर भीमकाय पत्थरों से निर्मित है, जहां सर्प की मूति है, अन्य मूर्तिया नाग देवता की हाथ जोड़कर वंदना करती प्रतीत होती है, दंत कथाओं में भी धौलीनाग जी की महिमा सर्वत्र है भक्तों के अनुसार इस मंदिर की स्थापना आज से लगभग 400 से अधिक वर्ष पूर्व की गई थी उससे पहले नाग देवता यहां स्थित बांज के एक विशालकाय पड़े पर निवास करते थे जो आज भी यहां मौजूद है, यहां के स्थनीय लोगों का कहना है कि एक बार रात्रि के समय इस क्षेत्र के जगंल में अचानक भयंकर आग लग गयी तब बांज के विशाल पड़े पर विराजित धौलीनाग देवता ने ग्राम वासियों को आवाज लगाकर बताया कि जंगल में आग लगी है इसे बुझाने के लिए आओ देवयोग से यह आवाज भूल जाति के लोगों ने सुनी तो वे 22 हाथ की लम्बी मशाल जलाकर रात्रि में ही आग बुझाने को निकल पड़े देवता के जयकारे की आवाज जब यही के धपोला लोगों ने सुनी तो वे घरों से बाहर निकले और भूल लोगों से सारा वृतान्त सुनकर वे भी जलती मशाल लेकर चल दिये, देखते ही देखते चंदोला वशंज के लोग भी मशालों को हाथ में लेकर चल पडे सभी छुरमल देवता के मन्दिर में एकत्र होकर आगे चले यह परम्परा आज भी है यह मंदिर हिमालय की तलहटी में चोरी और बांज, बुराभ, चीड़, काफल दवेदार आदि वनों से आच्छादित है, इस क्षेत्र में अनेक के क्षत्रिय, ब्रहमामण एवं अनूसूचित जाति के लोग निवासिक करते है, चन्दोला, धपोला, धामी, राणा, पन्त, पाण्डे, काण्डपाल कर्म्याल, भूल आदि मिलकर दो हजार परिवार धौलीनाग को अपना आराध्य देव मानेत है दूर दराज क्षेत्रों में प्रवास पर रह रहे लोग जब अपने घर पधारते है, तो ईष्ट देव धौलीनाग के दर्शन करने अवश्य जाते है, परम्परा के अनुसार पुजकवर्ग धामी लोग है, खन्तोली गांव के पन्त लोग भी इनमें से सात्म्कि पूजा अर्चना का विधान है इन्हें घी, खीर, दूध, का भोग लगाया जाता है, भोग लगाने का दायित्व पाण्डये लोगों को सौपा गया है, मंदिर परिसर में समय समय पर रामायण, शिव महापुराण, श्रीमद् देवी भागवत जैसे आयोजन होते रहते है, नई फसल को नैवेध के रुप में सर्वप्रथम लोग अपने ईष्ट धौलीनाग जीको अर्पित करते है।
इस क्षेत्र के बुजुर्गों का कहना है कि धौलीनाग जी की कृपा से आज तक इस इलाके में महामारी सूखा अकाल बाढ, भूस्खलन, सर्पभय, जंगली जानवरों आदि का कोई भय नही रहता है, स्थानीय भाषा में इस मंदिर को उधाण मंदिर भी कहा जाता है, पिण्डी स्वरुप में इनकी पूजा होती है, मंदिर के पूर्व में नौलिग, पश्चिम में मा भगवती, उतर में बंजैण मूल नारायण तथा दक्षिण दिशा की और हुरमल एवं भूमिया देवता सहित अनेक मंदिर है, जब धौलीनाग जी को स्नान कराया जाता है तो दूध जल एवं पुष्प सुंरग के माध्यम से मंदिर से तीन किलोमीटर दूर देलख गांव में दिखाई देता है, इनकी कृपा से यह क्षेत्र काफी खुशहाल है।
वैसे तो नागवश का राज समूचे पर्वतीय भाग में रहा कुमांऊ के क्षेत्रों में नाग मंदिरों की संख्या काफी है, गंगोलीहाट से आगे गुप्तड़ी क्षेत्र में नाग नाम का प्राचीन पर्वत है, बेरीनाग से आगे ऊधर बागेश्वर के आसपास अनेकों नाग मंदिर भक्ताजनों के आस्था का केन्द्र है, गढ़वाल मण्डल के अनेको स्थानों पर प्राचीन नाग मंदिरों के प्रति लोगों के हदयों में गहरी आस्था है।
गौरतलब है, नागवश का जिक्र हिमालय की पुरातन संस्कृति का पावन स्वरुप रहा है, माना जाता है, नागवंश के राजाओं ने लम्बे समय तक यहां राज किया पुराणों के अनुसार नागों की उत्पति कश्यप ऋषि की पत्नी कद्र के गर्भ से हुई

मूलता ये पाताल वासी है, पुराणों के अनुसार सात तलों में विभक्त पाताल में एक लोक नाग लोक भी है, ‘‘पाताले भुजंगा’’ के नाम से पुराणों ने इस और इशारा किया है।

Ad
Ad Ad Ad Ad
Ad