भगवान श्री विश्व कर्मा जी ने अपने कर्मों के पावन प्रताप से सर्व प्रथम भगवान शिव के लिए कैलाश की स्थापना ,उसके बाद भगवान विष्णु के लिए बैकुण्ठ का निर्माण,तत् पश्चात् ब्रह्मां जी के लिए ब्रह्मलोक की रचना की,मॉ भगवती के लिए सुन्दर भवन तथा आठों दिशाओं के स्वामी लोकपालों के लिए आवासों का निर्माण प्रभु की प्रतापी लीला का हिस्सा रही है।इन्द्रदेव,अग्निदेव,वायुदेव,कुबेरजी,सहित सभी देबीदेवता व प्राणियों के लिए रहने की व्यवस्था भगवान विश्वकर्मा जी की कृपा से ही संम्पन हुई,आपने ही वास्तु पूजा का विधान निर्धारित किया।तथा शिल्पी की जगत में प्रतिष्ठा की,शिल्पी पूजा का फल बड़ा ही पावन माना गया है,पुराणों के मतानुसार जिस प्रकार ब्रह्मण पूज्य नीय है,उसी प्रकार शिल्पी भी पूज्यनीय है।वास्तुदेव के साथ साथ शिल्प पूजन का विधान प्राचीन समय से चला आ रहाहै,यज्ञ,मण्डप,वेदी,तथा यज्ञोपवीत सामग्रियों का निर्माण करने वाले शिल्पियों को ब्राहमण की भांति ही दान देने का विधान है।भगवान विश्वकर्मा जी को भगवान विष्णु का ही एक रुप माना जाता है।उनका विश्वकर्मा रुप ही सब प्रकार से मुख्य रुप माना जाता है,क्योकिं बिना शिल्प के संसार चल ही नही सकता है।निर्माण के दायित्व का नाम ही विश्वकर्मा है।भगवान विष्णु माता पार्वती को गुप्त रहस्य बतलाते हुए कहते है,जो मनुष्य निष्ठापूर्वक भगवान श्री विश्वकर्मा जी का ध्यान करता है,उसके सम्पूर्ण पापों का नाश हो जाता है।प्रभु का रुप अत्यन्त तेजोमय,सचिदानंदमय,एंव सम्पूर्ण अभिलाषाओं की पूर्ति करने वाला है।पाँच मुख व दस भुजाओं के साथअलौकिक शरीर धारण करने वाले प्रभु कामहर्षि अगिंरा ने शिल्प कला अद्योपान्त में बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है।यंहा यह भी उल्लेखनीय है,महर्षि अंगिरा का विवाह ऋषि मरीचि की पुत्री अतिरुपा के साथ हुआ था,उन्ही अतिरुपा से वृहस्पति व योगसक्ता का जन्म हुआ ,
धर्मनिष्ठ योगशक्ता का विवाह अष्टम वसु प्रभास के साथ हुआ।मनु के पुत्र प्रजापति के वहां जिन आठ वसुओं ने जन्म लिया ।प्रभास उन्हीं में से एक थे,सात अन्य वसुओं के नाम इस प्रकार है।धर,ध्रुव,सोम,अह,अनिल,अतुल,प्रत्यूष और आठवे वसु थे प्रभास। एक दिन प्रभास व योगसक्ता की धर्ममय चर्चा में प्रभास ऋषि ने अपनी पत्नीयोगसक्ता को विश्वकर्मा के अद्भूत अलौकिक महिमां काबखान सुनाया इसके बाद उनके मन में भगवान विश्वकर्मा को पुत्र के रुप में पाने की तीव्र इच्छा जागृत हुई,तथा उन्होनें पति से आज्ञा लेकर भगवान विश्वकर्मा जी की द्योर आराधना की,विश्वकर्मा जी प्रकट हुए तथा योगसक्ता को वरदान दिया वे उसके पुत्र के रुप में जन्म लेगें समय पाकर प्रभु विश्वकर्मा जी ने योगसक्ता के गर्भ से जन्म लिया।और जन्म लेकर संसार में शिल्पी ज्ञान साहित मन्त्रों व निर्मल ज्ञान की अलौकिक आभा विखेरी
भगवान विश्वकर्मा जी को सम्पूर्ण जगत के आदि निर्माता के रुप में भी पूजा जाता है।उनके पाचँ मुख पाचँ दिशाओं की ओर है,जिनके नाम इस प्रकार है।तत्पुरुष उत्तरदिशामें,पूर्व दिशा में सद्योजात,दक्षिण में कामदेव एंव उर्ध्व दिशा में ईशान मुख है।इसको प्रणव भी कहाजाता है,इसका महत्व सबसे ज्यादा है।क्योकिँ ॐकार से ही वेद व समस्त प्रकार के ज्ञान विज्ञान का जन्म हुआ है अन्य मुख से जो विभूतियां उत्पन हुई,उनमें तत्पुरुष से कुण्डल,सद्योजात से तारक,कामदेव से दण्डक,अघोर से बिंदु,तथा ईशान से अर्धचन्द्र की उत्पत्ति हुई है।समस्त देवताओं का निर्माता भी इन्हें ही माना जाता है।चर अचर सभी की रचना के जनक पुराणों ने भगवान विश्वकर्मा जी को ही माना है,ये सभी के परम पिता व परम गुरु माने गये है।जिनके स्वरुपों व कार्यों का वर्णन कर पाना किसी के लिए भी संभव नही है।
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